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Updated: 20 मार्च, 2019 08:33 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
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देश की राजनीति में विपक्षी खेमा डबल चुनौती से जूझ रहा है. एक तरफ उसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चैलेंज करना है, दूसरी तरफ उसे खुद एकजुट होने की चुनौती बनी हुई है. विपक्षी एकता की कवायद अभी खत्म हुई तो नहीं लगती, लेकिन रेस में कांग्रेस पिछड़ती नजर आने लगी है. जिस स्पीड से कांग्रेस की तैयारियां चलती नजर आ रही हैं उससे तो यही लगता है कि पार्टी का फोकस शिफ्ट हो चुका है.

मोदी को चुनौती देने की बात पर सोनिया गांधी की वो बात जरूर याद आती है जब उन्होंने कहा था - 'बीजेपी को दोबारा जीतने नहीं देंगे' और यही बात तकरीबन हर नेता ने ममता बनर्जी की कोलकाता रैली में दोहरायी. कई नेताओं का तो ये तक कहना रहा कि कुछ भी करो बस प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सत्ता में लौटने नहीं चाहिये. नेताओं का इस बात पर भी जोर रहा कि प्रधानमंत्री कौन बनेगा ये कोई मुद्दा नहीं रह गया है.

कारण जो भी रहा हो नेताओं की उस आवाज में न तो सोनिया गांधी शामिल रहीं और न ही राहुल गांधी. कोलकाता के बाद दिल्ली में हुई वैसी ही रैली को लेकर कांग्रेस नेतृत्व का रवैया बिलकुल वैसा ही रहा. ये बात अलग है कि रैली में आये नेताओं से राहुल गांधी बंद कमरे में हुई मीटिंग में मिले. तब राहुल गांधी को अरविंद केजरीवाल से भी मिलने में कोई मुश्किल नहीं हुई.

अब तो मोदी को चुनौती देने की कौन सोचे, ऐसा लगता है विपक्ष एकजुटता के लिए जूझ रहा है और खुद राहुल कांग्रेस को बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं.

जीत के भी बड़े नुकसान होते हैं

ऐसा क्यों लगता है जैसे 2018 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की तीन राज्यों में मिली जीत ने फायदे से ज्यादा नुकसान कर दिया हो. तीन राज्यों में कांग्रेस की सरकार बन जाने के बाद बीजेपी के अंदर जो भी हलचल हुई हो, विपक्ष में तो समीकरण ही बदल गये. जीत के जोश से लबालब कांग्रेस जश्न मनाने लगी तो विपक्षी दल भी कांग्रेस को ज्यादा तवज्जो देने लगे.

11 दिसंबर को विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद राहुल गांधी भी जिताऊ नेताओं की कतार में खड़े किये जाने लगे. वैसे तो गुजरात चुनाव में भी राहुल गांधी के प्रदर्शन ने तारीफ बटोरी थी, लेकिन जीत तो जीत ही होती है. जीत का फायदा ये हुआ कि कांग्रेस कार्यकर्ताओं में जोश बढ़ा और राहुल गांधी को विपक्षी खेमे में मान्यता मिलने लगी.

राहुल गांधी का कद इस कदर बढ़ा कि सिर्फ चंद्रबाबू नायडू ही नहीं, शरद पवार भी मिलने लगे और अरविंद केजरीवाल भी. ममता बनर्जी के तेवर भी राहुल गांधी के प्रति थोड़ नरम पड़ते देखे गये.

नुकसान ये हुआ कि राज्यों में कांग्रेस के नेता अपने बूते चुनाव जीतने की बात करने लगे. ऐसी पहली आवाज पश्चिम बंगाल से आयी. आंध्र प्रदेश को लेकर भी यही हुआ कि कांग्रेस केंद्र में गठबंधन का हिस्सा जरूर रहेगी लेकिन राज्य में कोई बदलाव नहीं होगा. दिल्ली का हाल तो पहले से ही ऐसा था कि कांग्रेस नेता आम आदमी पार्टी से दो-दो हाथ करने को हरदम तैयार बैठे रहते थे. शीला दीक्षित के आने के बाद तो और भी बुरा हाल हो चला है.

