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Updated: 24 मार्च, 2022 06:19 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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बीजेपी (BJP) नेतृत्व के मन में एक बात का मलाल रह गया था. 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में लाख जतन के बावजूद बीजेपी नंबर 1 पार्टी नहीं बन सकी थी. महज एक सीट ज्यादा पाकर विपक्षी आरजेडी ने बीजेपी को दूसरे स्थान पर पछाड़ दिया था.

बहरहाल, अब बीजेपी बिहार विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी बन गयी है - और ये मौका मिला है वीआईपी नेता मुकेश सहनी (Mukesh Sahni) की वजह से क्योंकि वीआईपी के तीनों विधायक बीजेपी में चले गये हैं. और इसके साथ ही बिहार विधानसभा में सहनी की विकासशील इंसान पार्टी का अस्तित्व भी खत्म हो चुका है.

बिहार चुनाव में लालू यादव और तेजस्वी यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल को सबसे ज्यादा 75 सीटें मिली थी, जबकि बीजेपी के 74 उम्मीदवार विधायक बने थे. वीआईपी विधायकों के पाला बदल लेने के बाद अब बीजेपी का नंबर 77 हो चुका है - नीतीश कुमार की जेडीयू तो 45 पर ही है.

2020 में मुकेश सहनी अपनी सीट से भी चुनाव हार गये थे, फिर भी गठबंधन सहयोगी वीआईपी का नेता होने के नाते नीतीश कुमार ने उनको मंत्री बनाया. गौर करने वाली बात ये रही कि मुकेश सहनी एनडीए में शामिल जरूर हुए थे, लेकिन सीटों के कोटे का बंटवारा वैसे ही हुआ था जैसे जीतनराम मांझी नीतीश कुमार के हिस्से में पड़े थे - और मुकेश सहनी बीजेपी के.

मंत्री बनने के छह महीने के भीतर किसी भी सदन का सदस्य होना जरूरी होता है, इसलिए मुकेश सहनी के विधान परिषद पहुंचने में भी बीजेपी ही मददगार बनी थी, लेकिन यूपी चुनाव में योगी आदित्यनाथ को चैलेंज करने और मल्लाहों से बीजेपी को वोट न देने की अपील के चलते बीजेपी ने मुकेश सहनी की तरफ से हाथ पीछे खींच लिया है - और अब तो बीजेपी नेता उनके नीतीश कैबिनेट से इस्तीफे की मांग करने लगे हैं.

देखा जाये तो मुकेश सहनी भी बिहार में राजनीति के उसी छोर पर खड़े नजर आ रहे हैं जहां चिराग पासवान (Chirag Paswan) पहले से पहुंचे हुए हैं. दोनों के लिए कॉमन बात ये है कि दोनों ही बीजेपी की राजनीति के शिकार हुए हैं - लेकिन दोनों के मामलों में बड़ा फर्क ये है कि एक बीजेपी को चुनावी मैदान में चैलेंज करके अपना ये हाल कर लिया है - और एक हद से ज्यादा सपोर्ट करके.

अर्श से फर्श तक का सफर

मुकेश सहनी बिहार चुनाव के बीच में ही महागठबंधन छोड़ कर एनडीए में शामिल हुए थे, लेकिन नीतीश कुमार के हिस्से में नहीं बल्कि बीजेपी के साथ. मुकेश सहनी तब भी मौजूद रहे जब महागठबंधन सीटों का बंटवारा हो रहा था - लेकिन अब उनको अपने फैसले पर पछतावा हो रहा है.

mukesh sahani, chirag paswanचिराग पासवान ने साथ दिया तो भी बीजेपी ने वैसा ही सलूक किया - और मुकेश सहनी ने चुनौती दी तो भी वैसा ही व्यवहार - आखिर ऐसा क्यों?

अब तो मुकेश सहनी कहने लगे हैं कि लालू प्रसाद यादव की बात न मानना उनकी सबसे बड़ी गलती थी. मुकेश सहनी का कहना है कि लालू यादव की बात मान लिये होते तो आज ये दिन नहीं देखने पड़ते. वीआईपी नेता का दावा है कि आरजेडी की तरह से महागठबंधन में उनको चार मंत्री और डिप्टी सीएम का ऑफर मिल रहा था जिसे वो ठुकरा दिये थे.

