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Updated: 06 दिसम्बर, 2020 02:26 PM
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हैदराबाद सांसद असदुद्दीन ओवैसी (Asaduddin Owaisi) GHMC चुनाव (GHMC Election) में न तो बीजेपी (BJP) की जीत स्वीकार कर पा रहे हैं - और न ही AIMIM की हार ही उनको हजम हो पा रही है. तभी तो ऐसी ऐसी दलीलें पेश कर रहे हैं जो दूसरों के लिए हजम करना मुश्किल हो रहा है. नगर निगम की 4 सीटों से 48 पर पहुंची बीजेपी के लिए वो हैदराबाद में किसी तरह की लहर होने से भी इंकार कर रहे हैं. ऊपर से दावा ये भी है कि 'चुनाव में बीजेपी नेता अमित शाह और योगी आदित्यनाथ जहां-जहां भी प्रचार करने गये, सभी जगह बीजेपी चुनाव हार गई.

अब ओवैसी को ये कौन समझाये कि उनके इलाके में बीजेपी का उभार ही उनके लिए सबसे बड़ी हार समझी जाएगी. दरअसल, हैदराबाद में 40 फीसदी मुस्लिम आबादी बीजेपी की कमजोरी रही, लेकिन पार्टी ने उसे मजबूती में बदल दिया है. मुस्लिम बहुल इलाकों और वहां होने वाली गतिविधियों की बार बार याद दिलाकर बीजेपी ने हिंदू आबादी को देखते ही देखते अपने मजबूत सपोर्ट में तब्दील कर लिया.

अच्छा तो ये होता कि असदुद्दीन ओवैसी हैदराबाद नगर निगम चुनाव में हार को वैसे ही स्वीकार करते जैसे बिहार की पांच सीटों पर जीत का जश्न मनाया था - और फिर राजनीतिक भविष्य की योजनाओं पर काम करना शुरू कर देते.

अब ये हार नहीं तो क्या है?

AIMIM नेता असदुद्दीन ओवैसी और उनके सपोर्टर सोशल मीडिया पर हैदराबाद चुनाव में बीजेपी की जीत को खारिज करने की कोशिश कर रहे हैं. ओवैसी ऐसा इसलिए भी कर रहे हैं क्योंकि AIMIM पर बीजेपी के धावा बोलते ही हथियार डाल देने का इल्जाम लग रहा है.

बेशक असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी की मिलने वाली सीटों पर पिछले बार के मुकाबले कोई फर्क नहीं पड़ा है - दोनों बार ओवैसी की पार्टी को 44 सीटें ही मिली हैं. फर्क ये पड़ा है कि इससे पहले हैदराबाद नगर निगम में ओवैसी की पार्टी नंबर 2 थी, इस बार बीजेपी हो गयी है और AIMIM चार सीटें कम होने के कारण तीसरे स्थान पर चली गयी है. बीजेपी को 48 और मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव की पार्टी को 55 सीटें मिली हैं. चूंकि बहुमत किसी को नहीं मिला है क्योंकि वो आंकड़ा अभी 75 है. हैदराबाद नगर निगम में कुल 150 सीटें हैं, लेकिन हाई कोर्ट के आदेश पर एक सीट पर रिजल्ट नहीं घोषित किया गया है.

ओवैसी और उनके समर्थकों की दलील है कि बीजेपी और AIMIM या TRS के प्रदर्शन की तुलना उनके स्ट्राइक रेट के हिसाब से होना चाहिये. कहने का मतलब ये कि कितनी सीटों पर चुनाव लड़ कर किसने कितनी सीटों पर जीत हासिल की है, पैमाइश भी उसकी उसी हिसाब से होनी चाहिये.

असदुद्दीन ओवैसी समझा रहे हैं कि उनके हैदराबाद संसदीय क्षेत्र में नगर निगम के 44 वार्ड हैं. 44 वार्ड में से 34 सीटों पर AIMIM ने उम्मीदवार उतारे थे और 33 सीटों पर जीत दर्ज करने में कामयाब रही. ओवैसी इसके साथ ही अपने उम्मीदवारों की संख्या और बाकियों की तुलना करते हैं.

asaduddin owaisiअसदुद्दीन ओवैसी को बीजेपी का चुनावी दांव लगता नहीं कि समझ मे आया है

नगर निगम चुनाव में सबसे ज्यादा मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव की पार्टी टीआरएस 150 सीटों पर चुनाव लड़ी थी. टीआरएस के बाद बीजेपी का नंबर आता है. बीजेपी ने 149 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किये थे और सबसे कम सीटों पर ओवैसी के उम्मीदवार थे - सिर्फ 51 सीटों पर.

असदुद्दीन ओवैसी यही बात समझा रहे हैं कि उनकी पार्टी का स्ट्राइक रेट तो सबसे बढ़िया है - 51 सीटों पर उम्मीदवार खड़े कर 44 सीटों पर जीत हासिल करना कोई मामूली बात तो है नहीं. वैसे 2016 के चुनाव में ओवैसी ने 60 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किये थे और तब भी पार्टी को 44 सीटें ही मिली थी. ओवैसी याद दिलाते हैं कि बीजेपी नेताओं ने हैदराबाद ओल्ड सिटी पर सर्जिकल स्ट्राइक करने की बात की थी, लेकिन वो कुछ नहीं कर सकते. ओवैसी का कहना है कि उन्होंने लोकतांत्रिक स्ट्राइक की है.

