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Updated: 21 जुलाई, 2019 01:56 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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कांग्रेस महासचिव और यूपी प्रभारी प्रियंका गांधी वाड्रा बड़ी राहत महसूस कर रही होंगी. आम चुनाव में कांग्रेस की हार पर मिर्जापुर धरने की कामयाबी जख्मों के लिए मरहम जैसी ही तो है.

24 घंटे के धरने के बाद चुनार गेस्ट हाउस के बाहर प्रियंका गांधी को आखिरकार सफलता मिली ही. प्रियंका गांधी ने कहा भी था कि वो पीड़ितों से मिले बगैर नहीं लौटेंगी. हुआ भी वही. प्रियंका ने ट्विटर के बेहतरीन इस्तेमाल से लेकर मीडिया अटेंशन का पूरा फायदा उठाया है. स्थानीय प्रशासन पर आरोप लगाते हुए कहा था, 'प्रशासन न हमें मिलने दे रहा है और पीड़ित परिवारों को भी यहां आने से रोक रहा है.' बीच बीच में वो बताती भी रहीं कि अफसर कह रहे हैं ऊपर से ऑर्डर है.

देखा जाय तो प्रियंका गांधी ने यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ को इस केस में राजनीतिक पटखनी ही दी है. प्रियंका गांधी की जिद के आगे योगी के अफसरों को झुकना ही पड़ा. साफ लग रहा है कि योगी आदित्यनाथ की रणनीति फेल हो गयी है और प्रियंका गांधी के दबाव में बैकफुट पर लौटना पड़ा है. प्रियंका गांधी के धरने पर बैठ जाने से कांग्रेस का पूरा अमला हरकत में आ गया था. यूपी कांग्रेस के पुराने नेता प्रमोद तिवारी की अगुवाई में एक प्रतिनिधिमंडल ने राज्यपाल से मिल कर ज्ञापन भी दिया था. इसी बीच, डेरेक ओ-ब्रायन के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस प्रतिनिधिमंडल ने एक्स्ट्रा दबाव बना दिया. तृणमूल नेताओं की दलील भी दमदार रही, 'पुलिस ने हमें वाराणसी एयरपोर्ट पर रोक लिया जब हम पीड़ितों से मिलने सोनभद्र जा रहे थे. धारा 144 का कोई उल्लंघन नहीं हुआ है क्योंकि हमारी संख्या कम है.' टीएमसी के तीन नेता थे और 144 के लिए संख्या पांच या उससे ज्यादा होनी चाहिये.

बहरहाल, सोनभद्र के पीड़ितों से मिलने के बाद मिर्जापुर के जिलाधिकारी को कहना पड़ा - 'प्रियंका न हिरासत में हैं, न गिरफ्तार हैं. अब वो जा सकती हैं.'

शुरू से ही प्रियंका गांधी की तुलना इंदिरा गांधी से होती रही है - और ये भी मानना पड़ेगा कि मिर्जापुर-सोनभद्र में कांग्रेस नेता को कामयाबी भी आजमाये हुए पुराने नुस्खे से ही मिली है. फिर भी मालूम होना चाहिये कि कॉपी की हुई चीजें तात्कालिक फायदा तो दिला देती हैं लेकिन लंबी रेस के काबिल नहीं होतीं.

कदम कदम पर इंदिरा की छवि से जूझ रही हैं प्रियंका

यूपी के राजनीतिक दौरे पर निकलीं प्रियंका गांधी ने सोनभद्र के कुछ पीड़ितों से मिलने के बाद मीडिया से कहा - 'मैं पीड़ित परिवारों से मिलना चाहती थी, मेरा मकसद पूरा हो गया है, लेकिन इंसाफ की लड़ाई लड़ती रहूंगी.' साथ ही, प्रियंका गांधी ने पीड़ित परिवारों को 25 लाख रुपये मुआवजा देने की मांग की. कांग्रेस की तरफ से प्रियंका गांधी ने पहले ही कह रखा है कि पार्टी सोनभद्र नरसंहार के पीड़ित परिवारों को 10 लाख रुपये देगी.

