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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 24 दिसम्बर, 2022 11:06 PM
अनुज शुक्ला
अनुज शुक्ला
  @anuj4media
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इंदिरा कांग्रेस पर एकछत्र मालिकाना हक़ रखने वाले गांधी-नेहरू परिवार की पार्ट टाइम राजनीति पर हमेशा सवाल उठते रहे हैं. सवाल कि देश, उसकी तमाम व्यवस्थाएं भले भाड़ में चली जाएं मगर हर हाल में गांधी परिवार को सत्ता पर पूरी तरह से नियंत्रण चाहिए. यूपीए के दौरान से ही राहुल गांधी को पीएम का सुयोग्य चेहरा बनाने के लिए पार्टी और गांधी परिवार के वफादार दरबारी हमेशा प्रयासरत दिखे हैं. उन्हें तैयार करने के लिए इंदिरा कांग्रेस ने एक लंबा वक्त और तमाम संसाधन खर्च किए हैं. बावजूद राहुल के फ्रंट से कुछ ना कुछ ऐसा हो ही जाता है कि 'वेटिंग पीएम' का ख्वाब खतरनाक टर्न्स का शिकार होकर ट्रैक से दूर चला जाता है. अभी समूची दुनिया कोविड के नए वेरिएंट को लेकर चिंताग्रस्त है. चीन में हाहाकार है. दुनिया के तमाम देशों की तरह भारत भी कोविड की आशंका में तैयारियां कर रहा है. कुछ केसेस भी सामने आए हैं. इन्हीं तैयारियों के मद्देनजर केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मांडविया ने चिट्ठी लिखकर कुछ दिनों के लिए भारत जोड़ो यात्रा स्थगित करने की गुजारिश की थी.

ये वही मांडविया हैं जब वे केंद्रीय मंत्री बनें तो बादशाहों नवाबों के घरों में पैदा हुए शाही उत्तराधिकारियों ने उनकी अंग्रेजी का मजाक उड़ाया था. लिबरल पत्रकारों ने भी. मजाक यह कि जिन्हें अंग्रेजी नहीं आती वे सरकार कैसे चलाएंगे. और भी तमाम बातें. जरूर चेक करिए, मोदी कैबिनेट के सर्वाधिक सक्रिय मंत्रियों में हैं और उनके नतीजे भी किसी मायने में नितिन गडकरी और एस. जयशंकर से कम नहीं हैं. खैर.

हमेशा की तरह इंदिरा कांग्रेस के प्रचार तंत्र ने इसे भी राजनीतिक मुद्दा बना दिया और नैरेटिव तैयार करने की कोशिश की कि असल में राहुल की ताकत से मोदी सरकार डर गई. भारत जोड़ो यात्रा रोकने के लिए कोविड की साजिश रच रही है. कांग्रेस ने संसद ही सिर पर उठा लिया. एक पल के लिए लोगों को लगा भी होगा कि सच में सरकार राहुल की जिद्दी यात्रा से डर गई है. सोचा जा सकता है कि उस नेता का पार्टी में जलवा जलाल कितना बड़ा होगा और उसके लिए भारत जोड़ना कितना अहम होगा- जिसने हिमाचल-गुजरात-दिल्ली में चुनाव होने के बावजूद अपनी यात्रा को एक दिन भी रोकना ठीक नहीं लगा. बावजूद कि वह पार्टी की तरफ से पीएम पद का सबसे बड़ा चेहरा है. लेकिन जब अनिश्चित जीत मिल गई तो शपथग्रहण में जीत का सेहरा बांधने पहुंच गए. वे भारत जोड़ने में यूं व्यस्त रहे कि उनके पास इतना भी समय नहीं था कि वर्चुअल सभाएं ही कर लेते. मां के जन्मदिन पर वे कुछ घंटों के लिए भारत जोड़ो यात्रा से अलग हुए.

rahul gandhiराहुल गांधी. फोटो- PTI

कोविड को लेकर सरकार की चिट्ठी पर इंदिरा कांग्रेस ने खुद माहौल बनाया, खुद ही बिगाड़ दिया  

