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Updated: 19 मई, 2021 10:58 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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केरल में भी मुख्यमंत्री पिनराई विजयन (Pinarayi Vijayan) ने अब ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) की तरह ही बीजेपी (BJP) को केरल में शोर मचाने का मौका दे दिया है - मुख्यमंत्री पी. विजयन के दबदबे के चलते सीपीएम के जिन दो ताजा फैसलों पर विवाद हो रहा है, उनमें से एक वैसा ही है जिसे बीजेपी हाथ लगते ही बड़ा हथियार बना लेती है.

विजयन की ही पिछली सरकार में स्वास्थ्य मंत्री रहीं केके शैलजा को नयी कैबिनेट में शामिल न किये जाने से बीजेपी को कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन पीए मोहम्मद रियास को मंत्री बनाने में पार्टी की गहरी दिलचस्पी जरूर हो सकती है.

मोहम्मद रियास भले ही अपने बूते सीपीएम के यूथ लीडर बने हों, लेकिन पी. विजयन की बेटी से शादी के बाद तो बीजेपी के लिए उनकी एक ही पहचान बच जाती है - प्रदेश का 'दामाद' टाइप, जैसे रॉबर्ट वाड्रा को लेकर बीजेपी कांग्रेस नेतृत्व सोनिया गांधी को कठघरे में खड़ा करती आ रही है.

मोहम्मद रियास का पार्टी पॉलिटिक्स से सत्ता की सियासत में शिफ्ट होना उनकी अपनी प्रतिभा के बूते भी संभव हो सकता था, लेकिन अब तो बीजेपी और विजयन के दूसरे विरोधियों के लिए परिवारवाद की राजनीति को बढ़ावा देने का आरोप लगाना भी आसान हो जाएगा. जैसे पश्चिम बंगाल चुनावों में बीजेपी नेतृत्व ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी को राजकुमार कह कर घेर रहा था - और उससे पहले बिहार चुनाव राहुल गांधी की तरह लालू यादव के बेटे तेजस्वी यादव को 'जंगलराज का युवराज' पुकार कर.

सीपीएम में पी. विजयन की हैसियत क्या है, ये तो 2016 के चुनाव नतीजे आने के बाद ही सबको अंदाजा हो गया था. जब केरल में कम्युनिस्ट आंदोलन में सक्रिय रोल के लिए वीएस अच्युतानंदन को 'भारत का फिदेल कास्त्रो' बताने वाली सीपीएम को भी उनको मुख्यमंत्री बनाने के वादे से भी पीछे हटना पड़ा था. तब खबर आयी थी कि पार्टी ने एलडीएक के चुनाव जीतने की सूरत में अच्युतानंदन को सीएम बनाने का आश्वासन दिया था, लेकिन मीटिंग में पिनराई विजयन को नया मुख्यमंत्री बनाने का फैसला हुआ. सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी और दूसरे पोलितब्यूरो सदस्यों की मौजूदगी मे हुई इस मीटिंग को बीच में ही छोड़ कर अच्युतानंदन चले गये थे.

चुनावों में अपनी बढ़ती उम्र को हौसले के बूते पीछे छोड़ते हुए अच्युतानंदन ने खूब मेहनत की थी - फिल्मी अंदाज वाली उपमाओं से भरपूर उनके लच्छेदार भाषण भी लोग मजे लेकर सुनते थे जबकि पी. विजयन के भाषण नीरस माने जाते रहे - अच्युतानंदन अकेले ऐसे नेता रहे जिनके ज्यादातर भाषण मलयाली चैनल लाइव दिखाया करते थे और दूसरे किसी नेता के साथ शायद ही ऐसा हो पाता हो.

केरल की सत्ता में वापसी के बाद से तो पिनराई विजयन और भी ज्यादा ताकतवर होकर उभरे हैं और ये स्वाभाविक भी है, जो जीता सिंकदर भी तो वही होता है. तभी तो दुनिया भर के आदर्शों की दुहाई देने वाली लेफ्ट पार्टी ने जब केके शैलजा तक को कैबिनेट में नहीं शामिल करने का फैसला किया तो मुश्किल से पांच-छह नेताओं ने विरोध जताया होगा - और मोहम्मद रियास को लेकर तो किसी ने चूं तक नहीं किया. आखिर ये पी. विजयन का दबदबा नहीं तो क्या है?

केरल में परिवारवाद की राजनीति के पेंच में उलझते विजयन

2019 के चुनाव से पहले बीजेपी के एजेंडे में पश्चिम बंगाल की तरह केरल भी रहा - और सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट तक को नहीं बख्श देने के मूड में नजर आये अमित शाह ने काफी मेहनत भी की थी. तब बीजेपी की तरफ से केरल में भी संघ के स्वयंसेवकों और बीजेपी कार्यकर्ताओं पर हमले का मुद्दा बीजेपी नेतृत्व की तरफ से वैसे ही जोर शोर से उठाया जाता रहा - और लेफ्ट के मुख्यमंत्री मुख्यमंत्री पी. विजयन के खिलाफ हमले को ज्यादा धारदार बनाने के लिए योगी आदित्यनाथ के जोशील भाषणों को भुनाने की कोशिशें भी होती रहीं.

