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Updated: 20 अक्टूबर, 2022 04:58 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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हिमाचल प्रदेश विधानसभा (Himachal Pradesh Election 2022) की 68 सीटों के लिए चुनाव होने जा रहे हैं - और बीजेपी (BJP) ने 62 उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है. छह सीटों पर अभी तक फैसला नहीं हो सका है. एक सीट ऐसी भी है जिसका फैसला हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे प्रेम कुमार धूमल (Prem Kumar Dhumal) को करना है.

और ये भी काफी अजीब बात है कि प्रेम कुमार धूमल को उसी सीट पर उम्मीदवार का नाम फाइनल करना है, जहां से मन ही मन वो खुद टिकट चाहते रहे - लेकिन परिस्थितियां ऐसी पैदा हो गयीं कि लिख कर देना पड़ा कि हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए वो टिकट नहीं चाहते.

प्रेम कुमार धूमल को भले ऐसा लग रहा हो कि उनके साथ अलग व्यवहार हुआ हो रहा है, लेकिन मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर की भी स्थिति बहुत ज्यादा अच्छी नहीं लगती है. नवंबर, 2021 के उपचुनावों में बीजेपी के घटिया प्रदर्शन के बाद गुजरात की ही तरह हिमाचल में भी चुनाव से पहले नेतृत्व परिवर्तन के कयास लगाये जा रहे थे. हालांकि, जयराम ठाकुर ने अपनी सूझ बूझ, मेहनत और बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा के साथ अच्छे कनेक्शन की बदौलत मैनेज कर लिया - और बीजेपी उम्मीदवारों की सूची आ जाने के बाद ये तो पक्का हो गया कि चुनाव बाद भी उनके मुख्यमंत्री बने रहने की संभावना खत्म नहीं हुई है. अब अगर पहले से बीजेपी नेतृत्व ने कुछ और ही तय कर रखा हो, और असम की तरह मुख्यमंत्री बदल जाये तो क्या कहा जा सकता है?

धूमल को तो खुश होना चाहिये

विधानसभा टिकट कट जाने के बावजूद प्रेम कुमार धूमल को दुखी होने की अगर निजी वजह है, तो ऐन उसी वक्त खुश होने की कारण भी हैं - बशर्ते, राजनीति में भी तेजी से तरक्की करते बेटे के सामने हार जाना खुशी देता हो.

prem kumar dhumal, jp nadda, amit shahधूमल के साथ धोखा भले हुआ हो, लेकिन बेटों की तरक्की सुकून देनेवाली है

केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर असल में प्रेम कुमार धूमल के ही बेटे हैं - और बीते कुछ समजय से ध्यान दें तो उनकी ठीक ठाक हैसियत बन चुकी है. मोदी मंत्रिमंडल में हुए पिछले फेरबदल के दौरान जहां बड़े बड़े मंत्रियों की छुट्टी हो गयी, अनुराग ठाकुर को कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया गया - और जब कैबिनेट मंत्री बनने के बाद अनुराग ठाकुर पहली बार हिमाचल के दौरे पर पहुंचे तो वहां के राजनीतिक समीकरण काफी अलग महसूस किये गये.

अनुराग ठाकुर के स्वागत के लिए मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर एक घंटा पहले ही मौके पर पहुंच चुके थे - क्या धूमल को इस बात से खुश नहीं होना चाहिये?

जम्मू-कश्मीर के डीडीसी चुनाव में भी अनुराग ठाकुर को महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मिली थी - और यूपी चुनाव में भी तो उनके बयान दिल्ली चुनाव की ही तरह गूंज रहे थे. और सिर्फ अनुराग ठाकुर ही क्यों प्रेम कुमार धूमल को तो अपने दूसरे बेटे अरुण ठाकुर की तरक्की से भी खुश होना चाहिये.

अरुण ठाकुर को आईपीएल का चेयरमैन बनाया गया है और वो बीसीसीआई के कोषाध्यक्ष हैं. अरुण ठाकुर को कांग्रेस नेता राजीव शुक्ला को हटाकर आईपीएल की कमान सौंपी गयी है. संयोगवश राजीव शुक्ला कांग्रेस के हिमाचल प्रदेश के चुनाव प्रभारी हैं और बीसीसीआई के उपाध्यक्ष भी हैं. वैसे अनुराग ठाकुर भी बीसीसीआई के अध्यक्ष रह चुके हैं.

क्या धूमल के साथ धोखा हुआ?