सरकार की चिट्ठी पर संसद में माहौल तगड़ा बन गया तो लगे हाथ राहुल ने हरियाणा से मनसुख मांडविया की चिट्ठी का जवाब भी दे दिया. उन्होंने कहा- "ये मोदी सरकार का नया आइडिया है. मुझे चिट्ठी लिखी गई है कि कोविड आ रहा है. यात्रा बंद करो. कोविड आ रहा है यात्रा बंद करो. अब भैया मतलब आप देखिए अब यात्रा को रोकने के लिए बहाने बन रहे हैं. मास्क पहनो, यात्रा बंद करो कोविड फैल रहा है. सब बहाने हैं. हिंदुस्तान की शक्ति हिंदुस्तान की सच्चाई से से ये लोग डर रहे हैं." राहुल और इंदिरा कांग्रेस के तमाम दरबारियों- जिनके पास वोट नहीं है, दो टूक कह दिया कि भैये यात्रा नहीं बंद होगी. कश्मीर तक जाकर रहेगी. जो करना है कर लो. संसद से सड़क तक हल्ला मचाने के बाद वही कांग्रेस कोविड की वजह से यात्रा तो स्थगित करने को तैयार नहीं हुई. मगर क्रिसमस पर राहुल गांधी बढ़िया से छुट्टियां एन्जॉय कर सकें और लंबी यात्रा की थकान उतार सकें- इसके लिए अब लंबा ब्रेक लिया जा रहा है. सिर्फ तीन दिन के अंदर सारा घटनाक्रम इंदिरा कांग्रेस और गांधी परिवार की देश के प्रति जिम्मेदारी और राजनीतिक गंभीरता और संवेदनशीलता बताने के लिए पर्याप्त है.

कहा तो यह भी जा रहा है कि राहुल ब्रेक का इस्तेमाल एक विदेश यात्रा के लिए ही करेंगे. वैसे राहुल की ज्यादातर विदेश यात्राएं बहुत प्राइवेट किस्म की होती हैं. एक घरेलू छुट्टी पर बवाल मचने के बाद वे देश से बाहर छुट्टियां बिताना ज्यादा पसंद करते हैं. दूसरी सरकारों में जासूसी का भी खतरा हमेशा बना ही रहता है. साल 2015 में जरूरी चुनाव हो रहे थे बिहार में और राहुल विदेश घूमने निकल गए. ऐसे दर्जनों मौके हैं. संसद चल रही होती है और राहुल अक्सर सदन से गायब होते हैं. बस संसद में भाषण देते वक्त मौजूद रहते हैं. या फिर अपनी ही सरकार के खिलाफ कोई स्टंटबाजी करनी होती है- अपने जैसे दो चार दरबारी नेताओं को लेकर संसद में नमूदार हो जाते हैं और पीएम मनमोहन सिंह का ही बिल फाड़ कर लगभग उनके चेहरे पर मार देते हैं. लेकिन अपने ही सांसदों का भाषण सुनने के लिए संसद में मौजूद नहीं रहते. समझा जा सकता है कि ऐसा नेता भला सरकार और दूसरी पार्टियों के नेताओं की बात क्यों ही सुनेगा?

राहुल गांधी से बड़ा दूसरा कौन है देश में भला, पुरखों के त्याग की राजनीतिक भरपाई नहीं कर पाए हैं अभी

वैसे भी किसी नेता के भाषण में राहुल गांधी को सुनाने के लिए क्या होगा? किस परिवार के नेता की पिछली आठ-दस पीढियां राजनीति में सक्रिय रही हैं. नेहरू के पुरखे बादशाहों के दौर से उनके दरबारों के राजनीतिक शह-मात का खेल देखते आए हैं. मोतीलाल नेहरू से उनके माता-पिता तक मजबूत राजनीतिक विरासत दिखाई पड़ती है.संसद और भारत का भला कौन सा नेता राहुल से बड़ा है?