ये आम चुनाव के नतीजे ही रहे जिसने बीजेपी नेतृत्व को केरल की जगह पश्चिम बंगाल पर ज्यादा फोकस करने के लिए राजी दिया. तब बीजेपी के अध्यक्ष रहे अमित शाह के पार्टी के स्वर्णिम काल के पैरामीटर में लाने के लिए केरल और पश्चिम बंगाल दोनों ही राज्यों में सरकार बनाने पर खासा जोर रहा. केरल ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी को तो वायनाड में अपना भी लिया, लेकिन बीजेपी को घास तक न डाली, दूसरी तरफ ममता बनर्जी के प्रभाव क्षेत्र में अच्छी खासी सेंध लगा लेने के बाद बीजेपी का सारा फोकस पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव पर शिफ्ट हो गया.

p vijayan, kk shailajaकेरल में पी. विजयन चुनावों के बाद वैसा ही माहौल बनाने जा रहे हैं जैसा अब तक पश्चिम बंगाल में देखने को मिला है - और जल्द ही परिवारवाद की पॉलिटिक्स को लेकर बीजेपी का निशाना बनने वाले हैं.

हालिया विधानसभा चुनाव में भी बीजेपी ने कैंपेन ठीक ठाक किया, लेकिन मेट्रो मैन ई. श्रीधरन के पार्टी का मुख्यमंत्री चेहरा होने के कई बार दावे किये जाने के बाद भी बीजेपी नेतृत्व को कदम पीछे खींचते देखा गया. अब ऐसा तो हो नहीं सकता कि बीजेपी जैसी पार्टी का मुख्यमंत्री चेहरा होने का दावा कोई भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह की मर्जी के बगैर मीडिया में करता फिरेगा - आखिर कोई केंद्रीय मंत्री भी अपने मन से क्यों श्रीधरन के सीएम फेस होने का दावा करता, लेकिन हुआ यही केंद्रीय मंत्री को अपनी ही बातों पर सफाई पेश करनी पड़ी. ई. श्रीधरन के आगे से खामोश हो जाने के लिए नेतृत्व की तरफ ये इशारा ही काफी था.

ज्यादा समझने की जरूरत नहीं, ई. श्रीधरन तो चुनाव नतीजे आने के बाद हार का मुंह देख कर यकीन किये होंगे, मोदी और शाह को पहले ही इस बात का अंदाजा लग चुका होगा. अगर ऐसा नहीं होता तो श्रीधरन को हाथों हाथ लेने के बाद फजीहत कराने का कोई मतलब नहीं था.

पिछली विधानसभा में तो केरल में बीजेपी के पास एक बुजुर्ग विधायक भी हुआ करते थे, इस बार तो ले देकर थोड़ी बहुत उम्मीद श्रीधरन से रही होगी लेकिन मुख्यमंत्री बनना तो बहुत दूर, वो तो अपनी सीट भी नहीं बचा सके.

सब कुछ गंवाने के बाद केरल में विजयन के सामने बीजेपी की तो बोलती ही बंद सी हो गयी थी, लेकिन अब नये चेहरे के नाम पर दामाद को मंत्री बनाने और पुराने के नाम पर केके शैलजा को बाहर रखने का फैसला, फिर से बीजेपी के निशाने पर आने के लिए काफी है.

बुजुर्ग कम्युनिस्ट नेता बी. कुन्हानंदन नायर बीबीसी हिंदी से बातचीत में पी. विजयन के फैसले को गलत और जोसफ स्टालिन जैसा व्यवहार मानते हैं. नायर याद दिलाते हैं कि पश्चिम बंगाल में ज्योति बसु ने भी कभी ऐसे अपने मंत्रियों को नहीं हटाया था क्योंकि वो किसी और की बात सुनते ही नहीं.

कुन्हानंदन नायर साफ साफ कहते हैं, 'वो अपने दामाद को मंत्रालय में लेकर आए हैं और लोगों को ये पसंद नहीं है - ये परिवारवाद है, लेकिन पार्टी में इस मुद्दे को उठाने वाला कोई नहीं है.'

नायर को विजयन केरल में विजयन का कट्टर विरोधी समझा जाता है - और जब विजयन को लेकर उनके एक विरोधी की ये राय है तो मान कर चलना चाहिये कि बीजेपी भी ऐसा ही सोच रही होगी - परिवारवाद की राजनीति.

