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Updated: 28 मार्च, 2020 05:28 PM
धीरेंद्र राय
धीरेंद्र राय
  @dhirendra.rai01
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रविवार को देश जब गणतंत्र दिवस (Republic Day 2020) मना रहा है, ऐसे में अखबारों की सुर्खियों में जम्मू-कश्मीर (Jammu-Kashmir) की दो घटनाएं भी शामिल हैं. एक है शनिवार से घाटी में 2जी मोबाइल सेवाओं का पूरी तरह बहाल हो जाना. और दूसरी है उमर अब्दुल्ला की ताजा तस्वीर (Omar Abdullah latest pic). जिसे Leak Photo भी कहा जा रहा है. 5 अगस्त को जम्मू-कश्मीर राज्य से जुड़ी धारा 370 खत्म किए जाने के फैसले के बाद आई ये दोनों ही खबरें कई मायनों में महत्वपूर्ण हैं, और विरोधाभासी भी. गणतंत्र दिवस मनाने से पहले राज्य में मोबाइल सेवाओं की बहाली करके मोदी सरकार कश्मीर घाटी के लोगों के प्रति संवेदना दिखाना चाह रही थी, लेकिन उमर अब्दुल्ला की तस्वीर ने नई चुनौती खड़ी कर दी. नीली जर्सी और धूसरित टोपी पहने उमर कश्मीर की बर्फ से नहाए हुए हैं. उनके चहरे पर चिर-परिचित मुस्कुराहट है, लेकिन बढ़ी हुई सफेद-स्याह दाढ़ी पांच महीने के उनके संघर्ष की गवाही दे रही है.

उमर अब्दुल्ला 5 अगस्त के बाद से ही नजरबंद हैं. और वे ही नहीं, उनके पिता फारुख अब्दुल्ला, मेहबूबा मुफ्ती और शाह फैसल जैसे नेताओं का भी यही हाल है. उमर अब्दुल्ला की तस्वीर तो शनिवार को ही सोशल मीडिया पर वायरल हो गई थी. ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) ने इसे शेयर करते हुए लिखा था कि मैं तो उमर को पहचान ही नहीं पाई. आखिर हमारे लोकतंत्र में यह सब कब खत्म होगा? कांग्रेस नेता सलमान अनीस सोज उन लोगों को आड़े हाथ ले रहे थे, जो उमर से जल्द ट्विटर पर लौटने की गुजारिश कर रहे थे. सलमान का कहना था कि ‘उमर कोई हॉलिडे पर नहीं गए हैं. हमारी सरकार ने उन्हें बिना आरोप बंदी बनाया हुआ है. न्यायपालिका भी साथ है, और ज्यादातर मीडिया भी सवाल नहीं कर रहा है. यह सब जिम्मेदार हैं.’ मेहबूबा मुफ्ती की ओर से भी इसी तरह की राय व्यक्त की गई. देशभर से विपक्षी नेताओं ने उमर की तस्वीर पर अपनी भावनाएं व्यक्त की गईं. सिर्फ नेता ही नहीं, पत्रकार बिरादरी की ओर से भी उमर के प्रति सहानुभूति जताते हुए मोदी सरकार को निशाना बनाया गया.

लेकिन क्या इस सबसे मोदी सरकार को फर्क पड़ा?

Omar Abdullah, Mamata Banerjee, Photo, Article 370, Modi Governmentउमर अब्दुल्ला की मौजूदा हालत ने ममता बनर्जी को भी सकते में डाल दिया है

तस्वीर का दूसरा रुख...

उमर अब्दुल्ला की बढ़ी हुई दाढ़ी वाली तस्वीर तो विपक्ष के लिए तो मोदी सरकार पर हमला बोलने का बहाना है, लेकिन क्या इसका केंद्र सरकार पर कोई असर नहीं होगा? जवाब है, बिल्कुल होगा. उमर की दाढ़ी मोदी सरकार को भी चुभ रही होगी. कश्मीर में यदि मोबाइल सेवाएं बहाल की जा रही हैं, तो नजरबंद नेताओं को रिहा क्यों नहीं किया जा रहा है? या उन्हें कब रिहा किया जाएगा? मोदी सरकार के सामने इन दोनों सवालों से अहम सवाल ये है कि उमर अब्दुल्ला जैसे नेताओं को किस सूरत में रिहा किया जाए?

