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Updated: 23 अप्रिल, 2018 07:11 PM
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पिछले हफ्ते सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (NSA), अजित डोभाल की अध्यक्षता में एक नई समिति, रक्षा योजना समिति (DPC) बनाने की घोषणा की गई. यह एक स्थायी निकाय होगा और इसके सदस्यों के रूप में चीफ ऑफ स्टाफ कमेटी (वर्तमान में सेना प्रमुख), अन्य सेना प्रमुख, विदेश सचिव, रक्षा सचिव और वित्त मंत्रालय के व्यय सचिव के अध्यक्ष होंगे. मेंबर सेक्रेटरी ही एकीकृत रक्षा स्टाफ (CISC) के चीफ होंगे.

प्रेस रीलिज के अनुसार DPC, राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति का मसौदा तैयार करने, रणनीतिक रक्षा समीक्षा करने और अंतरराष्ट्रीय रक्षा रणनीति तैयार करने के लिए प्रतिबद्ध है. इसके निर्माण के पीछे एक ऐसी प्रणाली स्थापित करने का विचार है जो एकीकृत योजना बना सके, जिससे उभरते जटिल अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा चुनौतियों का सामना करने में सक्षम हो सकें. सरकारी आदेश के अनुसार, समिति में चार उप-समितियां होंगी. ये नीति और रणनीति, योजनाएं और क्षमता विकास, रक्षा कूटनीति, और रक्षा निर्माण पारिस्थितिकी तंत्र हैं. समिति के सदस्यों और रिफरेंस की शर्तों के विवरण बाद में घोषित किए जाएंगे. इन समितियों द्वारा दिए गए इनपुट को रक्षा मंत्री द्वारा जांचा जाएगा.

NSA, प्रधान मंत्री को सलाह देता है और क्योंकि एनएससी, पीएमओ का हिस्सा है इसलिए ये समिति भी पीएमओ के दायरे में आती है. इसकी देखरेख रक्षा मंत्री द्वारा की जाएगी. अन्य मंत्रालयों के सदस्य जो रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत स्वेच्छा से काम नहीं करते हैं उन्हें आकर्षित करने के मकसद से इसे पीएमओ के तहत रखा गया है. भारत को "रक्षा के शीर्ष प्रबंधन" में पूरी तरह बदलाव की जरूरत थी. "रक्षा प्रबंधन" की मूल भूमिका, राष्ट्रीय उद्देश्यों और हितों, दीर्घकालिक सैन्य रणनीति और राष्ट्रीय सुरक्षा उद्देश्यों और रणनीति को विकसित करना है. साथ ही सैन्य क्षमता के विकास के लिए योजना बनाना है. इसमें सैन्य रणनीति की निगरानी, नियंत्रण और उनका विकास भी शामिल हैं. एनएससी, रक्षा मंत्रालय और सैन्य मुख्यालयों पर ये जिम्मेदारी होगी.

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आर्थिक, राजनयिक और सैन्य कारकों के संयोजन से ही राष्ट्र की शक्ति बनती है और सुचारु रुप से काम करती है. इस प्रकार, DPC के पास आर्थिक और विदेशी मंत्रालयों के वरिष्ठ सैन्य सदस्यों और नौकरशाहों का संयोजन है. यह सरकार को एनएससी को फिर से तैयार करने से बचाता है. एनएससी वर्तमान में आईबी और रॉ (आईपीएस कैडर) के प्रभुत्व में है और सत्ता के अन्य तत्वों से उपयुक्त प्रतिनिधित्व की इसमें कमी है.

इसके अलावा, इस समिति को बनाने में सरकार ने एक बार फिर से NSA के रूप में एक अप्रत्यक्ष चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (CDS) नियुक्त किया है. वह अब रक्षा की तीन सेवाओं के बीच खरीद, रक्षा के मुद्दे, तैनाती और बजटीय मांगों का समन्वय, अनुमोदन और निर्धारण करने के लिए जिम्मेदार होगा. इससे पहले, ये सारा भार रक्षा सचिव और रक्षा मंत्री पर था जो सैन्य मामलों की कम समझ के कारण परेशान हो जाते थे. इसने सरकार को CDS की नियुक्ति को नजरअंदाज करने और उसमें देरी करने का एक और बहाना दे दिया है.

CDS की नियुक्ति को नजरअंदाज करने का मुद्दा तब और गर्म हो गया जब CISC को सदस्य सचिव के रूप में नियुक्त कर दिया गया. CISC एकीकृत रक्षा स्टाफ मुख्यालय का प्रमुख होता है. इनका काम उभरते खतरों के आधार पर संयुक्त सैन्य रणनीति तैयार करने, फोर्स के विकास और फोर्स के लिए खरीदारी का ध्यान रखना है. CDS की नियुक्ति नहीं होने के कारण ये अपना काम कर पाने में असमर्थ थे, इस कारण से सभी मामलों को सीधे रक्षा मंत्रालय को भेजा जाता था. CISC को डीआईसीसी में लगाकर, NSA को अप्रत्यक्ष CDS के रूप में काम करने की मंजूरी दे दी गई है.