अपनी दादी पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की राजनैतिक शैली अपनाते हुए प्रियंका गांधी ने हाल फिलहाल बड़ी कामयाबी पायी है. निश्चित तौर पर लौटते वक्त अमेठी में मिले दर्द में ये बाम का काम कर रहा होगा. मगर, मालूम होना चाहिये सिर्फ इतने भर से काम नहीं चलने वाला. प्रियंका गांधी की राह में सबसे बड़ी बाधा उनका इंदिरा गांधी की छवि में कैद हो जाना है.

करीब करीब वैसे ही जैसे अभिषेक बच्चन नहीं चल पाये. अभिषेक पर हमेशा उनके पिता सुपरस्टार अमिताभ बच्चन की छवि हावी रही है. वैसे भी अभिषेक बच्चन कम से कम उदय चोपड़ा और दीपक तिजोरी से तो अच्छी ही एक्टिंग करते हैं - लेकिन वो कभी अमिताभ बच्चन के बेटे की छवि से बाहर निकल ही नहीं पाये. आखिर क्या वजह है कि जिस अमिताभ बच्चन की मिमिक्री कर के न जाने कितने लोग मायानगरी में घर परिवार चलाते रहे हैं - और उसी अमिताभ के अपने बेटे का संघर्षों का सफर खत्म ही नहीं हो रहा है.

priyanka gandhi should get away with Indira imageध्यान नहीं दिया तो इंदिरा गांधी की छवि में कैद होकर रह जाएंगी प्रियंका गांधी वाड्रा

प्रियंका गांधी में शुरू से ही इंदिरा गांधी की इमेज देखी जाती रही है. पहले तो कांग्रेस के भीतर ही ये राग शुरू हुआ. फिर धीरे धीरे मीडिया के जरिये लोगों में भी ये धारणा बनने लगी और अब तो घर कर गयी है. प्रियंका जब पूर्वी यूपी की प्रभारी बनीं तब भी उनके हाव भाव से लेकर साड़ी पहने तक की तुलना इंदिरा गांधी से की जाती रही. जब वो मिर्जापुर पहुंची हैं तो भी उसे 1977 में इंदिरा गांधी के बेलछी दौरे से जोड़ कर देखा जाने लगा है. प्रियंका ने भी तरीका बिलकुल वैसा ही अपनाया. ये भी सही है कि कामयाबी भी मिली.

प्रियंका के लिए अब बहुत जरूरी है पहले वो इंदिरा गांधी की छवि से बाहर निकलने की कोशिश करें. अच्छी बात ये है कि प्रियंका के पास खुद को साबित करने का मौका भी पूरा है. इमरजेंसी के बाद वाली स्थिति से भी बुरी स्थिति में कांग्रेस पहुंच चुकी है. कम से कम तब कांग्रेस के पास एक मजबूत नेता तो हुआ करता था. आज जो नेता है वो झोला उठाकर फकीर बनने को तैयार बैठा रहता है - और बाकी कोई उस कुर्सी पर बैठने को राजी नहीं. सबको लगता है जब खड़ाऊं से ही काम होने वाला है तो ऊपर बैठने की जहमत कौन उठाये. बैठने पर भी क्या पता मनमोहन सिंह की तरह कई बार बताना पड़े कि 'राहुल जी के लिए कुर्सी छोड़ने को तैयार हूं.'

आखिर नेहरू के नाम पर कब तक दुकान चलेगी?

सोनभद्र हत्याकांड को हैंडल करने में यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जो राजनीतक तरीका अपनाया है, नतीजा 2018 के गोरखपुर-फूलपुर उपचुनावों जैसा ही लगता है. जो रास्ता योगी आदित्यनाथ के सलाहकारों ने आखिर में अपनाया वो अगर पहले ही ले लिये होते तो कितनों को प्रियंका गांधी के आने जाने की खबर रहती. जैसे चुनावों में बोट यात्रा करने गयीं थी वैसे ही सोनभद्र से भी लौट आतीं. या फिर जैसे राहुल गांधी भट्टा-परसौल गये और घूम कर निकल लिये थे. या फिर गोरखपुर अस्पताल में ऑक्सीजन कांड के बाद दौरे पर गये थे.