गठबंधन के मामले में बीजेपी से बहुत पीछे कांग्रेस

एक वक्त ऐसा हो चला था कि लगा एनडीए टूट जाएगा, लेकिन आज हालत ये है कि वो हर राज्य में दुरूस्त नजर आने लगा है. आंध्र प्रदेश में जरूर टीडीपी अलग हो चुकी है, लेकिन बिहार और महाराष्ट्र में बीजेपी ने इसे बचा लिया है. ये जरूर है कि बीजेपी को बिहार और महाराष्ट्र दोनों जगह सहयोगी दलों से झुक कर समझौते करने पड़े हैं. यूपी में भी अनुप्रिया पटेल के साथ बीजेपी ने झगड़ा खत्म कर लिया है. इतने सब के बावजूद एनडीए को और मजबूत करने की कोशिशें जारी हैं.

कांग्रेस विपक्षी खेमे में तो अलग थलग है ही यूपीए भी बिखरा हुआ है. कहने भर को कांग्रेस के पास ले देकर महाराष्ट्र में हुआ गठबंधन ही है. महाराष्ट्र में कांग्रेस 26 सीटों पर और एनसीपी 22 सीटों पर चुनाव लड़ने को तैयार हुई है.

पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के साथ कांग्रेस के समझौते का तो सवाल ही नहीं उठता, वाम दलों के साथ हो रही बातचीत में भी एनसीपी नेता शरद पवार ही बीच-बचाव कर रहे हैं. वाम दलों के साथ साथ शरद पवार ही दिल्ली में आम आदमी पार्टी के साथ गठबंधन के सरपंच बने हुए हैं - जहां दोनों पक्ष कभी हां तो कभी ना वाला खेल खेल रहे हैं.

बिहार में कहा जा रहा है कि कांग्रेस नौ सीटों पर मान चुकी है और अब राहुल गांधी की तेजस्वी यादव के साथ मुलाकात में मुहर लगने वाली है. कांग्रेस 11 सीटों की मांग पर अड़ी हुई थी लेकिन आरजेडी के सख्त रूख के कारण उसे झुकना पड़ा है.

कांग्रेस के गठबंधन का सबसे दिलचस्प वाकया तो जम्मू-कश्मीर में देखने को मिल रहा है. कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस के नेताओं की बातचीत में तीन सीटों पर तो तस्वीर साफ हो चुकी है लेकिन तीन सीटों पर मामला बेहद उलझा हुआ है.

सूबे में कांग्रेस जम्मू और ऊधमपुर सीटों पर चुनाव लड़ेगी, जबकि श्रीनगर की अपनी सीट पर फारूक अब्दुल्ला फिर से किस्मत आजमाएंगे. अभी लद्दाख सीट पर चर्चा जारी बतायी जा रही है जबकि अनंतनाग और बारामूला सीट पर फ्रेंडली मैच होने वाला है. अनंतनाग वो सीट है जो महबूबा मुफ्ती के इस्तीफे के बाद करीब दो साल से खाली है क्योंकि वहां चुनाव कराने लायक स्थिति नहीं बन पायी थी.

यूपी में तो हाल ये है कि सपा-बसपा गठबंधन की ओर से अब अमेठी और रायबरेली में उम्मीदवार खड़े करने की चर्चा होने लगी है. पहले गठबंधन की ओर से ये तो सीटें सोनिया गांधी और राहुल गांधी के लिए छोड़ी गयी थीं. बदले में कांग्रेस की ओर से सात सीटें छोड़ने की बात हुई तो मायावती ने कह दिया कि कांग्रेस सभी 80 सीटों पर चाहे तो फ्रंटफुट पर खेले. मायावती ने गठबंधन के नेताओं के सम्मान में कांग्रेस द्वारा सीटें छोड़े जाने को ठुकरा दिया है.

