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Updated: 15 नवम्बर, 2020 05:34 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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राहुल गांधी (Rahul Gandhi) अब तक जिन जिम्मेदारियों से भागते फिर रहे थे, लगता है धीरे धीरे वे सभी जल्द ही उनके करीब पहुंचने वाली हैं - और जिम्मेदारियों में सबसे बड़ी है कांग्रेस अध्यक्ष (Congress President) की कुर्सी. वही कुर्सी जिसे वो 2019 के आम चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बीजेपी के हाथों दोबारा शिकस्त मिलने के बाद वो जबरन त्याग दिये थे.

बताते हैं कि दिसंबर से कांग्रेस के स्थायी अध्यक्ष बनाने की प्रक्रिया गति पकड़ने वाली है और अगल साल की शुरुआत में ही पार्टी अधिवेशन में राहुल गांधी की दोबारा ताजपोशी की तैयारियां अंतिम रूप लेने वाली हैं. ध्यान देने वाली बात ये है कि कांग्रेस के स्थायी और काम करते हुए नजर आने वाले अध्यक्ष की डिमांड के साथ पार्टी के 23 सीनियर नेताओं ने अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी को चिट्ठी लिखी थी.

राहुल गांधी अभी अभी बिहार चुनाव खत्म होने के बाद राहत की सांस ले रहे हैं और अध्यक्ष की कुर्सी संभालने के फौरन बाद ही उनको 2021 में देश के पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में उतरना पड़ेगा. दूसरे के कंधे पर बंदूक रख कर चलाने और खुद मोर्चे पर लगातार डटे रह कर हार जीत के जो खट्टे मीठे अनुभव होते हैं, उसमें फर्क होता है.

बिहार में 70 सीटों पर चुनाव लड़ने के बाद भी महज 19 सीटें जीतने को लेकर राहुल गांधी एक बार फिर अपने सभी राजनीतिक विरोधियों के निशाने पर आ गये हैं. बिहार की असफलता के साथ तीन साल पहले की यूपी की नाकामी को भी जोड़ कर पेश किया जाने लगा है - और विफलता की पूरी तोहमत राहुल गांधी के मत्थे मढ़ी जा रही है.

बिहार चुनाव में तेजस्वी यादव को लेकर जैसा माहौल देखने को मिल रहा था राहुल गांधी को भी उम्मीद तो रही ही होगी कि महाराष्ट्र और झारखंड की तरह बिहार में भी कांग्रेस को सत्ता में साझीदार बनने का मौका तो मिलेगा ही. अगर ऐसा हुआ होता तो राहुल गांधी नये आत्मविश्वास के साथ कुर्सी पर बैठते भी. राजनीति में हार जीत लगी रहती है - आखिरकार बीजेपी को भी तो आम चुनाव के बाद से तमाम ठोकरें खाने के बाद बिहार में थोड़ी राहत लेने का मौका मिला है, लेकिन लगातार हार ने राहुल गांधी को ऐसे मोड़ पर ला दिया है - जहां ये उनको ये सोचने को मजबूर होना पड़ रहा है आखिर ऐसा क्या वजह है कि राजनीतिक दुख कम होने का नाम ही नहीं ले रहा है?

ओबामा की पाठशाला

अमेरिका के राष्ट्रपति रहे बराक ओबामा (Barak Obama) की राहुल गांधी को लेकर टिप्पणी, कांग्रेस नेताओं के साथ साथ शिवसेना को भी नागवार गुजरी है. शिवसेना के मुख्य प्रवक्ता संजय राउत का सवाल है, 'ट्रंप को तो हमने कभी पागल नहीं कहा. ओबामा हमारे देश के बारे में आखिर कितनी जानकारी रखते हैं?' संजय राउत ने तो भारतीय राजनीति को लेकर बराक ओबामा की समझ पर ही सवाल उठा दिया है - और कहा है कि एक विदेशी राजनेता हमारे देश के किसी भी नेता के बारे में ऐसी कोई राय नहीं दे सकता.

