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Updated: 15 दिसम्बर, 2018 06:50 PM
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लखनऊ में खूब पोस्टरबाजी हो रही है. योगी आदित्यनाथ को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बड़ा हिंदुत्व का चेहरा बताने वाली होर्डिंग के बाद कांग्रेस के जुड़ा एक पोस्टर मार्केट में आ गया है. इस पोस्टर का अंदाज भी बिलकुल वैसा ही है जैसा पिछला था - 'योगी लाओ, देश बचाओ'.

नये पोस्टर में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को देश का 16वां प्रधानमंत्री तक घोषित कर दिया गया है. मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की कामयाबी पर बधाई वाले ये पोस्टर यूपी की राजधानी में कांग्रेस दफ्तर के बाहर देखे गये हैं.

congress poster lucknowहर पोस्टर कुछ कहता है, लेकिन ये तो...

पोस्टर में राहुल गांधी और सोनिया गांधी के साथ साथ यूपी कांग्रेस के अध्यक्ष राज बब्बर की भी तस्वीर है. नीचे कांग्रेस कार्यकर्ता डॉ. शेख जीशान और मोहम्मद अलीम मंसूरी के नाम लिखे हैं.

कार्यकर्ताओं का अति उत्साह कहें, या चापलूसी के जरिये अपनी मार्केटिंग का फंडा, लेकिन ये राहुल गांधी के उसी अति आत्मविश्वास का नतीजा लगता है जिस अंदाज में रिजल्ट आने के बाद उन्होंने रिएक्ट किया था - 'बीजेपी को आज भी हराया है और कल भी हराएंगे'. इससे पहले एक कार्यक्रम में सोनिया गांधी के भी शब्द और अंदाज ठीक ऐसे थे. राहुल की बातों में भी लहजा बिलकुल वही नजर आया है.

बेस्ट टीम के साइड इफेक्ट

2019 के मुहाने पर खड़ी देश की राजनीति में राहुल गांधी के हाथ बेशक बड़ी कामयाबी लगी है. राफेल के मुद्दे पर डटे रहने का इरादा जाहिर कर राहुल गांधी ने आगे की रणनीति की ओर इशारा भी कर दिया है. 'चौकीदार चोर है' - ये नारा आगे भी गूंजता रहेगा. वैसे बीजेपी भी विरोध में सड़क पर उतर आयी है.

सबसे बड़ी बात ये है कि राहुल गांधी के पास इस वक्त बेस्ट टीम है. मुश्किल ये है कि कुछ चुनौतियां ऐसी हैं जो राहुल गांधी का पीछा नहीं छोड़ रही हैं - और लगता है ये राहुल की सबसे अच्छी टीम का साइड इफेक्ट ही है. वैसे जो दिग्विजय सिंह कांग्रेस में हाशिये पर कर दिये गये थे, मध्य प्रदेश में अपने संपर्कों का पूरा फायदा उन्होंने कांग्रेस पर उंड़ेल दिया है. एक दौर ऐसा भी था जब दिग्विजय सिंह ही राहुल गांधी के मुख्य सलाहकार हुआ करते थे. हालांकि, तब काफी कुछ यूपी पर फोकस रहा.

लेकिन इससे अजीब क्या होगा कि कांग्रेस पार्टी में अध्यक्ष की ही नहीं चल पा रही है!

युवराज को राजगद्दी सौंप दी गयी लेकिन ऐसा लगता है जैसे भूमिका मुखौटा भर ही मिल पायी हो!

rahul gandhiनेतृत्व क्षमता पर सवाल खत्म नहीं हुए

अब भी लगता ऐसा है कि सोनिया गांधी की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिल रहा. प्रियंका गांधी की राय कदम कदम पर महत्वपूर्ण है. मुख्यमंत्रियों के नाम पर फैसले के दौरान भी कमांड पीछे से आते हुए लगे और राहुल गांधी बयान जारी करते रहे. हुआ वही जो पहले से तय था. राहुल गांधी आखिर कब तक नोट बांचते रहेंगे? संसद में भी. चुनावी रैलियों में भी - और कांग्रेस कार्यकर्ताओं की बीच होने पर भी. कुर्सी पर बैठने के बाद कभी 'मन की बात' का मौका मिलेगा भी या नहीं?

राजस्थान में कड़े फैसले की जरूरत थी. बीमारी से छुटकारे के लिए कई बार सर्जरी की जरूरत होती है. सर्जरी हो या दवा से ही काम चलायी जाये, ऐसे फैसलों में भी लीडरशिप क्वालिटी की जरूरत होती है. सर्जरी तो दूर हाल तो ये है कि दवा की जगह भी दुआओं का ही ज्यादा असर लग रहा है.