ओवैसी लगे हाथ पूछते भी हैं - जरा ​सोचिये तब क्या हुआ होता अगर AIMIM ने 80 सीटों पर चुनाव लड़ा होता?

ओवैसी का सवाल अपनी जगह है. क्या हुआ होता वो अलग बात है. जो हुआ है वो फिलहाल अहम है. ओवैसी की पार्टी ने 51 में से 44 सीटें जीत जरूर ली हैं - लेकिन ये उस सवाल का जवाब नहीं है, जो खड़े हो रहे हैं.

पिछली बार की परिस्थितियां अलग थीं. तब के हालात के हिसाब से 60 में से 44 सीटों पर जीत एक अच्छा स्ट्राइक रेट है, लेकिन मौजूदा हालात में ओवैसी की पार्टी के लिए 51 में से 44 ही सीटें निकाल पाना अच्छा संकेत नहीं है.

बीजेपी बहुत ज्यादा फायदे में और टीआरएस सबसे ज्यादा घाटे में रही है, लेकिन ओवैसी का पहले के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन न कर पाना उनकी पार्टी की सेहत के लिए बिलकुल भी अच्छा नहीं है. खास कर तब जब बीजेपी मजबूत दस्तक दे चुकी हो.

निहायत ही लोकल चुनाव में बीजेपी ने हिंदुत्व के साथ साथ अपने सारे एजेंडे पेश कर दिये - दूसरी तरफ असदुद्दीन ओवैसी तब भी अपने समर्थकों को एकजुट नहीं रख पाये जबकि उनको अच्छी तरह मालूम था कि बीजेपी आ रही है - और यूं ही नहीं आ रही, बल्कि समझ से भी परे अपने लाव लश्कर को साथ लेकर आ रही है. ऐसे हालात में भी ओवैसी अपने लोगों को बीजेपी के खिलाफ उस तरीके से एकजुट नहीं रख पाये जिस तेवर में पूरे साल राजनीति करते हैं - फिर आखिर कैसे न मानें कि ओवैसी की पार्टी की हार हुई है.

कैसे बीजेपी के चंगुल में फंसे ओवैसी

बीजेपी के हैदराबाद पर धावा बोलते ही लगता है असदुद्दीन ओवैसी गफलत में पड़ गये, जबकि बीजेपी को अपने मिजाज के हिसाब से एक्सपेरिमेंट के लिए सही मैदान लगा - और बीजेपी का ये अंदाजा सही भी साबित हुआ.

अव्वल तो नगर निगम चुनाव बुनियादी सुविधाओं और समस्याओं को लेकर लड़े जाते हैं - मसलन, नाली, सड़क, सड़कों में गड्ढे और कूड़ा-करकट और सफाई. बीजेपी का विजन साफ था. मोर्चा संभालते ही बीजेपी नेताओं ने सर्जिकल स्ट्राइक, धारा 370, रोहिग्या मुसलमान, पाकिस्तान और बांगलादेश का बढ़ चढ़ कर जिक्र किया और बातों बातों में एक एक कर ओवैसी की कमजोर कड़ियां भी गिनाते गये.

टीआरएस और ओवैसी की पार्टी के बीच कोई चुनावी गठबंधन नहीं हुआ, लिहाजा दोनों अलग अलग चुनाव लड़े और दोनों के सामने लक्ष्य साफ भी था. ओवैसी को बीजेपी के असर से अपने किले को महफूज रखना था - और टीआरएस को किसी भी कीमत पर अपना वोट बीजेपी के पाले में जाने से रोकना था. बीजेपी ने पाया कि ओवैसी ने काफी सीटों पर टीआरएस के खिलाफ उम्मीदवार नहीं उतारे थे. बीजेपी ने इस चीज का फायदा उठाने की कोशिश की और पूरा फायदा उठाया भी. के. चंद्रशेखर राव और असदुद्दीन ओवैसी के अलग अलग चुनाव लड़ने के बावजूद काफी पहले से मोर्चे पर भेजे गये तेजस्वी सूर्या तो शुरू से ही लोगों को समझाते रहे कि केसीआर और ओवैसी के बीच अपवित्र गठबंधन है, बात बस इतनी है कि दोनों ही इसे जाहिर नहीं करते. एक रैली में तो तेजस्वी सूर्या ने असदुद्दीन ओवैसी को मोहम्मद अली जिन्ना का अवतार तक बता दिया. उसके बाद से तो केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी से लेकर यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ तक लोगों को लगातार यही समझाते रहे कि दोनों के बीच अंदरूनी तौर पर गठबंधन है और दोनों ही छिपाने की कोशिश कर रहे हैं.

ये सही है कि बीजेपी के चलते टीआरएस का सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है. ये नुकसान भी वैसा नहीं समझा जाता अगर टीआरएस को लुब्बाक उप चुनाव में हाथ विधानसभा सीट से हाथ नहीं धोना पड़ा होता.

ये भी सही है कि टीआरएस के मुकाबले ओवैसी को कम नुकसान हुआ है - लेकिन ऐसी परिस्थितियों में तो ये भी नहीं होना चाहिये था. जब बीजेपी टीआरएस और ओवैसी के बीच अंदरूनी गठबंधन की बात समझायी तो ओवैसी के लि जरूरी था कि अपनी रणनीति नये सिरे से तैयार करते और बीजेपी क ही दांव से उसे शिकस्त भी दे सकते थे.

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