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 |  सुशांत सरीन  |  5-मिनट में पढ़ें  |  
Updated: 19 मार्च, 2018 05:54 PM
सुशांत सरीन
सुशांत सरीन
  @sushant.sareen.5
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रक्षा के मुद्दे पर संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट परेशान करने वाली है. रिपोर्ट के अनुसार आर्मी के पास मौजूद हथियारों में लगभग 70 प्रतिशत 'विंटेज' यानि पुराने की श्रेणी में आ चुके हैं. सामान्यत: ये संख्या 33 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होनी चाहिए. जबकि 33 प्रतिशत आधुनिक हथियार होने चाहिए लेकिन ये आंकड़ा महज 8 प्रतिशत के आसपास ही है.

रिपोर्ट में आर्मी के प्रति सरकारों की बेरुखी का साफ जिक्र किया गया है. रिपोर्ट में ये खुलासा किया गया है कि कैसे पूर्ववर्ती सरकारों ने आर्मी के वित्त में लगातार कटौती की, जिससे न सिर्फ आर्मी के आधुनिकीकरण पर असर पड़ा बल्कि देश की रक्षा संबंधी तैयारियां भी प्रभावित हुई. हम तेजी से अब उस स्थिति की ओर बढ़ रहे हैं जहां दुश्मनों के खिलाफ हमले की बात तो भूल जाइए, दुश्मन के हमले पर जवाबी कार्रवाई में पसीने छूट जाएंगे. हालांकि पाकिस्तान से हम अभी भी आगे हैं लेकिन जब बात चीन की होती है तो हम लगातार पिछड़ते जा रहे हैं. सैन्य हथियारों की संख्या और गुणवत्ता दोनों ही क्षेत्र में.

निराशाजनक स्थिति

इनमें से किसी भी बात पर हमें आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए. पहले के सेना प्रमुखों ने सेवानिवृत्‍त होने से पहले प्रधान मंत्री को पत्र लिखकर सेना की कमजोरियों के बारे में भी जानकारी दी. हालांकि यह पत्र व्यवहार गुप्त होता है, लेकिन यदा-कदा ये लीक भी हो जाते हैं. उदाहरण के लिए 2012 में जनरल वीके सिंह ने अपने रिटायरमेंट से ठीक पहले तात्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को चिट्ठी लिखकर सेना की निराशाजनक स्थिति के बारे में बताया. पुरानी हो चुकी एयर डिफेंस, तोपों के लिए गोला बारुद की भारी कमी, पैदल जवानों की बुरी स्थिति और स्पेशल फोर्स के पास जरुरी सामानों की कमी के बारे में लिखा.

देश की सुरक्षा व्यवस्था की ये स्थिति कारगिल युद्ध के एक दशक बाद थी. तात्कालीन आर्मी चीफ जनरल वीपी मलिक का ये कहना कि- 'आर्मी के पास "जो कुछ भी था" वो उसी से लड़ी' बताता है कि देश की रक्षा के प्रति हमारे राजनीतिक और अफसरशाही की कितनी प्रतिबद्धता है. हालात अब भी जस के तस हैं. हर वित्त मंत्री एक ही रटा रटाया बयान देते हैं कि: "देश की सुरक्षा से कोई समझौता नहीं होगा और इसके लिए सेना को जिस किसी भी चीज की जरुरत होगी मुहैया कराई जाएगी. इसमें किसी तरह की कोई बाधा नहीं आएगी." जाहिर है, यह और कुछ नहीं बल्कि देश की सुरक्षा के लिए रक्षा बलों के पास संसाधनों की कमी है इस बात को स्वीकार किया जाना है.

army, governmentआर्मी के पूरे ढांचे में बदलाव की जरुरत है

बुनियादी बात ये है कि किसी युद्ध को रोकने के लिए तैयारी की जरुरत होती है, लेकिन ये तैयारी युद्ध शुरु होने के बाद नहीं बल्कि पहले होनी चाहिए. हालांकि भारत ने ये नियम बना लिया है कि जब शुटिंग मैच शुरु हो, तभी रसद पहुंचाना है. ऐसा सिर्फ कारगिल के समय ही नहीं हुआ बल्कि 2017 में जब पूर्वी और पश्चिमी दोनों ही सीमाओं पर तनाव भरा माहौल था. तो डोकलाम संकट के समय भी यही देखने के लिए मिला कि सेना ने इमरजेंसी में असलहे, गोला बारुद खरीदे.

