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Updated: 20 सितम्बर, 2022 02:28 PM
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कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष के लिए अब चुनाव होना तय है. संयुक्त राष्ट्र महासचिव का चुनाव हारे हुए नेता शशि थरूर सोनिया गांधी से आशीर्वाद लेने गए थे. थरूर की हार एक अटल सत्य है. उनका यह चुनाव लड़ना कड़वाहट न घोले और गांधी परिवार के खिलाफ बग़ावत न समझा जाए इसलिए लोक-लाज वश सोनिया गांधी से इजाज़त मांगने की रस्मअदायगी ज़रूरी थी. वह हो गई. दिल्ली में हुई मंहगाई रैली के तुरंत बाद थरूर दिल्ली के जोधपुर हाउस जाकर अपने संभावित प्रत्याशी प्रतिद्वंद्वी राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से भी मिल आए थे. सोनिया गांधी का थरूर को जवाब किसी भी रूल बुक के अनुसार बेस्ट रिप्लाई था. थरूर इस तरह से कांग्रेस को बिना चुनाव कराए कनसेंशस कैंडिडेट के नाम पर गांधी परिवार के नॉमिनी को अध्यक्ष पद पर बैठाए जाने के आरोप से बचा लेंगे. यह तो दीवार पर लिखी इबारत है जिसे सब पढ़ रहे हैं. मगर दीवार के उस पार क्या है. क्या कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव एक छलावा है? क्या कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष का यह चुनाव बस धोखा है और गांधी परिवार के बाहर से जो राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद पर बैठेगा वह रबर स्टंप होगा. जिस तरह से यह चुनाव हो रहा है उसे देखकर तो यही लग रहा है. 

Rahul Gandhi, Sonia Gandhi, National President, Shashi Tharoor, Ashok Gehlot, Rajasthan, Chief Minister, Electionभले ही कांग्रेस पार्टी आंतरिक लोकतंत्र की वकालत कर ले लेकिन अध्यक्ष वही होगा जिसे सोनिया गांधी पास करेंगी

देश के सभी विधानसभा क्षेत्रों से भी दो-दो प्रदेश कांग्रेस कमेटी डेलीगेट्स चुने गए हैं जिन्होंने बैठक कर प्रस्ताव पारित कर दिया है कि सोनिया गांधी एआईसीसी डेलीगेट्स का चुनाव करें. यही कुल 9000 पीसीसी और एआईसीसी डेलीगेट्स कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव करेंगे. एआईसीसी डेलीगेट्स तो सोनिया गांधी चुनेंगी जिसमें कांग्रेस के मौजूदा पदाधिकारी और कार्यसमिति के सदस्य होंगे. यह किसके कहने पर और किसको वोट डालेंगे यह बताने की ज़रूरत नहीं है.

रही बात पीसीसी डेलीगेट्स की तो उनका चयन कैसे हुआ है यह भी जान लीजिए. मसलन राजस्थान का उदाहरण ले लीजिए. हर विधानसभा में विधायक या मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के चाहने वालों को डेलीगेट बना दिया गया है जो वोट डालेंगे. वोटर कौन होगा इसकी कोई प्रक्रिया नहीं है. जो पार्टी चाहेगी वहीं वोटर बनेगा. भले ही विधानसभा पाली हो, मगर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अपने किसी जोधपुर वाले करीबी को वोटर बना सकते हैं.

चालीस से ज़्यादा नेताओं ने खुद, खुद की पत्नी, बेटे, मां या रिश्तेदार को वोटर बना दिया है. अब खुद ही समझ लीजिए कि शशि थरूर को वोट कौन डालेगा. उत्तर भारत में सबसे ज़्यादा वोट हैं और सभी राज्य के वोटरों ने प्रस्ताव पास कर राहुल गांधी को फिर से राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने के लिए भेज दिया है तो फिर तय है कि जिसे गांधी परिवार चाहेगा वही अध्यक्ष बनेगा. यानी गांधी परिवार अध्यक्ष नहीं बनना चाहे तो उनका नॉमिनी ही राष्ट्रीय अध्यक्ष बन सकता है.अब यह चुनाव छलावा नहीं तो और क्या है?