मगर सवाल है कि अगर सरकार राहुल गांधी की यात्रा से डर गई और उसे रोक रही थी तो राहुल खुद क्यों ब्रेक पर जा रहे हैं? अभी तो वे कह रहे थे कि यात्रा किसी भी सूरत में नहीं रुकेगी. कम से कम उन्हें दस-पंद्रह दिन का वक्त गुजारना चाहिए था फिलहाल. बस मुश्किल यह थी कि दस पंद्रह दिन बाद ना तो क्रिसमस रहता और ना ही न्यू ईयर. सामान्य बुद्धि का इंसान भी घटनाक्रमों से इतना तो समझ ही सकता है कि राहुल को महामारी से कोई मतलब नहीं. देश का चाहे जो भी हो. उन्हें सत्ता चाहिए. उन्हें भारत जोड़ने के लिए कश्मीर जाना ही जाना है. अब दूसरी बात है कि भारत या कश्मीर में भला टूटा क्या है और क्या जोड़ने जा रहे हैं. सिर्फ राहुल गांधी और उनका परिवार ही बता सकता है. इंदिरा कांग्रेस के दूसरे नेता भी इस बारे में कुछ भी पुख्ता कहने में असमर्थ होंगे.

राहुल की मौजूदा राजनीतिक स्थिति के लिहाज से यह मौका छुट्टियां मनाने का तो नहीं था. वे चाहते तो केंद्र सरकार की चिट्ठी को ही आधार बनाकर बेहतर माहौल बना सकते थे. लोगों को समझाया जा सकता था कि वाकई सरकार डर गई है. मगर राहुल की हरकतों से यही साबित हो रहा कि वेटिंग पीएम पार्ट टाइम राजनीतिक हैं. उन्हें कुर्सी इसलिए नहीं चाहिए कि वे डिजर्व करते हैं. बल्कि इसलिए चाहिए कि देश पर उनके खानदान के बड़े उपकार हैं. बावजूद कि उनके परनाना, नानी, पिता और उनकी माता स्वयं भी सत्ता का प्रचुर सुख भोग चुकी हैं, मगर लगता तो यही है कि गांधी परिवार अभी तक अपने योगदान की कीमत देश से वसूल नहीं पाया है.

राहुल की छुट्टियों से साबित हो गया- बिल्कुल भी नहीं बदले, हजार यात्राएं भी नहीं बदल पाएंगी

महामारी के लिए यात्रा रोकने से मना करना और छुट्टियों के लिए ब्रेक लेने से तो यही साबित होता है कि एक जिम्मेदार नेता के रूप में उनमें संवेदनशीलता और गंभीरता की घोर कमी है. वे जैसे पहले थे अब भी बिल्कुल वैसे ही हैं. यात्रा में समय बिताने के बावजूद राहुल या कांग्रेस की फितरत में कोई परिवर्तन नहीं आया है. वे कश्मीर जाने की जिद कर रहे हैं और ब्रेक के बाद वहीं जाएंगे भी. बावजूद कि अब कश्मीर जाकर कौन सा तोप मार देंगे कुछ कहा नहीं जा सकता. श्रीनगर का लाल चौक अब सामान्य हो चुका है. अब तो ऐसा माहौल भी नहीं कि वहां आतंकियों ने धमकी दी है कि श्रीनगर में भारत को तिरंगा नहीं फहराने देंगे. और राहुल आतंकियों को जवाब देने वहां तिरंगा फहराने जा रहे हों. जब कश्मीर जाकर देश को संदेश देना था- तब तो नहीं गए थे. सुरक्षा भी बड़ा मसाला है. राहुल को सरकार का शुक्रगुजार होना चाहिए कि अब कश्मीर से कन्याकुमारी तक बेख़ौफ़ घूम सकते हैं. वरना तो उनकी नानी की अपनी ही सरकार में अपनी सुरक्षा नहीं कर पाई. उनके पिता भी अपने समर्थन से चल रही सरकार में खुद की सुरक्षा नहीं कर पाए. दोनों पूर्व प्रधानमंत्री देश पर कुर्बान हो गए.