चुनावों के चक्कर में खेल खराब हुआ: 12 अप्रैल को बोचहां विधानसभा सीट पर उपचुनाव होना है. बोचहां से 2020 में वीआईपी के मुसाफिर पासवान विधायक बने थे - और उनके निधन की वजह से ही वहां उपचुनाव हो रहा है.

मुसाफिर पासवान के निधन के बाद बोचहां सीट पर हक तो मुकेश सहनी का ही बनता था, लेकिन यूपी चुनाव में मुकेश सहनी की भूमिका बीजेपी को पहले से ही खटक रही थी. तभी तो बोचहां सीट पर दोनों तरफ से उम्मीदवार उतारे गये हैं.

मुकेश सहनी ने बोचहां विधानसभा क्षेत्र से पूर्व मंत्री रमई राम की बेटी गीता कुमारी को वीआईपी का उम्मीदवार बनाया है, जबकि बेबी कुमारी बीजेपी के टिकट पर चुनाव मैदान में उतरी हैं.

बिहार चुनाव में गठबंधन के तहत बीजेपी ने मुकेश सहनी को अपने हिस्से की 11 सीटें दी थी, लेकिन ज्यादातर अपने ही उम्मीदवार उतारे थे. मुकेश सहनी को बीजेपी में इसलिए भी महत्व मिला क्योंकि वो महागठबंधन और तेजस्वी यादव का साथ छोड़ कर एनडीए में आये थे. महागठबंधन से किसी का भी टूटना बीजेपी के लिए फायदे का सौदा होता, वीआईपी नेता को उसी का फायदा मिला था.

लेकिन बीजेपी को मुकेश सहनी से कोई वैसा फायदा नहीं मिला जिसकी नेतृत्व को उम्मीद रही होगी. वीआईपी के टिकट पर जीतने वाले भी बीजेपी के ही उम्मीदवार रहे. बोचहां उपचुनाव में अपना उम्मीदवार उतारने के पीछे बीजेपी की एक दलील ये भी होगी.

बीजेपी ज्वाइन करने वाले विधायक कह रहे हैं कि पाला नहीं बदला है बल्कि घर वापसी की है. वीआईपी के मौजूदा तीनों विधायक राजू सिंह, स्वर्णा सिंह और मिश्रीलाल यादव बीजेपी में शामिल हो चुके हैं. और अब बीजेपी नेता मुकेश सहनी से इस्तीफे की मांग करने लगे हैं. बिहार बीजेपी अध्यक्ष संजय जायसवाल ने तीनों को पार्टी की सदस्यता दिलायी. दोनों डिप्टी सीएम तारकिशोर सिंह और रेणु देवी भी मौके पर मौजूद रहे.

मुकेश सहनी आग से खेल रहे थे और हाथ जला बैठे: बीजेपी की मुकेश साहनी से नाराजगी की शुरुआत यूपी चुनाव में उनके एक्टिव रोल से हुई - और फिर बिहार के एमएलसी चुनाव में तो जो कसर बाकी थी वो भी पूरी हो गयी.

सवाल ये है कि आखिर किस बूते मुकेश सहनी बीजेपी नेतृत्व को चैलेंज कर रहे थे. बीजेपी ने यूपी चुनाव को 'करो या मरो' जैसी स्थिति में लड़ा था और मुकेश सहनी उसके रास्ते में रोड़े खड़ा कर रहे थे.

अखबारों में विज्ञापन देकर बीजेपी के खिलाफ यूपी के मल्लाहों को भड़का रहे थे, जबकि बीजेपी ने यूपी चुनाव में निषाद पार्टी के साथ गठबंधन कर रखा था. मुकेश सहनी चुनाव प्रचार भी कर रहे थे और बीजेपी के बागियों को टिकट भी दिये थे.

यूपी चुनाव में तो मुकेश सहनी निषाद समुदाय के लोगों को ऐसे समझा रहे थे जैसे नीतीश कुमार की सरकार उनके समर्थन से ही चल रही हो - यहां तक कहते रहे कि उनके समर्थन वापस लेते ही बिहार में एनडीए की सरकार गिर पड़ेगी. बुरा तो नीतीश कुमार को भी लग रहा होगा, लेकिन मुकेश सहनी के बीजेपी के कोटे से होने की वजह से बोलते भी तो क्या बोलते.