दरअसल, धारा 370 खत्म करने के बाद कश्मीर के मामले में मोदी सरकार जहां पहुंच गई है, वहां वह अब कोई रिस्क लेना नहीं चाहेगी. कम से कम नागिरकता संशोधन कानून और NRC के खिलाफ प्रदर्शन (CAA-NRC protest) थम नहीं जाते. ऐसा हो जाने के बावजूद उमर अब्दुल्ला और बाकी नेताओं की रिहाई बिना शर्त नहीं होने वाली. जैसे कि घाटी में कोई राजनीतिक आंदोलन या गड़बड़ी न होने देने की गारंटी. लेकिन ऐसा करना शायद इन नेताओं के लिए राजनीतिक खुदकुशी की तरह होगा. हां, ये नजरबंद नेता और केंद्र सरकार एक अंडरस्टैंडिंग कर सकते हैं. जैसे, केंद्रशासित बना दिए गए जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग. जिसे शायद केंद्र सरकार भी मान ले. घाटी के नेताओं को पूर्ण राज्य वाली विधानसभा मिल जाए और केंद्र को बिना धारा 370 वाला ‘शांत’ जम्मू-कश्मीर. लेकिन फिलहाल ये सब इतना जल्द और सहज होता नहीं दिखता.

उमर अब्दुल्ला रिहा हो भी गए तो करेंगे क्या?

घाटी के नजरबंद नेताओं के लिए रिहाई भी किसी सजा से कम नहीं होगी. रिहा होने के बाद यदि वे कोई आंदोलन खड़ा भी करना चाहें तो उनका साथ कौन देगा? दरअसल, धर्मसंकट की स्थिति अब्दुल्ला परिवार के साथ सबसे ज्यादा है. धर्मसंकट ही नहीं, विश्वसनीयता का सवाल भी. 1953 में जवाहरलाल नेहरू की मदद से जम्मू-कश्मीर राज्य के वजीर-ए-आजम की कुर्सी पर आसीन शेख अब्दुल्ला इन्हीं उमर अब्दुल्ला के दादा और फारुख अब्दुल्ला के पिता ही तो थे, जिन्हें देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर 11 साल जेल में रखा गया. नेहरू के जमाने में कैद हुए शेख अब्दुल्ला इंदिरा गांधी के जमाने में रिहा हुए. लेकिन बदले में जम्मू-कश्मीर से वजीर-ए-आजम का पद और अलग झंडा छीन लिया गया. इस निजी और राजनैतिक आघात को भूलकर अब्दुल्ला परिवार 2008 में कांग्रेस के साथ गठबंधन करके राज्य की सत्ता तक पहुंचा. और 2009 का लोकसभा चुनाव भी कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ा, और यूपीए का हिस्सा बना.

कल की क्या उम्मीद करें...

मोदी सरकार यदि धारा 370 खत्म करके खामोश हो जाती, तो भी गनीमत थी. लेकिन जम्मू-कश्मीर को केंद्रशासित बनाकर बीजेपी ने घाटी के नेताओं को कहीं का नहीं छोड़ा. पिछले पांच महीने में मोदी सरकार कश्मीर को लेकर लगाए जा रहे तमाम कयासों को झूठ साबित करती चली आ रही है. जो खूनखराबे की आशंका जताई जा रही थी, वैसा तो बिल्कुल नहीं हुआ. धीरे-धीरे हालात पटरी पर आ भी रहे हैं. ज्यादा नहीं तो कम से कम कश्मीर जैसा रहा करता था, उसी स्थिति में पहुंच रहा है. यदि सबकुछ पहले ही की तरह होता जाना है, तो सबसे ज्यादा मायनस में कौन रहा? जवाब है- राज्य का पॉलिटिकल क्लास. घाटी का पॉलिटिकल क्लास, चाहे वो अलगावादी हों या मेनस्ट्रीम पॉलिटिक्स करने वाले. हमेशा से ‘सत्ता’ के आदी रहे. केंद्र के साथ लव-हेट का एक रणनीतिक रिश्ता रहा है इनका. मोदी सरकार के आने के बाद अलगाववादियों की दुकान तो लगभग बंद कर दी गई थी. लेकिन धारा 370 के खात्मे के बाद मेनस्ट्रीम पॉलिटिक्स करने वाले नेताओं को ही अलगाववादी बना दिया गया. अब यदि इन नेताओं को दोबारा मेनस्ट्रीम में आना है तो श्रीनगर को दिल्ली से बीजेपी की टनल के जरिए ही जोड़ना होगा. उमर अब्दुल्ला और फारुख अब्दुल्ला ये कर सकते हैं. उन्होंने पहले भी किया है. उमर अब्दुल्ला की बढ़ी हुई दाढ़ी लोगों की संवेदनाएं खींच लेने का दम रखती है. और उनकी मुस्कुराहट दुश्मनों को साध लेने का.  

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लेखक

धीरेंद्र राय धीरेंद्र राय @dhirendra.rai01

लेखक ichowk.in के संपादक हैं.

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