हां, हो सकता है कि उन लोगों को संदेश देने कश्मीर जा रहे हों कि भैया मेरी सरकार आ गई तो कश्मीर में आर्टिकल 370 को फिर से बहाल कर देंगे ताकि भारत आराम से जुड़ जाए. और उस सिंडिकेट को भरोसा दिलाने का प्रयास करेंगे जो नेहरू की गुटनिरपेक्षता की नौटंकी में पाकिस्तान की तरह ही फिलिस्तीन का समर्थन करता रहा. एकतरफा समर्थन. सिर्फ वोटबैंक के लिए. बावजूद कि दुनियाभर में सताए गए यहूदियों का कोई दोष नहीं था. हमने लंबे वक्त तक वोटबैंक को भुनाने के लिए पकिस्तान की तरह ही इजरायल से घृणा की. और बहुत बाद में उसे वह दर्जा दिया जिसका हकदार था वो. आज की तारीख में इजरायल हमारा सबसे भरोसेमंद मित्र देशों में से एक है. बहुत लोगों को मालूम नहीं होगा कि इंदिरा जी के अराफात से भाई बहन की तरह गहरे संबंध थे और वह इसलिए कि वोटबैंक के दबाव में भूखे नंगे लोगों का देश फलस्तीन को तमाम तरह की मदद दे रहा था. गुटनिरपेक्ष सीमा से बाहर जाकर. इजरायल से पाकिस्तान की घृणा समझ में आती है. पाकिस्तान इस्लामिक मूल्यों पर बना देश है. पर इजरायल ने भारत का क्या बिगाड़ा था?

फलस्तीन के साथ तो भारत के सांस्कृतिक राजनीतिक और आर्थिक संबंध नहीं थे. अरब की तरफ से लड़ने भाड़े के सिपाही अतीत में आए हों तो बात अलग है. पर उसके लिए भी फलस्तीन को मदद करना भारत जैसे गरीब देश के कंधों पर और ज्यादा बोझ डालना है. वह भी एक ऐसे देश को मदद जिसकी जमीन पर मजहबी आतंक सरेआम पलता है. क्या किसी वोटबैंक को ललचाने के लिए इंदिरा कांग्रेस ने पाकिस्तान की तरह ही इजरायल-फलस्तीन विवाद में अन्याय का साथ दिया? जबकि फलस्तीन का संकट मजहबी और मानव निर्मित है. भारत को मदद देने की क्या जरूरत थी भला? अभी हाल ही में विदेश मंत्री एस जयशंकर ने संसद में बताया भी कि मोदी सरकार ने फलस्तीन की रिफ्यूजी वेलफेयर एजेंसी को जाने वाली 'जकात' समय पर जारी कर दी. बावजूद कि देश कोविड के बाद से तमाम चुनौतियों का सामना कर रहा है.

ठीक है. राहुल जी, छुट्टी मनाकर आइए. और कश्मीर के लिए भारत जोड़ो यात्रा की जो शुरुआत की थी उसे पूरा भी करिए. लेकिन देश का मतदाता अब बहुत अच्छे से जान चुका है कि राजनीति में तीतर के आगे कितने तीतर हैं और पीछे कितने तीतर हैं. उसे मूर्ख मत समझिए. कोविड के लिए ब्रेक लेने या मास्क लगाने पर बवाल मचाने वाले अब यह तर्क ना दें कि राहुल गांधी ने यात्रा से ब्रेक उन कार्यकर्ताओं के लिए लिया है जो हफ़्तों से घरबार छोड़कर साथ चल रहे हैं. इंदिरा कांग्रेस के दरबारी भोपू यही वजह गिना रहे. राहुल की थकान मिटाने का तर्क नहीं रख रहे हैं.

लेखक

अनुज शुक्ला अनुज शुक्ला @anuj4media

ना कनिष्ठ ना वरिष्ठ. अवस्थाएं ज्ञान का भ्रम हैं और पत्रकार ज्ञानी नहीं होता. केवल पत्रकार हूं और कहानियां लिखता हूं. ट्विटर हैंडल ये रहा- @AnujKIdunia

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