संजय राउत की अपनी पार्टीलाइन की बात अपनी जगह है, लेकिन बराक ओबामा ने राहुल गांधी की योग्यता को लेकर जो सवाल उठाया है वो तो वाकई भारतीय राजनीति के पैमाने में फिट नहीं बैठती - हो सकता है बराक ओबामा को देश की फेमिली पॉलिटिक्स 'बड़े बड़े देशों की छोटी छोटी घटनाओं' जैसी लगी हो. शाहरुख खान का ये डायलॉग भी बराक ओबामा ने अपने भारतीय दौरे में ही दिल्ली में हुए एक कार्यक्रम में बोला था.

बराक ओबामा ने अपनी लेटेस्ट किताब 'ए प्रॉमिस्ड लैंड' में लिखा है, 'राहुल गांधी नर्वस लगते हैं, एक ऐसे छात्र की तरह जिसने अपना कोर्स तो पूरा कर लिया है और उसमें अपने टीचर को प्रभावित करने की आतुरता भी है - लेकिन योग्यता और विषय में महारत हासिल करने का गहरा जुनून नहीं है.'

ऐसा लगता है राहुल गांधी के साथ एक छोटी सी मुलाकात में बराक ओबामा उनके राजनीतिक विरोधियों की तरह ही 'पप्पू' जैसी ही राय बना पाये हैं. गुस्से में एकाध बार राहुल गांधी खुद भी ये बात बोल चुके हैं - 'आप मुझे पप्पू समझते हो... तो समझो!' मुश्किल ये है कि अपने तरीके से सारी भड़ास निकाल लेने के बाद राहुल गांधी गले भी मिलते हैं - और फिर आंख भी मार देते हैं!

rahul gandhiराहुल गांधी के लिए आत्ममंथन का आखिरी मौका आ चुका है

बराक ओबामा ने अपनी किताब में सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह सहित, अमेरिका और दुनिया भर के नेताओं के बारे में टिप्पणी की है, लेकिन राहुल गांधी को लेकर उनका नजरिया कांग्रेस नेता के राजनीतिक विरोधियों के लिए नया मसाला साबित हो रहा है.

अपनी राय शेयर किया है - और राहुल गांधी के साथ साथ सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह पर टिप्पणी को लेकर ये किताब भारत में भी चर्चा का हिस्सा बन गयी है.

अगर योग्यता के पैमाने को छोड़ दें तो राहुल गांधी को लेकर बराक ओबामा की बाकी बातें कई वाकयों से काफी हद तक मेल भी खाती हैं. बराक ओबामा ने राहुल गांधी को नर्वस नेता बताया है. राजनीतिक फैसलों के हिसाब से देखें तो राहुल गांधी का हर बार देर से ऐसा करना तो यही इशारा करता है कि निर्णय लेने में दुविधा आड़े आ जाती होगी. पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हाराव के संदर्भ में कहा जाता रहा है कि कोई फैसला न लेना भी एक फैसला ही होता है - राव के मामले में भले ही ये थ्योरी कामयाब रही हो, लेकिन राहुल गांधी के लिए तो ये घातक साबित हो रही है.

एक शाश्वत अवधारणा है - 'करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान...'

आखिर राहुल गांधी के केस में ये अवधारणा भी गलत क्यों साबित हो रही है?

अब तो राहुल गांधी के सामने पहली चुनौती यही होनी चाहिये कि नये सिरे से मेहनत करें और कामयाबी की ऐसी मिसाल पेश करें कि उनके तमाम राजनीतिक विरोधियों के साथ साथ 'ओबामा की पाठशाला' पर भी सवाल उठाने का कांग्रेस नेताओं को मौका मिल सके!

प्रोफेशनल गाइडेंस से परहेज क्यों?

फर्ज कीजिये कांग्रेस दर्जन भर सीटें और जीत ली होती - तो बिहार के सारे समीकरण बदले हुए होते - और राहुल गांधी भी एक बार फिर तारीफ बटोर रहे होते. जैसी प्रोफेशनल गाइडेंस तेजस्वी यादव ने ली, वैसा ही मार्गदर्शन राहुल गांधी भी तो ले ही सकते थे - और अगर प्रशांत किशोर से संपर्क साधे होते वो खुशी खुशी चुनावी मुहिम संभाल लेते. प्रशांत किशोर तो वैसे भी नीतीश कुमार के खिलाफ मौके की तलाश में होंगे, करीब करीब वैसे ही जैसे 2015 में वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के खिलाफ नीतीश कुमार के लिए चुनावी मुहिम चलाये थे.

