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Updated: 23 अगस्त, 2015 11:40 AM
शेखर गुप्ता
शेखर गुप्ता
  @shekharguptaofficial
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अब इस बात में बहुत संदेह नहीं हो सकता कि इंदिरा गांधी के बाद नरेंद्र मोदी हमारी सबसे ताकतवर राजनैतिक शख्सियत हैं. थोड़ा और गहराई में जाएं तो यह कह सकते हैं कि वे अब तक के सबसे दबंग और आवेगपूर्ण नेता हैं. मारग्रेट थैचर के संदर्भ में आवेगपूर्ण नेता की परिभाषा एक ऐसे नेता की थी जो अपनी ही धारणा से चलता है और आम राय से जिसे कोई लेना-देना नहीं होता.
 
इसके अलावा, मोदी हमारे सबसे अच्छे वक्ता भी हैं. आप संसद में उनके कम बोलने या सवालों के जवाब सीधे न देने को लेकर बेशक शिकायत कर सकते हैं, लेकिन एक ऐसे वातावरण में वे बेहद वाचाल हो जाते हैं जो उनके पूरे नियंत्रण में हो. एक बार जब वे अपने श्रोता चुन लेते हैं तो अपने भाषण से ऐसा समां बांधते हैं कि हमने आज तक इस देश में नहीं देखा. वाजपेयी महान वक्ता थे, लेकिन वे हमेशा ऐसे नहीं होते थे. उन्होंने कभी भी अपने विचारों या फिर विचारधारा का प्रचार करने के लिए किसी बड़े मंच का इस्तेमाल नहीं किया.

पिछले हफ्ते के दौरान मोदी ने ऐसे गुणों के प्रति हमें दो बार आश्वस्त किया हैः पहला स्वतंत्रता दिवस के संबोधन में और दूसरी बार दुबई के प्रवासी भारतीय समुदाय के बीच अपने भाषण में. दिल्ली के लाल किले से दिए उनके भाषण को जान-बूझकर ज्यादा तवज्जो नहीं दी गई. इसे सुनकर ऐसा लगा, जैसे कि लंबी दूरी तय करने वाला कोई चालक अपनी गाड़ी को संभालने की कोशिश कर रहा हो. इस बार कोई नया नुस्खा नहीं उछाला गया, तो शायद इसलिए क्योंकि पहले दिए गए नुस्खों, खासकर शौचालय, स्वच्छ भारत और मेक इन इंडिया के मामले में कोई खास प्रगति देखने को नहीं मिली है. इसके बावजूद उन्होंने ओआरओपी के मामले में कोई ऐलान करने की हड़बड़ी नहीं दिखाई, यह तथ्य अपने आप में उनकी तीक्ष्ण बुद्धि का संकेत है.

ताकतवर नेता घटनाओं के आधार पर अपनी नीतियां तय नहीं करते और आवेगपूर्ण नेता दूसरों की उम्मीदों के हिसाब से नहीं चलते. इसकी बजाए, वे आपको चौंकाते हैं. ओआरओपी पर चुप रहते हुए सामान्य और अनर्गल बातें करके मोदी ने ज्यादातर मीडिया को हैरत में डाल दिया, खासकर उन टीवी चैनलों को जिन्होंने उस दिन जंतर मंतर पर अपने कैमरे तान रखे थे. ताकतवर और आवेगपूर्ण नेता दूसरों को अपना मंच छीनने का मौका नहीं देते. अगर मोदी ने वास्तव में ओआरओपी पर कोई नाटकीय ऐलान कर दिया होता, अगर वाकई पूर्व फौजी उससे संतुष्ट हो जाते, तब स्वतंत्रता दिवस की सारी चमक मोदी से छिन जाती. वैसे भी, किसी बड़े मौके को किसी के शिकायत निबटारे का मंच बनाने का क्या मतलब है?

इसी तरह दुबई में, यह जानते हुए कि एक इस्लामीदेश की उनकी यह पहली यात्रा थी जिसके साथ भारत का रिश्ता अजीब रहा है-भारत के कर चोरों और तस्कर गिरोहों के लिए दुबई जन्नत रहा है और खासकर दाऊद इब्राहिम की तो यह कर्मभूमि ही रहा है-उन्होंने पूरे रौब-दाब और मजबूती से अपना संदेश लोगों तक पहुंचाया.

उन्होंने वहां आतंकवाद को पाकिस्तान के समर्थन पर कोई शिकायत नहीं की, उसके संरक्षकों यानी दुबई के शेखों से इस संबंध में कोई अपील नहीं की और न ही उन पर उनके तरीके बदलने का कोई दबाव जैसा डाला. बस एक महीन संदेश दे दियाः दक्षिण एशिया भी यूरोप की तरह एकजुट हो रहा है, पूरब के देश एक साथ आ रहे हैं, ऐसे में पाकिस्तान ने कोई अड़ंगा लगाया तो भारत उसकी परवाह किए बगैर छलांग मारकर यूएई तक पहुंच जाएगा. ऐसे में आप इस गोल में शामिल हों या फिर अलग-थलग पड़ जाएं. सरहद पर गोलीबारी जारी थी, फिर भी उन्होंने पाकिस्तान के बारे में एक शब्द नहीं कहा. आप देख सकते हैं कि वे किस तरह नया एजेंडा तय कर रहे हैं. वे पाकिस्तान के साथ बातचीत दोबारा शुरू करना चाहते हैं और उन्हें यह कतई मंजूर नहीं कि कोई दोस्त या दुश्मन इसमें टांग अड़ाए.

