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Updated: 14 जून, 2020 02:00 PM
प्रेम कुमार
प्रेम कुमार
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राष्ट्र के नाम अपने पांचवें संबोधन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी (Narendra Modi) ने आत्मनिर्भरता (Atmanirbhar Bharat) को प्राप्त करने की दिशा में प्रयास करने का आह्वान किया ताकि देश कोरोना (Coronavirus) के संकट का सामना कर सकें. आत्मनिर्भरता का उनका विचार स्पष्ट रूप से आत्मकेंद्रीयता से अलग है. जो पांच स्तंभों अर्थव्यवस्था, बुनियादी ढांचा, तकनीक, जनसांख्यिकी और मांगों पर खड़ा है. उन्होंने दावा किया कि भारत ने पीपीई किट का स्वदेशी निर्माण कर संकट को अवसर में बदल दिया है. उन्होंने लोगों से आग्रह किया कि वे स्थानीय विनिर्माण पर ध्यान केंद्रित करें जो इस सदी को भारतीय सदी बना सकता है. उन्होंने भारतीय विचारधारा मे निहित वसुधैव कुटुम्बकम् को भी आत्मसात करने को कहा. यह पहली बार नहीं था जब पीएम मोदी ने आत्मनिर्भरता की बात की थी. उनका पहले का 'मेक इन इंडिया' का नारा कुछ इसी तरह का है. सहूलियत के आधार पर आत्मनिर्भरता के विभिन्न विचार हो सकते हैं. राजनेता, अर्थशास्त्रियों, टेक्नोक्रेट सब अपने स्वयं की सहूलियत के आधार पर परिभाषा गढते हैं.

PM Narendra Modi, Aatmnirbhar Bharat, Coronavirusजिस वक़्त पीएम मोदी ने भारत को आत्मनिर्भर बनाने की बात कही लोगों ने भी इसे हाथों हाथ लिया

इतिहासकार होने के नाते, मेरी सहूलियत का बिंदु निश्चित रूप से इतिहास है. इतिहास पाठ्यक्रम अध्ययन का एक मात्र विषय नहीं है. वर्तमान परिस्थितियों को समझने के लिए ऐतिहासिक परिस्थितियों, प्रक्रियाओं और घटनाओं की समझ का उपयोग किया जा सकता है. जब हम आत्मनिर्भरता के विचार की पिछली अभिव्यक्तियों की तलाश करते हैं, तो एक उल्लेखनीय ऐतिहासिक घटना जो हमें सबसे ज्यादा प्रभावित करती है, वह है 1905 का स्वदेशी आंदोलन.

स्वदेशी या आत्मनिर्भरता आंदोलन, गांधीवाद के पूर्व चरण का पहला सबसे सफल आंदोलन था. जो 1905 में लॉर्ड कर्जन द्वारा बंगाल के नियोजित विभाजन के साथ एक आंदोलन के रूप में शुरू हुआ था. स्वदेशी आंदोलन का मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य से आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त करना था. इसने एक ओर ब्रिटिश आर्थिक हितों को बाधित करने और दूसरी ओर घरेलू विनिर्माण को पुनर्जीवित करने के लिए विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने की रणनीति अपनाई गई.

7 अगस्त 1905 बहिष्कार पर एक संकल्प कलकत्ता टाउन हॉल में पारित किया गया था,लोगों ने न केवल ब्रिटिश वस्तुओं का बहिष्कार किया, बल्कि कपड़े जलाने और दुकानों पर पिकेट लगाने का भी जश्न मनाया और साथ मे विदेशी सामान बेचने वाले लोगों का भी सामाजिक बहिष्कार किया. घरेलू सामानों की मांग कई गुना बढ़ गई जिससे इसने घरेलू उद्योगों को बहुत प्रोत्साहन मिला.

बंबई और अहमदाबाद स्थित कपड़ा मिलों ने स्थिति को अच्छी तरह से भुनाया. आर्थिक आत्मनिर्भरता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कई नई मिलों, कारखानों, बीमा कंपनियों और बैंकों की स्थापना की गई. बंगाल प्रौद्योगिकी संस्थान बनाया गया, धन जुटाया गया, और छात्रों को उन्नत शिक्षा के लिए जापान भेजा गया. स्वदेशी आंदोलन के दौरान, रवींद्रनाथ टैगोर ने "अमार सोनार बांग्ला' (मेरा स्वर्ण बंगाल) गीत की रचना की, जिसमें से दस पंक्तियां 1971 में पाकिस्तान से आजादी के बाद बांग्लादेश का राष्ट्रगान बनीं.

