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Updated: 15 मार्च, 2016 05:04 PM
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आरएसएस के गणवेश में बदलाव को आखिरकार मंजूरी मिल ही गई. नब्बे साल पुराने गणवेश को बदलने पर 16 साल से चर्चा तो चल ही रही थी - और अब जाकर आखिरी मुहर लग पाई है. आरएसएस महासचिव भैयाजी जोशी ने संघ को समय के साथ चलने वाला बताया है.

कब क्या बदला

बदलाव जीवन का हिस्सा है, भैयाजी कहते हैं कि ड्रेस कोड के नये कलेवर को भी इसी नजरिए से देखा जाना चाहिए.

संघ के आलोचक उसे गुजरते जमाने का बताते रहें हैं. धीरे धीरे ही सही पर संघ के गणवेश में कई बार बदलाव किया जा चुका है.

1. 1925 में जब संघ की स्थापना हुई तो गणवेश खाकी था - और 1939 तक ये पूरी तरह खाकी बना रहा.

2. 1940 में एक बदलाव ये हुआ कि खाकी कमीज को सफेद शर्ट से रिप्लेस कर दिया गया.

3. 1973 में जूते बदले गये. फौजियों जैसे बूट को बदलकर चमड़े के जूते पहने जाने लगे - बाद में इसमें और भी छूट मिली.

4. 2010 में बेल्ट को बदल कर चमड़े का कर दिया गया. पहले बेल्ट कैनवस की हुआ करती रही.

अरसे से आरएसएस का यूनिफॉर्म राजनीतिक विरोधियों के निशाने पर रहा है. आरजेडी की राष्ट्रीय परिषद में जब राबड़ी देवी संघ के निक्कर की चर्चा कर कर रही थीं तो लोग खूब ताली बजा रहे थे.

राबड़ी ने कहा, "आरएसएस कैसा संगठन है जहां बूढ़े लोग भी हाफ पैंट पहनकर आते हैं. लोगों के सामने इन्हें हाफ पैंट में आने में शर्म नहीं आती?" यही वजह है कि लालू प्रसाद भी आरएसएस के गणवेश में बदलाव का क्रेडिट ले रहे हैं. लालू का कहना है कि आरएसएस ने राबड़ी की टिप्पणी पर हाफ पैंट को फुल पैंट बना दिया.

हिंदू एजेंडा

गणवेश में बदलाव पर एनसीपी नेता तारिक अनवर की टिप्पणी थी, "अच्छे दिन केवल संघ के आए हैं, जो हाफ पैंट से पूरी पैंट तक पहुंच गए हैं." लेकिन खुद संघ के लिए अच्छे दिन का मतलब कुछ और ही है.

इस बार संघ की प्रतिनिधि सभा का सिंबल नगालैंड की रानी गायदीन लियू थीं. अगर रानी की नीतियों पर गौर करें तो वो एजेंडे की तस्वीर और साफ करता है.

ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लड़ाई लड़ने वाली रानी ने ईसाई धर्म में आदिवासियों के धर्मांतरण का भी विरोध किया था. चुनाव के हिसाब से फिलहाल बेहद अहम है. ये जता रहा है कि नॉर्थ ईस्ट इस वक्त संघ के एजेंडे में कितनी अहमियत रखता है.

धर्मांतरण और लव जिहाद जैसे मुद्दों पर जोर तो यही बता रहा है कि उसके एजेंडे को आगे बढ़ाने में बड़ी चुनौती यही साबित हो रहे हैं.

आरक्षण पर आजमाइश

संघ ये तो मान कर चल रहा है कि जातिवाद ही उसके हिंदू एजेंडे की राह में बड़ा रोड़ा है - और इसीलिए इस बार भी कार्यकर्ताओं से आने वाले दिनों में इसको लेकर मुहिम तेज करने को कहा गया है. बताते हैं कि संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कार्यकर्ताओं से जातिगत भेदभाव और इसे रोकने के उपायों पर प्रजेंटेशन तैयार करने को भी कहा है.

करीब साल भर पहले संघ ने हिंदुओं की एकता बनाए रखने के लिए नारा दिया था - एक कुआं, एक मंदिर और एक श्मशान. इतना ही नहीं पिछले ही महीने संघ की ओर से बुलाई गई एक मीटिंग में संतों और मठों के प्रमुखों को छुआछूत और जातिगत भेदभाव रोकने के उपाय करने को कहा गया.

यहां तक तो सब स्पष्ट है, लेकिन आरक्षण को लेकर संघ की ओर से रह रह कर जो तीर छोड़े जा रहे हैं - वे कई तरह के सवाल पैदा कर रहे हैं. बिहार चुनाव के वक्त मोहन भागवत ने कहा कि आरक्षण की समीक्षा होनी चाहिए. कुछ दिन बाद भागवत ने यू टर्न लेते हुए कहा कि आरक्षण तब तक जारी रहना चाहिए जब तक की हर तबके को बराबरी का दर्जा हासिल नहीं हो जाता.

अब फिर से संघ ने आरक्षण का मामला उछाल दिया है, वो भी तब जब पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव सिर पर हैं. इस बार संघ की ओर से समझाने की कोशिश की गई है कि जिन लोगों को आरक्षण की जरूरत नहीं उन्हें उसे छोड़ देना चाहिए. शायद वैसे ही जैसे लोग एलपीजी सब्सिडी छोड़ रहे हैं.

चुनावी माहौल में आरक्षण का मुद्दा उछाल कर क्या संघ बीजेपी को कोई लाइन दे रहा है या फिर ये भी उसके किसी हिडेन एजेंडे का हिस्सा है.

वैसे तो संघ हरदम विरोधियों के निशाने पर रहा है - बीजेपी के सत्ता से बाहर रहने पर उसे भगवा आतंकवाद जैसे इल्जाम झेलने पड़ते हैं तो उसके सत्ता में आने पर विचारधारा थोपने की तोहमत लगती है.

कोई आरएसएस की तुलना ISIS से करता है, तो कोई 'भारत माता की जय' न बोलने की बात कह चैलेंज करता है. असल चैलेंज ये नहीं, बल्कि ये है कि संघ की विचारधारा वाली पार्टी बीजेपी की सरकार वक्त की नजाकत को ठीक से समझ नहीं पा रही. रोहित वेमुला और कन्हैया का केस इसकी ताजा मिसाल हैं - ये संघ को खुद भी समझना होगा - और बीजेपी को भी समझाना होगा. रही बात विरोधी राजनीति की तो वो चलती रहेगी - और सियासत में सेहत दुरुस्त रखने में उसका बड़ा रोल होता है.

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