दुबई के उनके भाषण को दोबारा सुनें और इस बात पर ध्यान दें कि कितनी बार उन्होंने भीड़ से वहां के “क्राउन प्रिंस” की जय-जयकार करवाई. जरा सोचिए, क्या यह बात सामान्य मानी जा सकती है कि भारत का प्रधानमंत्री किसी विदेशी धरती पर रह रहे और काम कर रहे भारतीयों की भीड़ से वहां के शासक की जय जयकार करवाए? यह कोई संयोग नहीं था कि इस्लामी राज्य की प्रशंसा में नारे लगाने वाली अधिकांश भीड़ हिंदुओं की थी. यह बात अलग है कि दूरदर्शन के कैमरों और मोदी का छवि प्रबंधन करने वालों ने एक कोने में परंपरागत वेशभूषा में खड़े बोहरा मुसलमानों को बार-बार दिखाकर इस मौके को नष्ट कर डाला.

जहां तक मुझे याद पड़ता है, ऐसे दो मौके रहे हैं जब किसी भारतीय नेता ने भारतीय भीड़ का इस्तेमाल विदेशी नेता की सराहना में नारे लगवाने के लिए किया हो. पहली बार ऐसा तब हुआ था जब नेहरू 1955 में ख्रुश्चेव और बुल्गानिन को लेकर रामलीला मैदान में आए थे. दूसरी बार ऐसा तब दिखा जब नरसिंह राव ने लखनऊ के इमामबाड़े में 1994 में रफसंजानी का भाषण करवाया, जिस वक्त बाबरी जख्म हरे थे. दोनों घटनाओं के बीच हालांकि एक फर्क है. ख्रुश्चेव जब भारत आए थे तब नेहरू राज का समाजवादी चरण अपने चरम पर था, लिहाजा दोनों के बीच एक वैचारिक नजदीकी थी. रफसंजानी के लिए नारा लगाने वाली भीड़ में मुसलमान थे, या वे सब शिया मुसलमान थे. रफसंजानी ने अपने भाषण में जो कुछ कहा, वह मेरे ख्याल से हमारे इतिहास की सबसे चालाक कूटनीतिक कामयाबी थीः भारतीय मुसलमान भारत के धर्मनरिपेक्ष तंत्र में महफूज हैं. यह बात अपने आप में भारत और ईरान के विशिष्ट रिश्ते को रेखांकित करती है, बावजूद इसके कि वह रह-रहकर पाकिस्तान, प्रतिबंधों और ऐसे ही छिटपुट अवरोधों से प्रभावित होता रहा है.

मोदी के आलोचकों को शिकायत थी कि वे अब तक किसी इस्लामी देश की यात्रा पर नहीं गए हैं. मुस्लिम बहुल आबादी वाले देश, बांग्लादेश या मध्य एशियाई गणराज्यों की यात्रा तो ठीक है, लेकिन किसी असली इस्लामी देश में वे नहीं गए. वे इसी की तैयारी में लगे थे, लेकिन उन्हें ऐसा कर के कोई खानापूर्ति नहीं करनी थी. वे हर संभव एक रणनीतिक शुरुआत करना चाहते थे. भारत के सबसे ग्लानिहीन हिंदू प्रधानमंत्री के बतौर उन्होंने अपने चाहने वाले 50,000 और ज्यादातर हिंदुओं की भीड़ से विदेशी धरती पर एक मुस्लिम शासक की सराहना में जो नारे लगवाए, यही बात उनकी ताकत, कौशल और आवेग का सबूत है.

इन तमाम शानदार उपलब्धियों के बावजूद सवाल उठता है कि उनकी सरकार का प्रदर्शन इतना लचर क्यों है? गंगा साफ करने से लेकर स्वच्छ भारत और मेक इन इंडिया तक उनकी निर्विवाद और विशाल योजनाएं लडख़ड़ा क्यों रही हैं? कुछ मानकों को बदलकर जिस गणितीय कलाकारी और नकली तरीके से आंकड़ों को उछाला गया, आप उन्हें एकबारगी भूल जाएं तो सवाल उठता है कि आर्थिक वृद्धि में आखिर सुधार क्यों नहीं हो रहा? प्रधानमंत्री के दो स्क्वाड्रन राफेल विमानों की खरीद का तीव्र और तात्कालिक फैसला आखिर औपचारिकताओं में क्यों फंसा पड़ा है?  