मोदी हराओ या अस्तित्व बचाओ?

आमतौर पर केंद्रीय मंत्री अरुण जेटली ही ब्लॉग लिखते हैं. अक्सर किसी न किसी मुद्दे पर सफाई देनी होती है वरना ज्यादातर कांग्रेस और राहुल गांधी निशाने पर होते हैं. अभी अभी कांग्रेस पर नया ब्लॉग हमला हुआ है - प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक ब्लॉग लिख कर वंशवाद के नाम पर कांग्रेस को कठघरे में खड़ा किया है. मोदी का कांग्रेस पर ये हमला कोई नया नहीं है लेकिन कांग्रेस की ओर से बचाव में जो पलटवार हुआ है वो खिलाफ गया है. भारतीय राजनीति में वंशवाद को राहुल गांधी भी स्वीकार करते हैं. राहुल गांधी वंशवाद को भारतीय राजनीति का जरूरी हिस्सा मानते हैं, न कि आवश्यक बुराई.

कांग्रेस का बचाव करते हुए तारिक अनवर ने प्रधानमंत्री मोदी को टारगेट किया है - कटाक्ष ये है कि जिनके वंश ही नहीं वे उसके महत्व को क्या समझेंगे. तारिक अनवर कुछ दिन पहले ही एनसीपी छोड़ कर कांग्रेस में लौटे हैं.

ऐसा लगता है जैसे तारिक अनवर ने कांग्रेस के लिए नयी मुसीबत खड़ी कर दी है. कुछ कुछ वैसे ही जैसे बिहार चुनाव के वक्त नीतीश कुमार को लेकर डीएनए विवाद हुआ था. वंशवाद पर जवाब तो प्रियंका गांधी ने भी दिया है लेकिन उनका तरीका काफी अलग है.

राहुल गांधी के चौकीदार के मुद्दे पर तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वैसे ही बैकफुट पर ला दिया है जैसे 2017 के गुजरात चुनाव में विकास के मुद्दे पर किया था. राहुल गांधी का पसंदीदा और कारगर नारा 'चौकीदार चोर है' के खिलाफ मोदी ने 'मैं भी चौकीदार' का ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया है - और मोदी की देखादेखी बीजेपी नेताओं और लाखों समर्थकों ने ट्विटर पर अपने नाम के पहले चौकीदार जोड़ लिया है.

प्रियंका गांधी वाड्रा और ज्योतिरादित्य सिंधिया की तैनाती पर तो खुद राहुल गांधी ने ही बता दिया है कि वो कांग्रेस को मजबूत करने में लगे हैं - कांग्रेस की वो मजबूती 2022 के लिए है, न कि 2019 के लिए. जिस हिसाब से कांग्रेस देश भर के राज्यों में गठबंधन कर रही है उससे तो यही लग रहा है कि राहुल गांधी भी अब 2024 की तैयारी में लगे हुए हैं. 2019 में तो राहुल गांधी सिर्फ कांग्रेस के अस्तित्व बचाये रखने की लड़ाई लड़ रहे हैं. ऐसा लग रहा है जैसे 'मोदी हटाओ' से शिफ्ट होकर कांग्रेस 'खुद को बचाओ' पर फोकस हो चुकी है.

वैसे अविश्वास प्रस्ताव के दौरान मोदी ने कहा भी था कि भगवान शिव उन्हें शक्ति दें कि वो पांच साल बाद भी उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लायें. ऐसी ही बात अप्रैल, 2016 में भर्तृहरि महताब ने भी राहुल गांधी के बारे में कहा था, 'आखिर वो किस तरह के वोट बैंक तैयार कर रहे हैं? क्या वो 2024 के बारे में सोच रहे हैं. उनके लिए मेरी शुभकामनाएं हैं.'

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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