2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने प्रेम कुमार धूमल को मुख्यमंत्री पद का चेहरा तो घोषित कर दिया, लेकिन उनकी सीट बदल दी. हिमाचल प्रदेश की हमीरपुर विधानसभा सीट से टिकट न देकर प्रेम कुमार धूमल को सुजानपुर से मैदान में उतार दिया गया - और नतीजा ये हुआ कि जिस राजेंद्र राणा को वो राजनीति सिखाये थे, उनसे ही चुनाव हार गये.

राजनीति में भी ऐसे हार जीत होती ही रहती है, लेकिन जब बार बार धोखा मिले तो क्या कहा जाये? क्या किसी ने सोचा होगा कि एक दिन ऐसा भी आएगा कि जेपी नड्डा ही प्रेम कुमार धूमल के खिलाफ चालें चलने लगेंगे?

ये कहना तो पूरी तरह ठीक नहीं होगा कि अकेले जेपी नड्डा ने ही प्रेम कुमार धूमल की राजनीति मिट्टी में मिला दी, लेकिन उस मुहिम के भागीदार तो माने ही जाएंगे. कोई और फील्ड होता तो शायद प्रेम कुमार धूमल को भी जेपी नड्डा से शिकायत होती, लेकिन राजनीति में तो सब चलता ही है.

2010 की बात है. तब नितिन गडकरी बीजेपी के अध्यक्ष हुआ करते थे और जेपी नड्डा हिमाचल प्रदेश स्तर के नेता हुआ करते थे. और नितिन गडकरी से जेपी नड्डा के लिए सिफारिश करने वाले कोई और नहीं बल्कि प्रेम कुमार धूमल ही हैं - क्योंकि तब वो हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री हुआ करते थे.

तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल की सिफारिश पर तत्कालीन बीजेपी अध्यक्ष नितिन गडकरी ने जेपी नड्डा को सूबे की सियासत से उठाकर बीजेपी का राष्ट्रीय महासचिव बना दिया - हालांकि, इसका एक पक्ष ये भी था कि ऐसा करके प्रेम कुमार धूमल ने हिमाचल प्रदेश की राजनीति में अपना एकछत्र राज कायम कर लिया था.

समय एक सा तो रहता नहीं. वक्त का पहिया घूमता ही है - और हाल फिलहाल जो कुछ भी प्रेम कुमार धूमल के साथ हो रहा है, साबित करता है कि परिवर्तन संसार का नियम है. 2014 में जब नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो जेपी नड्डा जल्दी ही उनके गुड बुक में शामिल होने में कामयाब हो गये - और 2019 के बाद जब अमित शाह भी मोदी कैबिनेट का हिस्सा बन गये तो बीजेपी अध्यक्ष पद के दावेदार बन गये. तब जेपी नड्डा की राह में भूपेंद्र यादव आड़े जरूर आ रहे थे लेकिन वो अमित शाह को भरोसा दिलाने में कामयाब रहे.

चुनावी हार के साथ ही प्रेम कुमार धूमल के राजनीतिक कॅरियर गिरावट शुरू हो चुकी थी. धूमल तब तक इतने ताकतवर नहीं रह गये थे कि पुष्कर सिंह धामी की तरह हार के बावजूद उनको ही मुख्यमंत्री बना दिया जाये या फिर तब बीजेपी के लिए हिमाचल प्रदेश में ऐसी स्थिति नहीं लगी होगी कि उत्तराखंड जैसा फैसला ले सके.

तब एक चर्चा ये भी रही कि प्रेम कुमार धूमल को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने के पक्ष में नहीं थे. धूमल को सीएम फेस घोषित न करना पड़े इसलिए अमित शाह किसी को भी सामने नहीं करना चाह रहे थे.

तभी, बताते हैं, धूमल ने प्रधानमंत्री के साथ अपने पुराने कनेक्शन का इस्तेमाल किया. मोदी ने काफी दिनों तक हिमाचल प्रदेश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए काम किया था. और दोनों के बीच अच्छी दोस्ती रही. आखिरकार अमित शाह को प्रेम कुमार धूमल के नाम की घोषणा करनी पड़ी - लेकिन वो चुनाव हार गये और खेल खत्म होने की तरफ चल पड़ा.

उसके बाद से जेपी नड्डा ने जयराम ठाकुर को आगे कर प्रेम कुमार धूमल की राह में रोड़े अटकाना शुरू कर दिया - और बीजेपी अध्यक्ष बन जाने के बाद तो ये सब करना उनके लिए और भी आसान हो गया.

क्या धूमल ने नड्डा के आगे सरेंडर कर दिया?