मुकेश सहनी खुद को सन ऑफ मल्लाह के तौर पर प्रोजेक्ट करते रहे हैं. यूपी चुनाव में योगी आदित्यनाथ और नीतीश कुमार दोनों ही वीआईपी नेता के निशाने पर लगातार रहे. हालांकि, नीतीश कुमार के प्रति अब उनके तेवर नरम पड़ गये हैं.

यूपी चुनाव में मुकेश सहनी की आक्रामक सक्रियता के खिलाफ बिहार में बीजेपी नेताओं का गुस्सा बढ़ने लगा था और तभी से उनको एनडीए से निकालने की मांग होने लगी थी, लेकिन बीजेपी ने एक्शन तब लिया जब वो 24 सीटों पर हो रहे बिहार विधान परिषद चुनाव में 7 सीटों पर वीआईपी के उम्मीदवार उतार दिये.

सबने साथ छोड़ा: मुकेश सहनी और जीतनराम मांझी को अक्सर किसी मुद्दे को साथ साथ सपोर्ट करते देखा जाता रहा. पप्पू यादव की गिरफ्तारी के मामले में भी दोनों का एक ही स्टैंड रहा. हो सकता है दोनों एनडीए में आस पास या किसी एक ही मोड़ पर खुद को खड़े पाते हों, लेकिन अब ऐसा नहीं है.

जीतनराम मांझी ने मौके की नजाकत को समझते हुए हाथ खड़े कर दिये. पूरी तरह पल्ला झाड़ लिया. HAM प्रवक्ता दानिश रिजवान ने तो साफ तौर पर कह दिया है कि ये तो बीजेपी और वीआईपी का अंदरुनी मसला है और इससे NDA को कोई लेना-देना नहीं है.

मुकेश सहनी कौन हैं: बॉलीवुड की कमाई के दम पर ही मुकेश सहनी ने राजनीति में एंट्री ली. 2015 के विधानसभा चुनाव में मुकेश सहनी ने बीजेपी का प्रचार किया था, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. बाद में वो महागठबंधन के साथ हो गये.

मुकेश सहनी ने राजनीतिक का रुख तो 2013 में ही कर लिया था, लेकिन पांच साल बाद अपने राजनीतिक दल विकासशील इंसान पार्टी का 2018 में गठन किया. आठवीं पास मुकेश सहनी ने बॉलीवुड में बड़ा कारोबार जमा कर खासी कमाई की है. उनके ही दिये ब्योरे के मुताबिक मुकेश सहनी के पास 12 करोड़ की संपत्ति है.

बीजेपी को सिर्फ फायदे से मतलब है

2014 में जापान यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने निवेशकों से कहा था कि गुजराती होने के नाते व्यापार उनके खून में हैं. ये कुछ वैसे ही है जैसे अमेरिका को लेकर कहा जाता है कि पूरी दुनिया में उसे सिर्फ अपने बिजनेस से मतलब होता है.

अमित शाह जैसे मजबूत साथी और सहयोगी को पाने के बाद प्रधानमंत्री मोदी राजनीति में भी भी उसी हुनर का इस्तेमाल करते लगते हैं - मतलब, मौजूदा बीजेपी नेतृत्व को सिर्फ अपने फायदे से मतलब होता है.

बेशक मोदी-शाह की राजनीति में बीजेपी को फायदा दिलाने का सबसे बड़ा नुकसान कांग्रेस और गांधी परिवार को हुआ है, लेकिन पहले चिराग पासवान और अब मुकेश सहनी के केस बता रहे हैं कि बीजेपी नेतृत्व को राजनीति में भी बस अपने फायदे से मतलब रहता है.

मौसम विज्ञानी बनने की नाकाम कोशिश: बिहार के बूते लोक जनशक्ति बना कर जो राजनीति राम विलास पासवान ने दिल्ली में की, मुकेश सहनी वही काम पटना में शुरू किये - तौर तरीके भी मिलते जुलते लगते हैं.