ऐसा लगता है जैसे प्रियंका को यूपी में योगी आदित्यनाथ वैसे ही काउंटर कर रहे हैं जैसे राहुल गांधी बीजेपी के कांग्रेस मुक्त भारत के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं. दोनों के स्टैंड में ज्यादा फर्क नहीं लगता.

ये समझना मुश्किल हो रहा है कि योगी आदित्यनाथ को प्रियंका से डर किस बात का है? जो नेता आपके सूबे में अपनी पार्टी को लोक सभा की सिर्फ एक सीट दिला पाया हो. जिस नेता के एड़ी चोटी का जोर लगा देने के बावजूद कांग्रेस का सबसे बड़ा नेता अपने गढ़ में आपकी पार्टी के उम्मीदवार से हार गया हो - उससे फिलहाल किस बात का डर हो सकता है? आगे की बात और है. सोनिया गांधी तो रायबरेली से चुनाव जीत गयीं, लेकिन अमेठी में बीजेपी नेता स्मृति ईरानी ने राहुल गांंधी को हार का स्वाद चखा ही दिया.

ऐसे ही खास मौकों पर समझ आता है कि राजनीतिक रूप से योगी आदित्यनाथ कितने कच्चे खिलाड़ी हैं. ऐसे तो योगी आदित्यनाथ बीजेपी का ही नुकसान कर रहे हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मेहनत पर पानी फेर रहे हैं. अगर प्रियंका को रोके जाने के चलते मीडिया अटेंशन और लोगों में सहानुभूति मिल रही है तो इसके लिए राजनीतिक जिम्मेदारी किसकी बनती है - योगी आदित्यनाथ या कोई और?

आखिर कब योगी आदित्यनाथ हनुमान को दलित बता कर और ऐसे ही ऊलजुलूल बयानों के बूते राजनीति करते रहेंगे. जिसके मुख्यमंत्री रहते सूबे में सामूहिक मर्डर हो रहा है वो लोगों को समझाने की कोशिश कर रहा है कि इसके लिए नेहरू जिम्मेदार हैं. यूपी का कुछ तो ख्याल कीजिए महाराज. यूपी की राजनीति अलग है, नेहरू को दिल्ली के लिए बख्श दीजिये वैसे भी उनके कंधों पर काफी बोझ है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ समझा रहे हैं कि हत्याओं के लिए 1959 से लेकर 1989 के बीच की कांग्रेस सरकारें जिम्मेदार हैं. क्या इसका मतलब ये नहीं है कि आपको पता था कि कांग्रेस सरकारों से गलती हुई है. तो क्या उन गलतियों की सजा भुगतने के लिए लोगों को उनके हाल पर छोड़ देंगे?

आखिर योगी आदित्यनाथ के पास इस बात का क्या जवाब है कि क्या दो साल के शासन में आप कांग्रेस की बड़ी गलतियों को सुधारने की शुरुआती कोशिश भी नहीं कर सकते? या फिर यूपी पुलिस के पास एनकाउंटर से फुरसत ही नहीं मिलती कि वो ऐसी हत्याएं रोकने के लिए थोड़ा वक्त निकाल सके. मालूम होना चाहिये कि नेहरू के नाम पर कुछ दिन तो लोगों का ध्यान मुद्दों से हटाया जा सकता है - लेकिन बार बार वोट नहीं बटोरा जा सकता.

