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Updated: 30 सितम्बर, 2021 09:03 PM
देवेश त्रिपाठी
देवेश त्रिपाठी
  @devesh.r.tripathi
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पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह (Capt Amarinder Singh) के खिलाफ खुलेआम मोर्चा खोलकर नवजोत सिंह सिद्धू (Navjot Singh Sidhu) उन्हें पद से हटाने में कामयाब तो हो गए. लेकिन, कांग्रेस आलाकमान ने मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नजर लगाए बैठे सिद्धू की जगह चरणजीत सिंह चन्नी को सीएम बना दिया. दरअसल, अमरिंदर सिंह के सीएम पद से हटने के बाद कांग्रेस के कई गुट मुख्यमंत्री बनने के लिए जोर-आजमाइश करने लगे. वहीं, चन्नी ने भी मुख्यमंत्री पद पर काबिज होने के साथ अपने फैसलों से साबित कर दिया कि वह नवजोत सिंह सिद्धू के इशारों पर नाचने को तैयार नही हैं. जिसके चलते चरणजीत सिंह चन्नी के मंत्रियों के शपथ लेने के दो दिन के अंदर ही नवजोत सिंह सिद्धू ने प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया. फैसला न लेने दिए जाने पर 'ईंट से ईंट खड़काने' की बात करने वाले नवजोत सिंह सिद्धू के इस्तीफे के बाद पार्टी की भरपूर किरकिरी हो रही है.

कहना गलत नहीं होगा कि इसकी जिम्मेदारी पूरी तरह से कांग्रेस आलाकमान की ही है. क्योंकि, कैप्टन अमरिंदर सिंह जैसे एक स्थापित मुख्यमंत्री के खिलाफ नवजोत सिंह सिद्धू को बढ़ावा देने में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी का ही हाथ रहा है. वो प्रियंका गांधी ही थीं, जो सिद्धू को लेकर राहुल गांधी के घर तक पहुंची थीं. यही एक वजह रही कि कांग्रेस आलाकमान यानी सोनिया गांधी ने अमरिंदर सिंह के प्रभाव को कम करने के लिए उनकी तमाम सलाहों को दरकिनार करते हुए पंजाब कांग्रेस की कमान नवजोत सिंह सिद्धू के हाथों में दी थी. वहीं, खबर है कि सिद्धू का इस्तीफा होने के बाद अब कांग्रेस आलाकमान उनका भी रिप्लेसमेंट खोजने में लग गया है. आसान शब्दों में कहें, तो कांग्रेस शीर्ष नेतृत्व एक और गलती की ओर कदम बढ़ा दिया है. इस स्थिति में सवाल उठना लाजिमी है कि कांग्रेस आलाकमान अपनी गलतिया मानना कब शुरू करेगा?

कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष ने साफ कर दिया था कि पार्टी अपनी विचारधारा से समझौता करने के मूड में नहीं है.कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष ने साफ कर दिया था कि पार्टी अपनी विचारधारा से समझौता करने के मूड में नहीं है.

अमरिंदर को हटाना जरूरी था, लेकिन अपमान का क्या?

राहुल गांधी ने कुछ महीने पहले कांग्रेस के सोशल मीडिया वॉलेंटियर्स से बातचीत में कहा था कि पार्टी में डरपोक लोगों के लिए जगह नहीं है. आरएसएस की विचारधारा वाले लोग कांग्रेस से चले जाएं. कुल मिलाकर राहुल गांधी ने अपने इस बयान से धारा 370, राम मंदिर, नरेंद्र मोदी के विरोध और हिंदुत्व, देशहित की बातों जैसे तमाम मामलों पर पार्टी से जुदा राय रखने वालों यानी करीब-करीब भाजपा के जैसी बातें करने वालों को पार्टी से बाहर जाने का रास्ता दिखाने की बात कही थी. आसान शब्दों में कहें, तो कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष ने साफ कर दिया था कि पार्टी अपनी विचारधारा से समझौता करने के मूड में नहीं है. लेकिन, क्या इसके लिए कैप्टन अमरिंदर सिंह सरीखे नेता का अपमान करना जरूरी था?

अगर कांग्रेस आलाकमान चाहता था कि अमरिंदर सिंह मुख्यमंत्री पद छोड़ें, तो विधानसभा चुनाव के बाद तक का इंतजार किया जा सकता था. चुनाव के नतीजे आने के बाद आसानी से नया 'कैप्टन' चुना जा सकता था. लेकिन, नवजोत सिंह सिद्धू को अप्रत्यक्ष रूप से बढ़ावा देकर राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ने अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार ली. अपमानित होकर कैप्टन अमरिंदर सिंह ने इस्तीफा तो दे दिया. लेकिन, साथ में ये भी जाहिर कर दिया है कि वो नवजोत सिंह सिद्धू (कांग्रेस) को जमीन पर लाने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं. ऐसा ही व्यवहार जी-23 के असंतुष्ट नेताओं को लेकर किया जा रहा है. उनकी नाराजगी को दूर करने के प्रयासों की जगह कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष उन्हें पार्टी से बाहर होने का रास्ता दिखा रहे हैं.