रामविलास पासवान को लालू यादव राजनीति का मौसम विज्ञानी कहते रहे. अपनी इसी कला की बदौलत रामविलास पासवान केंद्र सरकार में बरसों तक मंत्री बने रहे. कभी फर्क इस बात से नहीं पड़ा कि सत्ता पर कौन सी पार्टी काबिज होती है.

मुकेश सहनी भी वैसे ही पैंतरा बदलते रहे हैं, जैसे पासवान बदलते रहे. जब राजनीति शुरू की तो पहले बीजेपी से चिपके, लेकिन जब लगा कि भविष्य आरजेडी के साथ बेहतर हो सकता है तो लालू यादव की शरण में पहुंच गये.

नीतीश कुमार के महागठबंधन छोड़ कर एनडीए में चले जाने के बाद भी वो आरजेडी के साथ बने रहे. तब तक जब तक कि सीटों का बंटवारा नहीं हो गया, लेकिन वोटिंग से कुछ ही दिन पहले एक झटके में पाला बदल कर बीजेपी के साथ हो गये.

ये तो लगता है कि मुकेश सहनी ने सही वक्त पर सही फैसला लिया था. तभी तो चुनाव हार कर भी मंत्री बने और बीजेपी की बदौलत विधान परिषद भी पहुंच गये - और फिर महत्वाकांक्षा इस कदर कुलाचें भरने लगी कि बीजेपी को ही चुनौती देने लगे - और फिर एक दिन बीजेपी ने अपना असली रंग दिखा ही दिया.

6 फीसदी वोट बैंक की राजनीति: मुकेश सहनी भी चिराग पासवान की तरह 6 फीसदी वोट बैंक की ही राजनीति करते हैं. बिहार में निषाद और पासवान वोट दोनों ही करीब करीब बराबर हैं - महज छह फीसदी आबादी.

देखा जाये तो मुकेश सहनी भी उतने ही वोट बैंक के भरोसे राजनीति शुरू किये जितने के बल पर रामविलास पासवान की खड़ी की गयी विरासत के सहारे चिराग पासवान राजनीति में खड़े रहने की कोशिश कर रहे हैं.

बीजेपी को बिहार में सबसे बड़ी पार्टी बनाने में चिराग पासवान से जो कसर बाकी रह गयी थी, मुकेश सहनी से उसे तीन विधायकों से हाथ धोकर पूरा कर दिया है. ये चिराग पासवान का सपोर्ट ही रहा जो बीजेपी ने नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू को काफी कम सीटों पर समेट दिया था. नीतीश कुमार और जेडीयू के तमाम नेताओं ने खुल कर ये बात कही भी और उसके बाद तो नीतीश कुमार, चिराग पासवान के पीछे ही पड़ गये.

परिस्थितियों ने ऐसे करवटें बदली कि बीजेपी ने एलजेपी को टूटने से तो बचा लिया, लेकिन चिराग पासवान कहीं के नहीं रहे. कैबिनेट की जिस कुर्सी के चिराग पासवान दावेदार रहे, उनके चाचा पशुपति कुमार पारस काबिज हो गये और चिराग को छोड़ कर बाकी सांसदों के नेता भी बन गये. स्पीकर ओम बिड़ला ने आनन फानन में पारस को नये नेता के रूप में मान्यता भी दे दी.

ध्यान से देखा जाये तो मुकेश सहनी भी चिराग पासवान की ही तरह बीजेपी की राजनीति के शिकार हुए हैं, लेकिन दोनों के कंट्रीब्यूशन में बहुत बड़ा फर्क भी है. चिराग पासवान ने बीजेपी की मदद करने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया था, जबकि मुकेश सहनी बीजेपी के नेताओं के बल पर ही चैलेंज कर रहे थे - ऐसे में जो हुआ वो तो होना ही था.

अब तो मुकेश सहनी खुद भी कहने लगे हैं, "मेरे साथ भी वही हुआ जो चिराग के साथ हुआ था." निश्चित रूप से चिराग पासवान भी मिलता जुलता ही सोच रहे होंगे. बीजेपी चाहे तो कह सकती है कि वो तो सबके साथ बराबरी से पेश आती है. उसके लिए छोटे बड़े का कोई भेदभाव भी नहीं है - शर्त बस ये है कि फायदा तो बीजेपी को ही होना चाहिये.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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