प्रणव मुखर्जी का कांग्रेस नियम-अध्यक्ष हीरो नहीं ज़ीरो...

गांधी परिवार के बाहर से कोई भी कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बन जाए वो रबर स्टंप ही रहेगा. कांग्रेस के स्थापना से लेकर अबतक कांग्रेस अध्यक्ष का पद पार्टी को कंट्रोल करनेवाले का रबर स्टंप ही रहा है. यह तब और साफ़ हो गया जब कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद से सीताराम केसरी को हटाना था और वो इस्तीफ़ा दे नहीं रहे थे. प्रणव मुखर्जी ने कहा कि कि कार्यसमिति के पास आपको हटाकर नया अध्यक्ष चुनने का अधिकार है. केसरी मीटिंग छोड़कर चले गए या उन्हें कहीं बंद कर दिया गया पर सीताराम केसरी को हटाने के लिए उपाध्यक्ष जितेंद्र प्रसाद ने कहा प्रणव मुखर्जी ने जो कहा है वो सही कहा है.

कार्यसमिति के पास कांग्रेस के अध्यक्ष को हटाने का अधिकार है. कांग्रेस उपाध्यक्ष की अध्यक्षता में प्रस्ताव पारित हुआ और सोनिया गांधी राष्ट्रीय अध्यक्ष चुन लीं गई. 1996 में सीताराम केसरी को जब अध्यक्ष बनाया गया तो वो गांधी परिवार के उम्मीदवार थे और राजेश पायलट को पीवी नरसिम्हा राव ने पीछे से समर्थन किया था. शरद पवार भी खड़े थे पर काउंटिंग के ठीक पहले दोनों को हथियार डालने पड़े थे और सर्वसम्मति का फ़ॉर्मूला बना था.

सोनिया गांधी के खिलाफ जितेंद्र प्रसाद लड़े तो एक फ़ीसदी वोट के लिए तरस गए. मनीष तिवारी जैसे लोग तब भी थे जो फ़ेयर चुनाव की मांग कर रहे थे. प्रफुल्ल पटेल और तारिक अनवर ने सीक्रेट बैलेट की मांग की थी पर किसी ने ये मांग सुनी नहीं. क्योंकि कांग्रेस की सर्वोच्च संस्था में 13 मनोनीत और 10 चयनित सदस्य होते हैं. बहुमत गांधी परिवार के मनोनीत भक्तों का ही होता है. 

क्यों कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष रबर स्टंप होता है

ऑक्ताविया ह्यूम ने जब 1885 में कांग्रेस की नींव रखी तो व्योमेश चंद्र बनर्जी कांग्रेस के पहले अध्यक्ष बने. मगर 1892 में जब व्योमेश चंद्र बनर्जी दुबारा अध्यक्ष बने तो एज ऑफ कंसेंट क़ानून को लेकर एओ ह्यूम से डिफरेंसेस हुए. बनर्जी ने भारतीयों को शासन योग्य क्या माना और उनकी कांग्रेस से विदाई हमेशा के लिए हो गई. यानी कांग्रेस में इसकी उत्पत्ति के साथ ही सत्ता किसी और के हाथ में रही. अंग्रेज और भारतीयों के बीच जब भी टकराव होता ब्रिटेन के हाउस ऑफ कॉमंस के सदस्य दादा भाई नरोजी कांग्रेस के अध्यक्ष बना दिए जाते.

यह सिलसिला तब टूटा जब 1906 के कांग्रेस के अध्यक्ष गोपाल कृष्ण गोखले और 1906 में फिर से अध्यक्ष बनाए गए. दादा भाई नरौजी भी कांग्रेस को टूट से बचा नहीं सके. बाल-पाल-लाल और जिन्ना के रूप में कांग्रेस अंग्रेज़ी पहचान से अलग हुई. पर 1924 में गोपाल कृष्ण गोखले ने गरम दल के हाथों शिकस्त का बदला महात्मा गांधी को कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाकर लिया और फिर यह कांग्रेस से तब से लेकर अब तक गांधी-नेहरू और पटेल ओर अब गांधी के नाम से नेहरू परिवार की बनकर रह गई.