कांग्रेस और प्रियंका दोनों ही को एक दूसरे की सख्त जरूरत है

ये तो घोषित है कि प्रियंका गांधी को यूपी में कांग्रेस को खड़ा करने की जिम्मेदारी मिली हुई है - लेकिन अघोषित तौर पर प्रियंका को घर परिवार भी देखना है. घर परिवार से आशय चूल्हे चौके से कतई नहीं है, बल्कि सरकारी एजेंसियों से पति रॉबर्ट वाड्रा की लड़ाई में वो बतौर भारतीय नारी पति के साथ खड़ी हैं. ऐसा वो खुद ही बता भी चुकी हैं और रॉबर्ट वाड्रा को ED ऑफिस छोड़ने के बाद कांग्रेस दफ्तर में काम शुरू कर दिखा भी चुकी हैं. प्रियंका गांधी के औपचारिक तौर पर कांग्रेस ज्वाइन करते वक्त भी ये बातें चर्चाओं में रहीं कि किस तरह मिल जुल कर सीधे मैदान में लड़ाई लड़ने का फैसला हुआ. ये बात अलग है कि चुनाव में कामयाबी नहीं मिली और चीजें बेकाबू होती जा रही हैं. फिर तो लड़ाई और भी मुश्किल है - और पहले से ज्यादा जरूरी भी. कांग्रेस को भी एक मजबूत नेतृत्व की सख्त जरूरत है. राहुल गांधी भले ही गैर-गांधी नेतृत्व पर अड़े हों - लेकिन लगता तो यही है कि उनकी चलती ही कितनी है. 'राहुल जी-राहुल जी' कहते हुए भी नेता अपने बाल बच्चों के लिए फायदा तो उठा ही लेते हैं. एक तरफ राहुल गांधी के मन की बात पर अमल की कोशिश हो रही है, ठीक उसी वक्त श्रीप्रकाश जायसवाल और भक्त चरण दास जैसे नेता प्रियंका को अध्यक्ष बनाने की बहस को आगे बढ़ा रहे हैं. उन्हें इस बात की कोई फिक्र नहीं कि तब तो बीजेपी को इस बात का पूरा मौका मिलेगा कि वो कांग्रेस को पारिवारिक पार्टी डंके की चोट पर कह सके. आखिर राहुल गांधी इसी बात को लेकर तो गैर-गांधी अध्यक्ष की बात कर रहे हैं. वैसे प्रियंका गांधी खुद भी राहुल के इस स्टैंड की पक्षधर नहीं हैं - और उन्होंने तो इस्तीफा भी नहीं दिया - ऊपर से पूरे उत्तर प्रदेश का प्रभार लेकर प्रमोशन भी लेने वाली अकेली कांग्रेस महासचिव बन गयी हैं.

1. लोगों के बीच बने रहना जरूरी है - प्रियंका गांधी के लिए इस वक्त सबसे ज्यादा जरूरी है कि लोगों के बीच बनी रहें. हर दुख-दर्द में शामिल रहें. हर मौके पर ऐसे ही मौजूद रहें. सूबे में चाहें तो खाट सभा जैसे जनसंपर्क अभियान भी चला सकती हैं संघर्ष करें. हां, ये भी ध्यान रहे कि जिस तरह भीम आर्मी वाले चंद्रशेखर आजाद रावण से मिलीं वो तो ठीक था, लेकिन बाद में जिस तरह छोड़ दिया वो कहीं से भी ठीक नहीं रहा. अब भी वक्त है.

2. कार्यकर्ताओं में जोश भरती रहें - प्रियंका गांधी ने रायबरेली दौरे में जिस तरह कार्यकर्ताओं को राहुल गांधी की हार के लिए दोषी ठहराया वैसीबातें आत्मघाती साबित हो सकती हैं. अगर ऐसी बातों पर ध्यान नहीं दिया गया तो हालात गोवा और कर्नाटक जैसे हो जाएंगे, बचे खुचे नेता भी कांग्रेस छोड़ कर सत्ता की राजनीति का हिस्सा बनना बेहतर समझेंगे. यूपी से रीता बहुगुणा जोशी से बेहतर मिसाल भला कौन हो सकता है.

3. गठबंधन की कोशिश करें - मिशन 2022 के लिए तैयारी ठीक है, लेकिन अभी तो नहीं लगता कि यूपी में कोई भी पार्टी अकेले बीजेपी को टक्कर दे सकती है. प्रियंका गांधी चाहें तो अखिलेश यादव और मायावती से चुनावी समझौते की कोशिश कर सकती हैं. हो सकता है सीटों का नुकसान हो, लेकिन आम चुनाव के नतीजों जैसा होने से तो कुछ भी बेहतर ही होगा.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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