आंदोलन की सफलता राष्ट्रीय गरिमा, आत्मसम्मान और राष्ट्र के सामाजिक-आर्थिक उत्थान में विश्वास दिलाने में निहित थी. आत्मनिर्भरता को दूसरी तरह की ऐतिहासिक समझ में आत्मप्रयाप्ता के रूप में भी समझा जा सकता है. वामपंथी इतिहासकारों ने भारतीय इतिहास के प्रारंभिक मध्यकाल को सामंतवाद के रूप में चित्रित किया है, जो कृषि और हस्तशिल्प उत्पादन के संयोजन के आधार पर एक आत्मप्रयाप्त ग्रामीण अर्थव्यवस्था की विशेषता है. गुप्त काल के बाद के समय में रोमन व्यापार के ग्रहण के साथ, शहरी केंद्रों में गिरावट आई.

ग्रामीण अर्थव्यवस्था के प्रति एक प्रतिगामी आंदोलन ने गांव की एक बंद अर्थव्यवस्था मे तब्दील कर दिया. अधिक से अधिक क्षेत्रों को हल के नीचे लाया गया, अधिक से अधिक लोगों को मुख्य रूप से निचले क्रम, अर्थात शूद्रों को कृषि विस्तार के लिए शोषण किया गया. अधिक से अधिक भूमि अनुदान ने जमींदारों के मध्यस्थ वर्ग को जन्म दिया, जिससे अधिक कर, जबरन श्रम, और किसानों का उत्पीड़न हुआ, गांव आत्मनिर्भर बने और आत्मनिर्भरता भारतीय सामंतवाद की आत्मा बन गयी.

स्थिति को समस्याग्रस्त करना ऐतिहासिक पद्धति की एक प्रमुख चिंता है. आत्मनिर्भरता के इन दो ऐतिहासिक युगों को आत्मनिर्भर बनने की प्रक्रिया को ध्यान में रखना चाहिए. स्वदेशी के विचार को बाबा रामदेव ने एक सफल व्यवसाय मॉडल के रुप मे प्रयोग किया है. लेकिन वैश्वीकरण के इस युग में, आत्मनिर्भरता प्राप्त करना उतना ही कठिन होगा जितना कोरोना वायरस से लड़ना है.

सबसे मुश्किल काम विदेशी वस्तुओं पर निर्भरता से दूर करना होगा, खासकर जब हमारे बाजारों में इस तरह के विनिर्माण के साथ परिष्कृत रक्षा और संचार प्रौद्योगिकियों से लेकर घरेलू उपयोग की सांसारिक वस्तुओं तक की बाढ़ है. अगर आज देखे गए कुछ रुझानों को जारी रखा जाए, तो भारत में कोविड के बाद की आर्थिक स्थिति शायद पूर्व-कोविड से काफी अलग होगी. शहरों से बेरोजगार मजदूरों की भारी तादाद के साथ, गांवों मे वापसी हो रही है.

ऐसे समय मे न केवल निस्तारण की पहल की जा रही है, बल्कि लधु और मध्यम उद्योगों को भी पुनर्जीवित किया जा सकता है. चीनी सामानों और तकनीकी प्रयोगों का बहिष्कार सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जोर-शोर से किया जा रहा है, और शायद कुछ लोगों द्वारा इसका अभ्यास भी किया जा रहा है. आत्मनिर्भरता के वर्गीय मायने भी राजनीतिज्ञों को तय करने होंगे अमीर, मध्यमवर्ग, किसान. मजदूर, बेरोजगार के लिए आत्मनिर्भरता के क्या मायने मायने होंगे बताने होंगे. आदिवासियों, दलितों और पिछड़ों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए क्या सरकार को अलग से योजनाएं बनानी होंगी.

एक तरफ ‘मेक इन इंडिया जैसी बहुलक्षित योजनाओं का कोई सकारात्मक परिणाम सामने नहीं आ रहा. तो दूसरी तरफ चीन की जिओमि जैसी कंपनियां ‘मेड फॉर इंडिया’ का अभियान चला रही हैं. जिसके तहत रोज नए उत्पाद भारतीय बाजारों में उतारे जा रहे हैं. इस प्रकार, कोविड की स्थिति के बाद के सामाजिक-आर्थिक संबंधों की गतिशीलता अब पहले जैसी नहीं रहेगी.