ये परिवारवाद की ही राजनीति है जो बीजेपी राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस, बंगाल में ममता बनर्जी, बिहार में लालू यादव की पार्टी आरजेडी, यूपी में मुलायम सिंह और अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी और जिस तरीके से भतीजे आनंद पर मायावती की निर्भरता बढ़ रही है, बीएसपी. पंजाब में भी तो अकाली दल एनडीए छोड़ने के बाद बादल परिवार की ही पार्टी बन चुकी है. महाराष्ट्र में एनसीपी से लेकर शिवसेना तक भी बीजेपी के निशाने पर रहने वाले हैं. सुशांत सिंह राजपूत केस में आदित्य ठाकरे बीजेपी के नारायण राणे और नितेश राणे जैसे नेताओं के निशाने पर रहे, लेकिन आने वाले चुनावों में बीजेपी उनको भी युवराज या राजकुमार कह कर तो बुलाएगी ही, बशर्ते कालांतर में भी ऑपरेशन लोटस नाकाम साबित हो.

क्योंकि कोई महिला लीड कैसे कर सकती है?

कोविड 19 महाआपदा में अपने काम के लिए देश-विदेश में तारीफें बटोर चुकीं, केके शैलजा को कैबिनेट में न शामिल किये जाने पर सीपीएम की तरफ से सफाई पेश की गयी है - और एक तरीके से मीडिया पर ही ठीकरा फोड़ने की कोशिश की गयी है.

एक बयान में कहा गया है कि मीडिया रिपोर्टों में केके शैलजा को स्वास्थ्य मंत्रालय से हटाने और कैबिनेट में जगह न दिये जाने के पीछे पिनराई विजयन की साजिश के तौर पर पेश करने की कोशिश हो रही है. 20 मंत्रियों को हटाया गया है ताकि नये नेताओं की पौध को मौका मुहैया कराया जा सके.

सीपीएम ने पिनराई विजयन को एक दलित मुख्यमंत्री के तौर प्रोजेक्ट करने की कोशिश की है - और कहा है कि एक प्रस्ताव लाकर विशेष प्रावधान के तहत पिनराई विजयन मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ रहे हैं.

जिस केके शैलजा को लेकर विवाद चरम पर पहुंच चुका है, सीपीएम का कहना है कि वो पार्टी व्हीप के तौर पर काम करेंगी और भविष्य में वो केरल और कम्युनिस्ट पार्टी की पहली मुख्यमंत्री या सांसद बन सकती हैं.

सीपीएम के बयान पर वरिष्ठ पत्रकार मंजीत ठाकुर अपनी फेसबुक पोस्ट में लिखते हैं, 'मीडिया वाले हैं तो मीडिया रिपोर्ट्स पर भरोसा न करें और आपकी सफाई पर कर लें? इतना ही यंग जनरेशन के लिए खाली जगह करनी थी, तो सीएम की कुरसी भी छोड़ते. खुद क्यों बन गए दोबारा? विजयन तो जवान नहीं ही कहे जाएंगे.'

खुद केके शैलजा का भी कहना है, 'भावुक होने की जरूरत नहीं है. मैं पहले पार्टी के फैसले की वजह से मंत्री बनी. मैंने जो किया उससे मैं पूरी तरह संतुष्ट हूं. मुझे विश्वास है कि नयी टीम मुझसे बेहतर कर सकती है.'

केरल की राजनीति में रहना है तो विजयन से बैर मोल लेना शैलजा के लिए भी ठीक नहीं है, लेकिन असलियत तो ये है कि चुनावों में ही उनके पर कतरने की कोशिश हुई थी. पिछली बार वो कुन्नूर से विधानसभा पहुंची थीं, लेकिन पार्टी ने इस बार उनकी सीट बदल कर चुनाव लड़ने के लिए मात्तानूर भेज दिया था - 2016 में जहां वो करीब 12 हजार वोटों से चुनाव जीती थीं, इस बार करीब 61 हजार के अंतर से जीत हासिल की जो केरल में जीत का एक रिकॉर्ड कायम हुआ है.

अब सवाल उठ रहा है कि क्या केके शैलजा भी केरल की उसी राजनीति का शिकार हुई हैं जैसे केआर गौरी अम्मा को महिला राजनीतिज्ञ होने की कीमत चुकानी पड़ी थी?

गौरी अम्मा केरल की पहली रेवेन्यू मिनिस्टर रहीं और अपने जमाने में मुख्यमंत्री पद की सबसे बड़ी दावेदार भी, लेकिन उनको भी वैसे ही हाशिये पर रखा गया जैसे अब शैलजा के साथ हुआ लगता है. केरल की आयरन लेडी कही जाने वाली गौरी अम्मा का 102 साल की उम्र में हाल ही में निधन हो गया.

शैलजा के साथ हुए राजनीतिक दुर्व्यवहार पर बीबीसी से बातचीत में राजनीतिक विश्लेषक बीराआपी भास्कर की टिप्पणी होती है, 'पार्टी पुरुष प्रधान है. उन्हें ऐसा लगने लगा था कि वो बहुत बड़ी होती जा रही हैं. हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि ये वही पार्टी है जिसमे गौरीअम्मा को सीएम नहीं बनने दिया था, गौरीअम्मा एक मजबूत शख्सियत थीं... शैलजा सौम्य व्यक्तित्व की धनी हैं.'

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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