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Updated: 22 जून, 2021 04:04 PM
देवेश त्रिपाठी
देवेश त्रिपाठी
  @devesh.r.tripathi
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उत्तर प्रदेश की योगी सरकार (Yogi government) ने सूबे में जनसंख्या नियंत्रण कानून (population control law) बनाने के लिए तैयारियां शुरू कर दी हैं. हाल ही में असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने भी राज्य में जनसंख्या नियंत्रण कानून लागू करने की औपचारिक घोषणा कर दी है. सरमा ने बढ़ती जनसंख्या को 'सामाजिक संकट' के तौर पर पेश किया था. इसी के साथ एक बार फिर से पूरे देश में जनसंख्या नियंत्रण कानून लागू करने की हिमायत की जाने लगी है. वैसे, भारत में कई राज्यों में जनसंख्या नियंत्रण कानून लागू किया जा चुका है. इसके अंतर्गत दो से ज्यादा बच्चे होने पर लोगों को कुछ सरकारी सुविधाओं और पंचायत से लेकर नगर पालिका के चुनाव लड़ने तक की इजाजत नहीं दी जाती है. हालांकि, बीते साल ही नरेंद्र मोदी सरकार (modi government) ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर करते हुए देश में जनसंख्या नियंत्रण कानून लागू नहीं करने की बात कही थी. मोदी सरकार का कहना था कि वह देश के नागरिकों पर जबरन परिवार नियोजन थोपने के विचार की विरोधी है. इस स्थिति में सवाल उठना लाजिमी है कि क्या भारत में बढ़ती जनसंख्या सामाजिक संकट है या राजनीतिक?

जनसंख्या वृद्धि पर क्या कहते हैं आंकड़े?

भारत में लंबे समय से चीन की तर्ज पर जनसंख्या नियंत्रण को लेकर कानून बनाने की मांग की जाती रही है. लेकिन, बीते कुछ सालों में चीन ने इस कानून में बदलाव किए हैं. 2016 में चीन ने 'वन चाइल्ड पॉलिसी' को बदलते हुए 'टू चाइल्ड पॉलिसी' कर दिया और इसी साल वहां इसे 'थ्री चाइल्ड पॉलिसी' में बदल दिया गया है. आंकड़ों के अनुसार, भारत की आबादी के मामले में चीन के बाद दूसरे स्थान पर है. 135 से ज्यादा जनसंख्या को देखते हुए भारत में जनसंख्या नियंत्रण कानून की मांग उठती रहती है. देश में 'हम दो, हमारे दो' के नारे और परिवार नियोजन के कार्यक्रमों को लेकर सरकारें जागरुकता बढ़ाती रही हैं. बीते कुछ दशकों में भारत में साक्षरता दर बढ़ने के साथ प्रजनन दर में कमी दर्ज की गई है. साल 2000 में प्रजनन दर 3.2 फीसदी था, जो 2016 में 2.4 फीसदी पहुंच गया था. भारत में जैसे-जैसे साक्षरता बढ़ रही है, बड़ी संख्या में लोग बच्चे पैदा करने से पहले सभी स्थितियों का आंकलन कर 'फैमिली प्लानिंग' अपनाते हैं. जिसका सीधा असर प्रजनन दर पर पड़ता है. भारत में जनसंख्या में वृद्धि की दर 1990 में 2.07 फीसदी थी, जो 2019 में 1.0 फीसदी पर आ चुकी है.

जनसंख्या वृद्धि को रोकने के लिए समय-समय पर राजनीतिक दलों की ओर से कानून बनाने मांग की जाती रही है.जनसंख्या वृद्धि को रोकने के लिए समय-समय पर राजनीतिक दलों की ओर से कानून बनाने मांग की जाती रही है.

जनसंख्या विस्फोट पर हुए हैं शोध

मेडिकल जर्नल लांसेट के एक शोध में अनुमान लगाया गया था कि दुनिया में 21वीं सदी के अंत तक जनसंख्या वृद्धि का क्या हाल रहेगा. इस शोध के अनुसार, 21वीं सदी के आखिर में भारत की जनसंख्या 109 करोड़ ही रह जाएगी. इस शोध के नतीजों को पाने के लिए लांसेट ने 15 साल से लेकर 49 साल तक की महिलाओं की प्रजनन दर के साथ साक्षरता, परिवार नियोजन आदि मानकों को शामिल किया था. जिसके आधार पर लांसेट ने दावा किया था कि भारत में जनसंख्या वृद्धि बहुत बड़ी समस्या नहीं है. हालांकि, शोध में कहा गया था कि 2048 तक भारत की जनसंख्या करीब 160 करोड़ तक पहुंच सकती है. लेकिन, इसके बाद जनसंख्या में कमी दर्ज की जाने लगेगी. शोध में कहा गया है कि 2048 के बाद भारत में प्रजनन दर गिरकर 1.29 फीसदी तक आ जाएगी.