भूमि सुधार हालांकि एक दूर का सपना है. आर्थिक राष्ट्रवाद की आड़ में इस नए तरह के पूंजीवादी सामंतवाद के पुनरुत्थान से सामाजिक-आर्थिक संकट भी पैदा हो सकता है. आत्मनिर्भरता प्राप्त करने की दिशा में देश के संसाधनों को कैसे उपयोग किया जाए, यह नीति निर्माताओं के लिए एक बड़ी चुनौती होगी. ऐसी स्थिति में समाज का सबसे निचला व्यक्ति आत्मनिर्भरता के नारे को किस प्रकार लेगा यह आने वाला वक्त तय करेगा.

जब तक समाज का सबसे निचला व्यक्ति उस वैश्विक व्यवस्था से से जुड़ नहीं जाता जिससे समाज का सबसे ऊपर बैठा व्यक्ति जुड़ा है, समाज गतिशील नहीं हो सकता और और जो गतिशील है वह आत्मनिर्भर नहीं हो सकता. गांव में लौट चुके लोगों को हर हाल में सामाजिक आर्थिक गतिशीलता दिलानी होगी ताकि वे आत्मनिर्भरता की ओर अपना कदम बढ़ा सकें.

नारे लगाना और बयानबाज़ी का सहारा लेना एक बात है, और रणनीति बनाना दूसरी. स्वतंत्रता के बाद के दौर में, लगातार सरकारों और राजनीतिक वर्ग द्वारा कई नारे लगाए गए, सुभाष चंद्र बोस द्वारा दिया गया नारा ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ या ‘दिल्ली चलो का नारा ’आज भी रोमांच पैदा कर देता है. गांधी जी के द्वारा दिया ‘करो या मरो’ का नारा आज भी हमारी मन मस्तिष्क में विद्यमान है.

आजादी के बाद भारत चीन युद्ध के समय लाल बहादुर शास्त्री का दिया गया नारा ‘जय जवान जय किसान’ को लोग आज भी लगाते हैं. सारे नारे क्रांति नहीं लाते जैसा जय जवान और जय किसान’ ने लाया था. हरित क्रांति इसका परिणाम था, भूखा भारत धन-धान्य संपन्न हो पाया. यह सारे नारे आत्मशक्ति के पर्याय बन गए थे. जिन्हें आज भी आत्मबोध के लिए लगाया जाता है. परंतु हाल के वर्षों में दिए गए नारे, नारे कम और बयानबाजी ज्यादा लगती है. ऐसे नारे आत्म भ्रम पैदा करते हैं आत्मा भ्रम की स्थिति में लोगों को राजनीतिक अर्थव्यवस्था से विश्वास उठ जाता है.

आत्मा भ्रम हमारी मानसिक गतिशीलता को हर लेता है और ऐसी स्थिति में हम आत्म केंद्रित हो जाते हैं. जब 1868 में जापान में मीजी पुनर्स्थापना हुई, तो मीजी नेताओं ने फ़ुकोकु क्योही ('देश को सम्रिद्ध बनाओ, सेना को मजबूत करो') का नारा बुलंद किया. यह नारा और, इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि इसके साथ-साथ चौतरफा आधुनिकीकरण के कार्यक्रम का उस गरीब सामंती देश पर इतना परिवर्तनकारी प्रभाव पड़ा कि वह 40 वर्षों से भी कम समय में एक विश्व शक्ति बन गया.

भारत को जापान से सिखना चाहिये. भारत के लिए, 21वीं सदी की पहली तिमाही खत्म होने वाली है, और एक सदी की लगभग तीन-चौथाई पहले से ही आत्मनिर्भरता के विचार को गढने में खर्च हुए हैं. अब यह देखा जाना बाकी है कि क्या राजनीतिक, उद्यमी और व्यापारिक वर्गों के पास इस मायावी सपने को साकार करने के लिए इच्छाशक्ति, नियत और रणनीति है.

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लेखक

प्रेम कुमार प्रेम कुमार @100001331335981

लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में सहायक प्रोफ़ेसर हैं.

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