1938-39 में सुभाष चंद्र बोस ने दक्षिण भारत के राज्यों के वोटों से कांग्रेस के अध्यक्ष पर गांधी नेहरू पटेल के उम्मीद्वार पट्टाभि सीतारम्मैया पर जीत हासिल की मगर कांग्रेस कार्यसमिति में गांधी नेहरू पटेल का दबदबा था लिहाज़ा सुभाष चंद्र बोस के सारे प्रस्ताव ख़ारिज होते रहे थे. आख़िर में बोस को कांग्रेस छोड़नी पड़ी. गांधी जी ने तब एक साथ कांग्रेस के अंदर सोशलिस्ट, कृषक और स्वराज के नाम से बने सभी संगठनों को बाहर का रास्ता दिखा दिया.

आज़ादी के समय कांग्रेस पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष होना बहुत बड़ी बात होनी चाहिए थी मगर महात्मा गांधी की पसंद 1947 के कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.बी कृपलानी को कोई नहीं पूछता. कृपलानी की गलती इतनी थी कि उन्होंने कहा कि पार्टी से पूछकर सरकार को चलना चाहिए और नेहरू पटेल पार्टी और सरकार को अलग रखना चाह रहे थे.नेहरू के करीबी सुभाष चंद्र बोस के हाथों शिकस्त खाए पट्टाभि सितारम्मैया को आखिरकार कांग्रेस के अध्यक्ष बनने का सपना पूरा हुआ. जेबी कृपलानी ने फिर कोशिश की मगर इस बार पटेल ने अपनी पसंद के पुरुषोत्तम दास टंडन बना दिया.

कृपलानी को कांग्रेस छोड़कर सुभाष चंद्र बोस की तरह नई पार्टी बनानी पड़ी

उसके बाद भी जिन्हें गांधी परिवार के निर्देश पसंद नहीं आए वो कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष पार्टी से बाहर गए हैं. इंदिरा गांधी के मेंटोर बने कामराज ने ने इंदिरा को आंख दिखाई तो बाहर होना पड़ा.एस. निजलिगप्पा  सरकारीकरण पर इंदिरा से भिड़े  तो खुद को ताकतवर समझने की भूल कर बैठे. इंदिरा को हीं बाहर कर दिया और फिर खुद हीं बाहर गए. जगजीवन राम को इमजेंसी रास नहीं आई तो कांग्रेस से बाहर गए.

1996 में पीवी नरसिम्हा राव चुनाव हारे तो कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से हटा दिए गए. फिर से 1998 में कांग्रेस हारी तो 100 से ज़्यादा सभा करनेवाली सोनिया गांधी पर ज़िम्मेदारी नहीं आई बल्कि बतौर कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष एक भी सभा नहीं करनेवाले सीताराम केसरी हार के लिए ज़िम्मेदार ठहरा कर हटा दिए गए. कहा गया कांग्रेस अखिल भारतीय पार्टी है केसरी को अंग्रेज़ी नहीं आती इसलिए दक्षिण के राज्यों और पूर्वोत्तर से बेहतर संवाद नहीं हो पा रहा है.

मगर क्या यही सारे पैमाने अशोक गहलोत पर लागू नहीं होते. अंग्रेज़ी की दिक़्क़त, कभी भी अपने चेहरे पर चुनाव नहीं जीता पाना, अपनी परंपरागत सीट से बेटे का हार जाना. पर गांधी परिवार को पसंद तो फिर कांग्रेस की पसंद. गहलोत कह सकते हैं जो हो तुमको पसंद वही बात कहेंगे, तुम दिन को रात कहो तो रात कहेंगे.

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