कानून को लेकर उठती रही है राजनीतिक मांग

जनसंख्या वृद्धि को रोकने के लिए समय-समय पर राजनीतिक दलों की ओर से कानून बनाने मांग की जाती रही है. 2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद इस तरह की मांग में काफी बढ़ोत्तरी हुई है. 15 अगस्त 2019 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से भाषण देते हुए कहा था कि भारत में जो जनसंख्या विस्फोट हो रहा है, वो आने वाली पीढ़ी के लिए अनेक संकट पैदा करेगा. लेकिन ये भी मानना होगा कि देश का एक जागरूक वर्ग इससे होने वाली समस्याओं को समझते हुए अपने परिवार को सीमित रखता है. ये लोग एक तरह से देशभक्ति का ही प्रदर्शन करते हैं. बीते साल आरएसएस के प्रमुख मोहन भागवत ने भी जनसंख्या नियंत्रण को लेकर नीति निर्धारण की सलाह दी थी. भाजपा के कई नेता गाहे-बगाहे इस मामले को उठाते रहते हैं.

वहीं, हाल ही में असम में लागू होने वाले जनसंख्या नियंत्रण कानून पर नजर डालें, तो इसमें साफ किया गया है कि राज्य के चाय के बागानों में काम करने वाले अनुसूचित जाति एवं जनजाति से जुड़े लोगों पर यह नीति और नियम लागू नहीं होंगे. भारत में धर्म और जाति की राजनीति अपने चरम पर है. अगर कोई नियम बनाया जाता है, तो संविधान के हिसाब से वह सभी लोगों पर लागू होना चाहिए. लेकिन, सरकारें अपनी वोटबैंक पॉलिटिक्स को साधने के लिए इन नियमों में कुछ खास लोगों को छूट देती हैं. मिजोरम के एक मंत्री ने अपने विधानसभा क्षेत्र में सबसे ज्यादा बच्चों वाले परिवार को एक लाख रुपये देने की घोषणा की है. गौरतलब है कि मिजोरम में जनसंख्या घनत्व काफी कम है. इस स्थिति में शायद कहना गलत नहीं होगा कि जनसंख्या नियंत्रण कानून की मांग पूरी तरह से राजनीतिक है.

राजनीति ने लोगों में बनाई आम धारणा

देश में लोगों के बीच ये आम धारणा बन चुकी है कि मुस्लिम ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं. भारत में गरीब और अशिक्षित तबकों से आने वाले ज्यादातर परिवारों में बच्चों की संख्या का अनुपात किसी शहरी या शिक्षित परिवार की तुलना में ज्यादा ही रहता है. गांवों में रहने वाले परिवारों में बच्चों की संख्या दो से ज्यादा होना आम सी बात है. हालांकि, कुछ सालों में इसमें कमी दर्ज की गई है और यह साक्षरता व जागरुकता आने की वजह से हुआ है. आंकड़ों के अनुसार, 2001 में हिंदुओं की जनसंख्या में वृद्धि दर 19.92 फीसदी थी. जो 2011 में घटकर 16.76 फीसदी पर आ गई. इसी तरह 2001 में मुस्लिम जनसंख्या में जो वृद्धि दर 29.5 फीसदी थी, वो 2011 में गिरकर 24.6 फीसदी हो गई. मुस्लिमों में जनसंख्या की वृद्धि दर हिंदुओं की तुलना में करीब 8 फीसदी ज्यादा है. जबकि, आंकड़ों के लिहाज से मुस्लिमों में जनसंख्या की वृद्धि दर ज्यादा कम हुई है. लेकिन, नेताओं द्वारा ऐसा माहौल बनाया जाता है कि मुस्लिम आबादी तेजी से बढ़ रही है. जो गलत है.

क्या भारत में जरूरी है जनसंख्या नियंत्रण कानून

भारत में गरीबी, अशिक्षा और जातीय राजनीति की वजह से जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाने का कोई फायदा नजर नहीं आता है. लोगों को जागरुक और शिक्षित कर ही इस मामले का हल निकाला जा सकता है. भारत के तकरीबन हर परिवार में लोगों की संतान के तौर पर पहली पसंद लड़का होता है. इस स्थिति में जनसंख्या नियंत्रण कानून से लड़कियों को गर्भ में ही मारने की घटनाएं बढ़ने का खतरा हो सकता है. जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाने से पहले सरकार को इसके दुष्प्रभावों को लेकर लोगों में व्यापक जागरूकता पैदा करने की आवश्यकता है. विशेषज्ञों की मानें, तो जनसंख्या नियंत्रण कानून से जनसांख्यिकीय विकार पैदा होने का खतरा बढ़ सकता है. इस स्थिति में कहा जा सकता है कि भारत में बढ़ती जनसंख्या सामाजिक संकट से कहीं ज्यादा राजनीतिक संकट नजर आता है.

लेखक

देवेश त्रिपाठी देवेश त्रिपाठी @devesh.r.tripathi

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं. राजनीतिक और समसामयिक मुद्दों पर लिखने का शौक है.

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