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Updated: 04 अप्रिल, 2019 07:02 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
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मायावती का एक ऐसा बयान आया है जो प्रधानमंत्री पद के लिए किसी घोषणा पत्र जैसा ही लगता है - इस मैनिफेस्टो में मायावती ने 'यूपी-मॉडल' का हवाला दिया है. ये यूपी मॉडल कुछ और नहीं बतौर मुख्यमंत्री उनके शासन में कामकाज का नमूना है. 2014 में नरेंद्र मोदी गुजरात मॉडल के साथ बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बन कर आम चुनाव में उतरे और कामयाब रहे.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चैलेंज करने वालों में अभी सबसे आगे तो राहुल गांधी खुद को ही रख कर चल रहे हैं. जब भी मौका मिलता है ममता बनर्जी भी दो-दो हाथ कर ही लेती हैं. वैसे एक दावेदार अरविंद केजरीवाल भी हैं, लेकिन इस मामले में अभी वो खुल कर सामने नहीं आ सके हैं - शायद इसलिए भी कि पहले वो एक पूर्ण राज्य का मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं.

मोदी से टकराने को तैयार हैं मायावती!

2017 के विधानसभा चुनावों के दौरान ही एक रैली में मायावती ने प्रधानमंत्री पद को लेकर अपनी दिलचस्पी जाहिर की थी. मायावती ने उस संयोग का स्पष्ट तौर पर उल्लेख किया था जब उन्हें प्रधानमंत्री बनना पड़ सकता है. गणित के प्रमेय की तरह मायावती ने उस स्थिति की कल्पना की जब उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठना पड़े तो उत्तराधिकारी कौन होगा? मायावती ने तब समझाया कि वो या तो कोई दलित होगा या मुस्लिम. उस वक्त मायावती ने ये भी बताया था कि उनके प्रधानमंत्री बनने की स्थिति में सतीश चंद्र मिश्रा को वो साथ इसलिए रखती हैं कि कोई कानूनी दिक्कत हो तो वो उनका बचाव कर सकें, न कि वो कभी उनके उत्तराधिकारी हो सकते हैं. यूपी विधानसभा चुनाव मायावती ने दलित-मुस्लिम वोटों के भरोसे लड़ा था.

जनवरी, 2019 में जब सपा-बसपा गठबंधन की घोषणा के वक्त प्रधानमंत्री पद को लेकर अखिलेश यादव से सवाल पूछा गया. अखिलेश यादव ने जवाब तो स्पष्ट नहीं दिया, लेकिन मायावती को मुस्कुराते लाइव देखा गया.

एक प्रेस कांफ्रेंस में मायावती ने कहा कि अगर उन्हें मौका मिला तो वो सबसे अच्छी सरकार दे सकती है. मायावती ने बताया, ‘‘मुझे बहुत अधिक अनुभव है. मैं इस तजुर्बे का इस्तेमाल केंद्र में और लोगों के कल्याण के लिए करूंगी.’’ यही मायावती का वो यूपी-मॉडल है जो प्रधानमंत्री मोदी के पांच साल पुराने गुजरात-मॉडल की तर्ज पर पेश किये जाने की कोशिश लगती है.

mayawatiयूपी मॉडल के बूते मायावती की दिल्ली पर दावेदारी

मायावती ने समझाया कि अगर केंद्र में उनको मौका मिला तो वो यूपी के तरीके को अपनाएंगी - और हर हिसाब से सबसे बढ़िया सरकार देने की पूरी कोशिश करेंगी. जेडीएस के प्रभावी नेता रहे दानिश अली अब कर्नाटक में बीएसपी को मजबूत करने में जुट गये हैं.

बहुत पहले से चल रही है मायावती की तैयारी

मायावती ने सिर्फ यूपी ही नहीं बल्कि मध्य प्रदेश और उत्तराखंड में भी समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन किया हुआ है. छत्तीसगढ़ में तो बीएसपी का अजीत जोगी की पार्टी है गठबंधन है ही, राजस्थान में भी मायावती ने लोक सभा के लिए उम्मीदवार खड़े किये हैं. हरियाणा में मायावती ने मुहुर्त से काफी पहले राखी बंधवाकर आईएनएलडी से गठबंधन किया, लेकिन चुनाव के वक्त राजकुमार सैनी की लोकतंत्र सुरक्षा पार्टी से गठबंधन कर लिया और उम्मीदवारों की लिस्ट भी जारी कर चुकी हैं. साथ ही दक्षिण के राज्यों में भी मायावती का पूरा फोकस नजर आ रहा है.

