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Updated: 27 जुलाई, 2015 08:17 PM
दमयंती दत्ता
दमयंती दत्ता
 
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अमेरिका के पूर्व जज जेरोम फ्रैंक ने जजों की नियुक्ति से पहले उनका मनोविश्लेषण कराने की सलाह देते हुए एक बार कहा था, हर न्यायिक फैसले के बाद चर्चा इस बात की भी शुरू हो जाती है कि फैसले वाले दिन जज ने क्या नाश्ता किया था.   

चूंकि भारत के राष्ट्रपति को सुबह ब्रेकफास्ट के बाद अदालत नहीं जाना पड़ता, इसलिए हम ब्रेकफास्ट की जगह यहां आहार शब्द को रख सकते हैं. मतलब, राष्ट्रपति के फैसले के बाद इस बारे में बात की जा सकती है उनका आहार क्या है. इस लिहाज से देखें तो बात समझ में आ जाएगी कि दया याचिका पर क्यों प्रणब मुखर्जी की सोच पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल से अलग है.

राष्ट्रपति मुखर्जी नॉनवेज खाने के शौकीन हैं और लगभग हर दिन फिश-करी खाना पसंद करते हैं. इसमें कोई दो राय नहीं कि प्रणब मुखर्जी ने 2012 में राष्ट्रपति बनने के बाद दया याचिका के 97 फीसदी मामलों को खारिज किया है. वहीं, इसके ठीक उलट पूरी तरह से शाकाहारी प्रतिभा पाटिल ने फांसी की सजा के 90 फीसदी मामलों में दोषियों को माफी देने का फैसला किया.

पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम 100 फीसदी शाकाहारी नहीं थे लेकिन कॉलेज के दिनों में पैसे बचाने की उनकी आदत लगता है आगे भी कायम रही. उनके शासन के दौरान आने वाली दया याचिका पर गौर कीजिए. दो मामलों को छोड़ ज्यादातर पर उन्होंने कोई फैसला ही नहीं लिया. उनके कार्यकाल में दुष्कर्म के दोषी धनंजय चटर्जी को 2004 में फांसी दी गई. जबकि पत्नी, दो बच्चों और साले की हत्या के दोषी पाए गए जयपुर के खेराज राम की सजा को कलाम ने 2006 में उम्रकैद में बदला.

भारत इस बारे में गर्व कर सकता है कि आजादी के बाद बहुत कम संख्या में फांसी या मौत की सजा दी गई है. क्या यह इस कारण से है कि हमारे ज्यादातर राष्ट्रपति शाकाहारी रहे? पूर्व राष्ट्रपति खासकर, राजेंद्र प्रसाद और सर्वपल्ली राधाकृष्णन- दोनों शाकाहारी थे और मौत की सजा का समर्थन नहीं करते थे. सरकार ने जब कुछ मौकों पर अपनी अनुशंसा दी, इसके बावजूद उन्होंने उसे मानने से इंकार किया.

दूसरे पूर्व राष्ट्रपति जैसे वीवी गिरी, फखरुद्दीन अली अहमद या एन संजीव रेड्डी ऐसे मसलों पर क्या सोचते थे, इस बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है. लेकिन 1970 के दशक में मौत की सजा से जुड़े ज्यादातर मामलों को आगे नहीं बढ़ाया गया. ऐसा 1969 में महात्मा गांधी के जन्म के पूरे हुए सौ साल को देखते हुए किया गया.

इसके बाद 80 और 90 के दशक में एक बार फिर मौत की सजा के बारे में बातें शुरू हुईं. 1992 में शंकर दयाल शर्मा राष्ट्रपति बने. ब्राह्मण जाति के शंकर दयाल जिन्होंने कभी इंग्लैंड में अपने छात्र जीवन के दौरान कई बार उबले हुए आलू खाकर संतोष किया. उन्होंने अपने कार्यकाल में उन सभी दया याचिकाओं को खारिज किया जो उनके सामने आईं. पांच साल के शासन में कुल 14 मामले उनके पास गए.  दक्षिण भारतीय और शाकाहारी के आर नारायणन (1997-2002) के राष्ट्रपति भवन में रहने के दौरान एक बार फिर मौत की सजा पर रोक जैसी लग गई. उनके सामने नौ मामले आए, जिसमें आठ पर उन्होंने कोई फैसला नहीं लिया.

जाहिर तौर पर, अपवाद भी हैं- 1) तीसरे राष्ट्रपति जाकिर हुसैन मांसाहारी भोजन खाना पसंद करते थे. और दिल्ली में तंदूरी के लिए प्रसिद्ध मोती महल के नियमित ग्राहक थे. इसके बावजूद वह अपने पूर्व समकक्षों की तरह मौत की सजा के खिलाफ रहे. वह रेयरेस्ट ऑफ द रेयर मामलों में ही इसका समर्थन करते थे.

2) राष्ट्रपति आर वेंकटरमण (1987-1992) पूर्ण रूप से शाकाहारी थे. यहां तक कि उनकी पत्नी जानकी भी सिल्क की वैसी साड़ियों को तरजीह देती थी जिसे बनाने में कीड़ों को नहीं मारा गया हो. लेकिन व्यक्तिगत तौर पर वेंकटरमण मौत की सजा के पक्ष में थे. उन्होंने सबसे ज्यादा 33 दया याचिकाओं को ठुकराया.

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लेखक

दमयंती दत्ता दमयंती दत्ता

लेखिका इंडिया टुडे मैगजीन की कार्यकारी संपादक हैं.

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