2017 में कांग्रेस ने यूपी और पंजाब चुनाव दोनों में प्रशांत किशोर की मदद ली थी. पंजाब तो नहीं लेकिन यूपी में तो वो आधे अधूरे मन से ही प्रशांत किशोर को काम करने का मौका दिया गया. प्रशांत किशोर को साफ तौर पर बोल दिया गया था कि वो सुल्तानपुर, अमेठी और रायबरेली से तो दूर ही रहें क्योंकि वहां के मामले खुद प्रियंका गांधी हैंडल करती हैं. कैसे हैंडल करती हैं वो तो 2019 में अमेठी में साफ भी हो गया.

यूपी में प्रशांत किशोर को प्रत्याशियों के चयन में भी दखल देने से दूर रहने को कहा गया था - देखा जाये तो उनको मीडिया मैनेजमेंट के दायरे में समेट कर रख दिया गया था. आखिर उसी दौरान पंजाब में वही प्रशांत किशोर कांग्रेस की सरकार बनवा ही दिये, लेकिन यूपी में कांग्रेस के सारे काबिल नेताओं की फौज 105 में से सिर्फ सात सीटों पर ही पार्टी को जीत दिला सकी. तब गुजरात में भी सीनियर कांग्रेस नेता चाहते थे कि प्रशांत किशोर की मदद ली जाये लेकिन उनको मना कर दिया गया - और फिर विदेश में सैम पित्रोदा और देश में अहमद पटेल और अशोक गहलोत के साथ राहुल गांधी मोर्चा संभाले - अब नतीजा 'हुआ तो हुआ'.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए काम करने से पहले प्रशांत किशोर ने राहुल गांधी से भी संपर्क किया था, लेकिन उनको दरवाजे से ही उलटे पांव लौटा दिया गया. गुजरात के बाद प्रशांत किशोर ने 2014 में पूरे देश में मोदी के लिए काम किया, लेकिन उसके बाद नहीं. बाद में प्रशांत किशोर की सेवाएं न लिये जाने की जो भी वजह हो, लेकिन जरूरत ही कहां है?

प्रशांत किशोर की सेवाएं लेने वाले ले ही रहे हैं और फायदा भी उठा रहे हैं. कैप्टन अमरिंदर सिंह, जगनमोहन रेड्डी, आदित्य ठाकरे और अरविंद केजरीवाल जैसे नेताओं के केस में तो प्रशांत किशोर सफलता के मानक स्थापित कर ही चुके हैं - पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी को भी वैसे ही मीठे फल का इंतजार है. घोषित तौर पर बिहार में तेजस्वी यादव के लिए प्रशांत किशोर काम नहीं कर रहे थे, लेकिन उनकी पुरानी सलाहियतें आजमाते आरजेडी नेता को तो देखा ही गया - अगर प्रशांत किशोर नहीं भी थे तो तेजस्वी यादव ने जिसकी भी मदद ली हो, महागठबंधन को जो कामयाबी मिली है वो तो सबके सामने है ही. कमजोर कड़ी कांग्रेस ही रही ये भी हर कोई मान रहा है.

छात्रों के लिए हर लेवल पर कोचिंग और जहां ज्यादा जरूरी हो या वैसी जरूरत महसूस हो, प्राइवेट ट्यूशन की भी व्यवस्था होती है. पढ़ाई के दौरान विषय चुनने से लेकर अपने लिए बेहतर फील्ड चुनने तक के लिए कॅरियर काउंसलर की सेवाएं उपलब्ध हैं - और बाकी जीवन के लिए हर तरह के सलाहकारों की सुविधाएं भी हैं. मेडिकल और कानूनी सलाहकारों की मदद लेना तो मजबूरी होती है, लेकिन बाकी फील्ड में मुश्किलें होने के बावजूद ज्यादातर लोग पेशवर सलाहकारों की मदद लेने से बचते देखे जाते हैं - हो सकता है ऐसा न कर पाने के पीछे भी कोई संकोच हो, लेकिन नुकसान तो साफ साफ नजर आता है.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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