इस तरह, सशस्त्र बलों का नियंत्रण रक्षा मंत्री से पीएमओ के हाथ में चला गया.

हालांकि, इस सिस्टम में कई फायदे भी होंगे. सबसे पहला तो ये कि नेशनल पावर के सभी तत्व एक छत के नीचे आ जाएंगे. इसलिए, खतरे के समय एक दूसरे से समन्वय बनाना आसान होगा और सभी अपनी पूरी ताकत का इस्तेमाल कर पाएंगे.

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दूसरा, भारत को एक राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति के निर्माण की सख्त जरुरत है, जो उभरते खतरों का सामना करने के लिए नीतियां बना सके. इस तरह के दिशानिर्देशों की कमी के कारण हर मंत्रालय खुद में ही उलझ जाते हैं.

तीसरा, सैन्य जुड़ाव का तात्पर्य सैन्य कूटनीति और अंतरराष्ट्रीय सैन्य सहयोग से भी है. वर्तमान परिवेश में यह आवश्यक है. राजनीतिक अनिश्चितता वाले देशों में सैन्य कूटनीति अधिक स्पष्ट है. जबकि इन देशों में सेना राजनीति से दूर रहती है, फिर भी सत्ता में पार्श्व रुप से दखल जरुर रखती है.

हमारे करीबी से लेकर अफ्रीका तक के पड़ोसी देशों में से अधिकांश देश चीन के कर्ज के जाल में फंसते जा रहे हैं जिसके कारण इन्हें अपनी सामरिक संपत्तियों को उनके अधीन करना पड़ रहा है. ऐसा इसलिए है क्योंकि सरकारें ऋण स्वीकार करते समय अल्पकालिक लाभ को देखती हैं, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें लंबे समय तक इसका ब्याज चुकाना पड़ता है. हमारी सैन्य कूटनीति, राजनीतिक कूटनीति की तुलना में अधिक फायदा पहुंचाएगी क्योंकि दो सेनाओं का संपर्क कूटनीतिक क्षमता को नजरअंदाज कर एक वैकल्पिक व्यवस्था का रास्ता सुझाएगी.

इसके अलावा, सेना बनी रहेगी, जबकि सरकारें बदलती रहेंगी. DPC द्वारा सैन्य कूटनीति के बढ़ते महत्व को स्वीकार तो करना ही चाहिए साथ ही कार्यान्वित भी किया जाना चाहिए.

चौथा, दुनिया भारत के साथ सैन्य संबंध स्थापित करना चाहती है. सशस्त्र बलों से परामर्श किए बिना ही कई निर्णय लिए जाते हैं, जिससे गलत संदेश जा सकता है. इसलिए, यह संस्था अंतर्राष्ट्रीय सैन्य सहयोग और समन्वय को दृढ़ करने के लिए एक आदर्श संस्था है.

पांचवां रक्षा तैयारियों को बढ़ाने के लिए धन की जरुरत है. प्रमुख मंत्रालयों के कार्यात्मक और निर्णय लेने के स्तर पर वरिष्ठ पदाधिकारियों के बीच संपर्क से सेना की क्षमता और विकास आवश्यकताओं के बारे में जागरूकता बढ़ेगी. इससे लंबे समय में सेना को पर्याप्त धनराशि जारी करने में भी सहायता मिलेगी.

सबसे महत्वपूर्ण और अंतिम बात यह है कि NSA, राष्ट्रीय सुरक्षा और सैन्य वृद्धि से संबंधित मामलों में पीएमओ की सीधी भागीदारी सुनिश्चित करेगा. अगर NSA, सेना में कमियों के तर्कों से आश्वस्त होता है, तो फिर वो पर्याप्त मात्रा में फंड दिलवा सकने में सक्षम होगा.

ये सिस्टम प्रभावी तौर तभी काम कर सकता है जब इसमें शामिल सभी लोग और समितियां समन्वय बनाकर काम करें. और एक प्लानिंग के तहत आगे बढ़ें. अगर यह एनएससी की ही तरह काम करेगा, जिनकी शायद ही बैठकें होती हैं, तो फिर सरकार द्वारा ये एक और बेकार कदम होगा. और अगर उद्देश्य NSA को एक अप्रत्यक्ष CDS बनाना है, तो इस संगठन को आने वाले सालों में समस्याओं का सामना करना पड़ेगा.

मौजूदा बजट से ये संकेत मिला है कि राष्ट्रीय सुरक्षा को काफी हद तक अनदेखा किया जाता रहा है क्योंकि इसके मंत्री एक बहुत ही कम जगह पर काम करते हैं. अगर ये संगठन उनको तोड़ सकता है और खतरे के यथार्थवादी आंकलन के आधार पर रक्षा तैयारियों को बढ़ाने के लिए काम करता है, तभी यह एक सार्थक अभ्यास होगा.

( DailyO से साभार )

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लेखक

हर्ष कक्कड़ हर्ष कक्कड़ @हर्ष कक्कड़

लेखक रिटायर्ड मेजर जनरल हैं..

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