राहुल के कांग्रेस अध्यक्ष बनने में दिक्कत क्या है?

2019 के लोकसभा चुनाव में हार के बाद राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था. इसके बाद सोनिया गांधी से लेकर पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं (कुछ समय तक जी-23 नेता भी इसमें शामिल रहे) ने राहुल गांधी को मनाने की कोशिश की. लेकिन, वो अड़े रहे. कांग्रेस के अंतरिम अध्यक्ष की कुर्सी पर तब से सोनिया गांधी ही काबिज हैं. बीते साल कांग्रेस के असंतुष्ट वरिष्ठ नेताओं ने पार्टी नेतृत्व को लेकर गांधी परिवार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था. उसके बाद से लगातार कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव टाला जा रहा है. हालांकि, इस दौरान पार्टी से जुड़े सारे फैसले राहुल गांधी और प्रियंका गांधी ही कर रहे हैं और सोनिया गांधी केवल कहने भर को अंतरिम अध्यक्ष बनी हुई हैं.

वहीं, कांग्रेस सांसद राहुल लंबे समय से कह रहे हैं कि इस बार पार्टी अध्यक्ष गांधी परिवार से नहीं होगा. उनकी इस बात पर भरोसा कर लिया जाए, तो ये बात तय हो जाती है कि पद पर कोई भी बैठे, लेकिन फैसला राहुल गांधी ही करेंगे. जब राहुल गांधी सभी फैसले ले रहे हैं और आगे भी अप्रत्यक्ष रूप से लेते रहेंगे, तो वो इस जिम्मेदारी से क्यों भाग रहे हैं? वैसे, पंजाब में सिद्धू-कैप्टन को लेकर किए गए फैसले के बाद राहुल गांधी पंजाब जीत कर खुद को साबित करने की कोशिश करना चाह रहे थे. लेकिन, लगता नहीं है कि वो कामयाब हो पाएंगे.

गांधी परिवार और कांग्रेस

देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के केंद्र में हमेशा से ही गांधी परिवार रहा है. वहीं, राज्यों में भी गांधी परिवार से करीबी रखने वाले लोगों को ही बढ़ावा देने की वजह से हिमंता बिस्वा सरमा से लेकर सुष्मिता देव तक हर युवा नेता कांग्रेस को छोड़कर अन्य दलों के रास्तों पर बढ़ गए हैं. जिसका नतीजा सबके सामने है कि कांग्रेस अब कुछ राज्यों में ही सीमित हो चुकी है. सोनिया गांधी पुत्रमोह में कांग्रेस पार्टी को ही दांव पर लगाने को तैयार खड़ी दिखती हैं. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने महिला कांग्रेस अध्यक्ष सुष्मिता देव को तृणमूल कांग्रेस में शामिल किया. लेकिन, किसी तरह का प्रतिरोध दर्शाने की जगह शीर्ष नेतृत्व ने भवानीपुर उपचुनाव में पार्टी का प्रत्याशी नहीं उतारने का फैसला लिया. उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव ने कांग्रेस के साथ गठबंधन से इनकार कर दिया है. लेकिन, प्रियंका गांधी वाड्रा कोशिश कर रही हैं कि किसी तरह ये गठजोड़ बन जाए. आखिर कांग्रेस कड़े फैसले लेने से क्यों घबराती है.

सोनिया गांधी मिशन 2024 के तहत साझा विपक्ष बनाने की कोशिशों को लेकर की गई मीटिंग में कहती हुई दिखती हैं कि विपक्षी दलों की एकजुटता राष्ट्रहित की मांग है और कांग्रेस अपनी ओर से कोई कमी नहीं रखेगी. ये कहकर सोनिया गांधी एक तरह से राहुल गांधी के लिए विपक्षी दलों के नेतृत्व की कमान पाने का रास्ता साफ कर रही हैं. लेकिन, सोनिया गांधी ये भूल रही हैं कि इस वजह से राज्यों में कांग्रेस भी साफ हो रही है. और, अगर राहुल गांधी को ही कांग्रेस का कर्ता-धर्ता बनाना है, तो उसे क्षेत्रीय दलों के प्रभाव से मुक्त होना होगा. भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए जरूरी है कि कांग्रेस हर राज्य में अपनी क्षमता के अनुरूप अकेले चुनाव लड़े. क्षेत्रीय दलों के आगे झुकने से वो ही कमजोर होती है. अगर कांग्रेस ऐसा करने लगती है, तो लगातार दो बार से केंद्र की सत्ता से बाहर चल रही कांग्रेस को शॉर्ट टर्म में कुछ नुकसान हो सकता है. लेकिन, लॉन्ग टर्म में इसका फायदा उसे जरूर मिलेगा.

लेखक

देवेश त्रिपाठी देवेश त्रिपाठी @devesh.r.tripathi

लेखक इंडिया टुडे डिजिटल में पत्रकार हैं. राजनीतिक और समसामयिक मुद्दों पर लिखने का शौक है.

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