दिन भर चले पर महज ढाई कोस

पेश तो ऐसे किया जा रहा है कि राजस्थान में अशोक गहलोत या सचिन पायलट दोनों ऐडजस्ट हो गये हैं - मगर, ऐसा हकीकत में है भी क्या? अच्छा तो ये होता कि दोनों को ऐडजस्ट करने की बजाये किसी एक को फ्री हैंड दिया गया होता. जिस झगड़े को राहुल गांधी अब तक बचाते रहे उसे पांच साल के लिए एक्सटेंशन दे दिया गया. जो फैसला राहुल गांधी को सख्ती से लेना था, उसे आम राय के हवाले कर दिया गया.

बेहतर तो ये होता कि सचिन पायलट की तरह राहुल गांधी भी अपनी लड़ाई लड़े होते. जब सचिन पायलट को सीएम की कुर्सी पर दावा छोड़ने के लिए मना लिया था तो फिर दिल्ली ही बुला लेते. अगर अभी झगड़ा खत्म कर दिया होता तो पांच साल चैन से रहते और छह महीने बाद 2019 की टेंशन भी नहीं रहती. सिंधिया भी एक और एक ग्यारह जैसा महसूस करते. अशोक गहलोत को भी साफ साफ चेता देते कि 2019 में सीटें नहीं आयीं तो समझ लेना. जैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने सांसदों को आगाह करते रहते हैं - 2019 में देख लेंगे!

फिर तो अशोक गहलोत पर भी प्रदर्शन का अधिक दबाव होता. अब तो वो सारा ठीकरा सचिन पायलट पर फोड़ कर अपना पल्ला बड़े आराम से झाड़ लेंगे. और सचिन पायलट भी आगे से क्यों खून पसीना बहाएंगे जब मलाई किसी और के हिस्से में जानी तय हो? खबर तो यही आ रही है कि अशोक गहलोत ही सोनिया गांधी को पसंद थे. सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल तो पूरी पटकथा ही लिख चुके थे. वैसे भी पटेल को गुजरात चुनाव में अमित शाह के खिलाफ लड़ाई में मिली मदद का एहसान जो चुकाना था. राज्य सभा के चुनाव में जब अहमद पटेल की इज्जत दांव पर लगी थी तो बतौर गुजरात प्रभारी अशोक गहलोत ने काफी मदद की थी. जिस तरह की राजनीति के लिए अहमद पटेल जाने जाते हैं एक बार फिर वैसा ही कर दिखाया. गुजरात के कांग्रेसी दबी जबान बात करते हैं कि अहमद पटेल के चलते ही गुजरात में कांग्रेस का कोई नेता ऊपर नहीं उठ सका.

फिर क्या कहेंगे, सिवा इसके - दिन भर चले भी और सिर्फ ढाई कोस. कहां गुटबाजी खत्म होती, ये तो बढ़ती ही जा रही है. सिर्फ राजस्थान ही नहीं, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के भी हाल तो एक जैसे ही हैं.

बात पार्टी में गुटबाजी या किसी झगड़े-झंझट की नहीं है. ऐसी कौन सी पार्टी होगी जो इससे ऊपर हो. कम से कम लोकतंत्र में ऐसी अपेक्षा तो मूर्खता पूर्ण ही मानी जाएगी. गुटबाजी हर पार्टी में होती है - चाहे वो कांग्रेस हो या बीजेपी या कोई और. ये नेतृत्व की खूबी होती है कि वो व्यावहारिक फैसले और उसके नतीजे निर्णायक भी नजर आयें.

कांग्रेस में हरियाणा का झगड़ा अब तक खत्म नहीं हो पाया है. क्या मजाल कि दिल्ली में होने वाली कोई रैली बगैर तनातनी के बीत जाये. पंजाब में अगर कैप्टन अमरिंदर सिंह जिद पर नहीं उतरे होते तो वहां भी वही हाल होता. बल्कि नवजोत सिंह सिद्धू को लेकर एक बार भी पुरानी झलक दिखने लगी थी. जिसे कैप्टन ने खुद ही रफा दफा करा लिया.

जिस वक्त अमित शाह को कानूनी पचड़ों से निकलने के बाद लखनऊ भेजा गया, यूपी बीजेपी में रार कम थी क्या? तब राजनाथ सिंह बीजेपी के अध्यक्ष हुआ करते थे. लेकिन उसी गुटबाजी से पार्टी को उबार कर सबसे ज्यादा सीटें लाये. ऐसे यूपी जैसे नमूने देश के हर कोने में मिल जाएंगे - मगर, मजबूत नेतृत्व के बूते व्यापक हितों में फैसले लिये जाते हैं.

बीजेपी इस बार भले ही चूक गयी हो, लेकिन दिल्ली पहुंचने के बाद से ही वो लगातार इलेक्शन मोड में रहती है. कांग्रेस में राहुल गांधी अभी वो जज्बा नहीं पैदा कर पाये हैं. जब तक जीत का बीजेपी जैसा जज्बा राहुल गांधी कांग्रेस में नहीं पैदा कर लेते - 2019 में उनसे कप्तानी वाली पारी खेलने की अपेक्षा हर किसी के लिए निराशा का कारण बन सकती है.

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