लेकिन 1962, 1965 और कारगिल के अनुभव के बावजूद भी ऐसा प्रतीत होता है कि भारत के नीति निर्माता यह समझने में असमर्थ हैं कि युद्ध हमेशा नोटिस देकर होते. शायद, भारतीय रक्षा योजनाकार और नीतिकार सच्चाई से आंख मूंदने में भी भरोसा करते हैं.

दूरी मिट रही है-

नतीजा ये है कि पिछले एक दशक में जहां पाकिस्तान, भारत के साथ अपने रक्षा संसाधनों की खाई को कम कर रहा है. वहीं दूसरी तरफ चीन इस खाई को और गहरा कर रहा है. भारत में कई लोग, भारत की रक्षा तैयारियों के बारे में सवाल उठाए जाने पर नाराज हो जाते हैं. लेकिन चुप्पी से समाधान नहीं होने वाला. सेना जवानों का मनोबल चीन और पाकिस्तान के साथ हमारी रक्षा तैयारियों की खामियों के बारे में जानने से नहीं गिरता बल्कि इस कमियों को दूर नहीं करने की वजह से गिरता है. ऐसा लगता है मानो कि खुद आर्मी चीफ ने जून में जो घोषणा की थी कि "भारतीय सेना ढाई साल के युद्ध के लिए तैयार है" के अपने बयान से पीछे हट रहे हैं. अब उन्होंने भी कहना शुरु कर दिया है कि भारत को युद्ध के लिए तैयारी करनी होगी.

हालांकि तैयार होने और तैयारी करने में जमीन आसमान का अंतर है. जबकि पहला अनावश्यक रुप से भव्य है तो वहीं दूसरे अप्रत्याशित है. क्योंकि भारत के आसपास बन रहे रणनीतिक माहौल में दोतरफा युद्ध की स्थिति से इंकार नहीं किया जा सकता और इसके लिए भारत को तैयार रहने की जरुरत है.

राजनीतिक दलदल

लेकिन अपनी अंदरुनी लड़ाइयों को जीते बगैर भारत कभी भी किसी बाहरी हमले या युद्ध की चुनौती से मुकाबला करने में सक्षम नहीं होगा. रक्षा के क्षेत्र की सोई हुई नौकरशाही है जो काम करने के बजाए काम का ढोल बजाने में व्यस्त रहती है. वो राजनीतिक-नौकरशाही निर्णय लेने की प्रक्रिया में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं और लेकिन जब निर्णय होते हैं, तो या तो कार्यान्वित नहीं होता है या फिर सालों बाद लागू होता है. कभी कभी तो दशकों बाद. इस समय, रक्षा बलों में सुधार की सख्त जरुरत है. वो भी सिर्फ हर स्तर पर. फोर्स के ढांचे से लेकर उनके कार्य पद्धति, रणनीति हर चीज में.

हालांकि ​​दुनिया में कोई भी डिफेंस फोर्स जो कुछ भी चाहता है या उन्हें जरुरत है वो सब उन्हें नहीं मिल पाता. लेकिन शायद ही किसी सेना को इतने कमजोर नौकरशाही और राजनीतिक नेतृत्व का सामना करना पड़ता होगा जितना भारतीय सशस्त्र बलों को करना पड़ता है. इसलिए जब तक भारत अपने सशस्त्र बलों की स्थिति सुधार नहीं लेता उसे युद्ध से दूरी बनाकर ही रखनी चाहिए.

(DailyO से साभार)

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