जैसे महाराष्ट्र और बिहार की राजनीति में बीजेपी को मिलती जुलती मुश्किलों से जूझना पड़ता है, हिमाचल प्रदेश और गुजरात के साथ भी कुछ कुछ ऐसा ही लगता है. गुटबाजी हर पार्टी में होती है, और हर राज्य में भी, लेकिन नीचे से ऊपर तक चीजें एक जैसी कतई नहीं होतीं.

हिमाचल प्रदेश और गुजरात दोनों ही राज्यों में बीजेपी की गुटबाजी के तार अगर मोदी-शाह तक जुड़ने लगे तो मामला ठीक नहीं लगता है - और बीते कुछ वाकयों की क्रोनोलॉजी को समझने की कोशिश करें तो कई बार ऊपर से हल्की लगने वाली चीजें बेहद गंभीर लगती हैं.

जैसे गुजरात बीजेपी का एक धड़ा सूबे में अपने जनाधार और मोदी से कनेक्शन के कारण खुद को मजबूत महसूस करता है, हिमाचल प्रदेश में भी मामला ऐसा ही लगता है. जैसे धूमल कैंप मोदी से कनेक्टेड महसूस करता है, विरोधी गुट जेपी नड्डा के जरिये अमित शाह से जुड़ा महसूस करता है - और जेपी नड्डा ने जयराम ठाकुर के जरिये हिमाचल की राजनीति में अपनी अलग गोटी फिट कर ली है. ध्यान रहे, धूमल के हारने के बाद जयराम ठाकुर को ही सीएम बनाया गया - और नवंबर, 2021 के उपचुनावों की हार के बावजूद अब तक वो सीट पर बने हुए हैं.

अगर जेपी नड्डा हिमाचल प्रदेश से नहीं होते तो शायद प्रेम कुमार धूमल से भी केंद्रीय नेतृत्व यानी अमित शाह के लिए डील करना मुश्किल होता, जैसे पहले कर्नाटक में बीएस येदियुरप्पा के मामले में देखने को मिला है. देखा जाये तो अब धूमल को भी वैसे ही पैदल कर दिया गया है जैसे लालकृष्ण आडवाणी के साथ शांता कुमार को भी मार्गदर्शक मंडल में भेज दिया गया था.

धूमल और येदियुरप्पा दोनों ही मोदी के करीबी रहे हैं, जैसे गुजरात के मामले में आनंदी बेन का पलड़ा भारी रहा - और 2014 में उनको ही सीएम की गद्दी मिली और बाकी सारे मुंह देखते रह गये. लेकिन फिर तमाम ऐसी बातें हुईं जिसमें आनंदी बेन को कुर्सी छोड़नी पड़ी.

गुजरात के पाटीदार आंदोलन के पीछे भी बीजेपी के ही एक गुट का हाथ माना जाता रहा है. अब तो खैर हार्दिक पटेल भी बीजेपी के ही नेता बन चुके हैं. जैसे दुनिया गोल है, समय का चक्र वैसी ही घूमा और विजय रुपाणी को भी वैसे ही कुर्सी छोड़नी पड़ी जैसे आनंदी बेन को छोड़नी पड़ी थी - और फिर कुर्सी पर उसे ही बिठाया गया जिसके नाम पर आनंदी बेन की मुहर लगी. भूपेंद्र पटेल को ये बाद में पता चला कि आखिर क्यों उनको आनंदी बेन की विधानसभा से ही बीजेपी ने टिकट दिया था.

ये ठीक है कि बीजेपी की तरफ से धूमल का ही लेटर दिखाया जा रहा है कि अपनी उम्र का हवाला देते हुए वो खुद ही टिकट लेने से मना कर दिये थे - लेकिन फर्स्ट पोस्ट के साथ इंटरव्यू को देखें तो ऐसा बिलकुल नहीं लगता.

धूमल से पूछा गया था - क्या आप फिर से चुनाव लड़ने के लिए तैयार हैं?

धूमल ने बिलकुल वही जवाब दिया जैसा जवाब जयराम ठाकुर या किसी और नेता का होता - 'अगर पार्टी कहती है, जो भी कहा जाएगा मुझे स्वीकार होगा. पार्टी जो कहेगी... मानना ही होता है.'

जिस तरह का सवाल था, किसी भी नेता का ऐसा ही जवाब होता. प्रेम कुमार धूमल ने अगर चुनाव न लड़ने का फैसला अपने से लिया होता तो निश्चित तौर पर उनके जवाब में ये चीज देखने को मिलती. वो जरूर कोई संकेत देते कि अब उनकी ऐसी कोई इच्छा नहीं रह गयी है.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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