आखिर गिरिराज सिंह, साक्षी महाराज और गजेंद्र चौहान जैसे कुछ खिसके हुए लोगों को वे सुर्खियां बटोरने की छूट क्यों दे रहे हैं? आखिर रातोरात एक अध्यादेश के रास्ते नया भूमि अधिग्रहण कानून लाने की रणनीतिक गलती वे कैसे कर बैठते हैं? याकूब मेमन की कवरेज पर कुछ समाचार चैनलों (जिसमें से कुछ तो हास्यास्पद थे) को नोटिस भेजने वाली इस सरकार के बारे में ऐसा क्यों लगता है कि उसने समाचार माध्यमों के खिलाफ कोई जंग छेड़ दी हो? सन समूह का मीडिया लाइसेंस रद्द करने के लिए उनका गृह मंत्रालय “राष्ट्रीय सुरक्षा” का हवाला क्यों दे रहा है? उनकी सीबीआइ ने तीस्ता सीतलवाड़ को “राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरे” में क्यों तब्दील कर डाला है, गोया वे दाऊद की कोई रिश्तेदार हों? उन्होंने अगर नापसंदगी के आधार पर एकाध को जेल भेज भी दिया या कुछ समय के लिए एकाध मीडिया संस्थानों को बंद भी करवा दिया, तब भी भावना के स्तर पर ये तमाम लड़ाइयां वे हार जाएंगे.

चतुर, आवेगपूर्ण, ताकतवर, आत्मविश्वास युक्त नेता जो अच्छे वक्ता भी हों, इतने छोटे-छोटे मसलों पर अपनी ऊर्जा और साख को नहीं गंवाते हैं.

क्या ऐसा हो सकता है कि इन तमाम गुणों के बावजूद उनके भीतर एक ऐसी कमजोरी भी है जो तमाम अन्य नेताओं में पाई जाती है जिसके चलते वे वास्तव में महान बनने से वंचित रह जाते हैः ऐसे लोगों को, ऐसी प्रतिभाओं को अपनी ओर आकर्षित करने की असमर्थता, अरुचि या फिर विनम्रता की कमी, जो उनकी राजनीति और विचारधारा के सहज दायरे से कहीं बाहर हों? या फिर ऐसे समझदार रीढय़ुक्त लोगों को अपने दायरे में ला पाने की अक्षमता जो सत्ता के सामने सच बोलने का साहस रखते हों? मसलन, कोई ऐसा शख्स जो उनसे कह सकता कि वह सूट अच्छा तो था, लेकिन उसे पहनने का विचार बुरा था.

कोई ऐसा, जो उनसे यह कह पाता कि मानसून सत्र में संसद का माहौल वास्तव में खीझ पैदा करने वाला था, फिर भी बेहतर होता यदि लोकसभा के नेता होने के नाते वे विपक्ष के उठाए मुद्दों का स्वतः संज्ञान लेकर उनका जवाब दे देते. हो सकता है कि वे इस पर राजी नहीं होते, लेकिन ऐसा न कर के उन्होंने प्रधानमंत्री के बतौर अपना इकबाल जरूर गंवा दिया. कोई ऐसा व्यक्ति उनके दायरे में होता जो उनके गृह और सूचना प्रसारण मंत्रालय को चेता सकता कि मीडिया की आजादी से छेड़छाड़ मत करो, क्योंकि वैसे भी सरकार और पार्टी को इस मामले में संदेह की नजर से ही देखा जाता है.

कोई न कोई ऐसा शख्स इस तंत्र में जरूर होना चाहिए था जो उन्हें बार-बार कहता कि रामविलास पासवान से बोलिए कि मैगी विवाद के मामले में नेस्ले पर क्लास ऐक्शन सूट (सारे मामलों की एक साथ सुनवाई) न दायर करें और चैन से रहें. आप एक ताकतवर और संप्रभु सरकार हैं, आप अपने गणराज्य के खाद्य सुरक्षा कानूनों के हिसाब से नेस्ले पर नियंत्रण रखते हैं, आपके पास प्रयोगशालाएं हैं, तो हर चीज का पहले परीक्षण करवा लीजिए और यदि आपको तब कुछ भी गलत या आपराधिक पता चलता है तो दंड दीजिए. लेकिन क्लास ऐक्शन सूट का क्या मतलब बनता है? यह तो ताकतवर होने की निशानी नहीं है, महज बेवकूफी है.

आप कह सकते हैं कि प्रधानमंत्री के पास वक्त कहां होता है. उसके पास इन चीजों के अलावा और तमाम गंभीर काम पड़े हुए हैं. अगर ऐसा है, तब इन मसलों पर आपकी सरकार लडख़ड़ा क्यों रही है? एक आदमी का फौजी रिसाला सुनने में तो बहुत शानदार जान पड़ता है, लेकिन अपने पीछे असली फौज खड़ी किए बगैर आप जंग नहीं जीत सकते.

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लेखक

शेखर गुप्ता शेखर गुप्ता @shekharguptaofficial

वरिष्ठ पत्रकार

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