कर्नाटक विधानसभा चुनाव में तो मायावती ने जेडीएस के साथ मिल कर चुनाव लड़ा ही, अब तो कुमारस्वामी की सहमति से दानिश अली को बीएसपी में ले लिया है. जेडीएस के प्रभावी नेता रहे दानिश अली अब कर्नाटक में बीएसपी को मजबूत करने में जुट गये हैं.

आंध्र प्रदेश में इस बार मायावती लोक सभा और विधानसभा दोनों ही चुनाव लड़ रही हैं. मायावती ने पवन कल्याण की पार्टी जन सेना से गठबंधन किया है. बीएसपी आंध्र प्रदेश की 25 लोक सभा सीटों में से तीन और विधानसभा की 175 में से 21 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. अपनी दावेदारी के साथ साथ मायावती गठबंधन के साथियों की भी हौसलाअफजाई कर रही हैं. आंध्र प्रदेश में मायावती को उम्मीद है कि बीएसपी-जन सेना गठबंधन की जीत होगी और पवन कल्याण मुख्यमंत्री बनेंगे.

ताबड़तोड़ रैलियां कर रहीं मायावती का कहना है कि लोग बदलाव चाहते हैं और उनकी ताजातरीन सक्रियता की यही वजह लगती है - लेकिन प्रधानमंत्री पद पर दावेदारी का क्या आधार है?

मायावती की PM की कुर्सी पर दावेदारी कितनी मजबूत?

2014 के आम चुनाव में बीएसपी को लोक सभा की तो एक भी सीट नहीं मिली लेकिन एक उपलब्धि जरूर मायावती के नाम रही - वोट शेयर के मामले में तीसरा स्थान हासिल करने की. 2014 में बीजेपी का वोट शेयर 31.0 फीसदी, कांग्रेस का 19.31 फीसदी और बीएसपी का 4.14 फीसदी रहा. यूपी में मायावती इस बार 38 लोक सभा सीटों पर लड़ रही हैं - दो सीटें कांग्रेस के नाम पर छोड़ी गयी हैं जबकि 37 अखिलेश यादव और तीन अजीत सिंह की पार्टी के हिस्से में गयी हैं.

सवाल ये है कि मायावती की प्रधानमंत्री पर दावेदारी का आधार क्या है? क्या ये दावेदारी चर्चा में एक और नाम बढ़ाने जैसा ही है या वाकई ऐसे हालात बन सकते हैं जब मायावती सरकार बनायें और कोई बड़ी पार्टी उन्हें सपोर्ट कर दे?

मायावती सार्वजनिक तौर पर विपक्षी जमावड़े में अब तक दो बार ही नजर आयी हैं. एक कर्नाटक में जब जेडीएस नेता एचडी कुमारस्वामी मुख्यमंत्री पद की शपथ ले रहे थे - और उससे पहले दिल्ली में सोनिया गांधी की दावत में. बाद में ऐसे कई मौके आये जब मायावती की मौजूदगी की अपेक्षा रही. पटना में लालू प्रसाद की रैली में, कोलकाता में ममता बनर्जी की रैली में और दिल्ली में अरविंद केजरीवाल की रैली में - मायावती ने ऐसे सारे आयोजनों से दूरी बना ली थी.

मायावती द्वारा ये दूरी मेंटेन करने को भी प्रधानमंत्री पद पर उनकी दावेदारी से ही जोड़ कर देखा गया था. मायावती सिर्फ बीजेपी को ही नहीं ललकार रही हैं, बल्कि कदम कदम पर ये मैसेज देने की कोशिश कर रही हैं कि कांग्रेस को भी वो अपने से उतनी ही दूर रख कर चल रही हैं. मायावती ने सपा-बसपा गठबंधन से तो कांग्रेस को दूर रखा ही, कांग्रेस ने जब दो के बदले गठबंधन के बड़े नेताओं के लिए सात सीटें छोड़ने की बात कही तो सख्त लहजे में रिएक्ट भी किया. मायावती ने साफ तौर पर कह दिया कि कांग्रेस के साथ उसका किसी भी राज्य में किसी तरीके का चुनावी समझौता नहीं होने जा रहा है. हालांकि, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा उनके मामले में सम्मानजनक तरीके से पेश आ रहे हैं. यूपी कांग्रेस के नेताओं को भी हिदायत है कि मायावती और अखिलेश यादव के मामले में पूरा संयम बरतें.

बीजेपी और कांग्रेस से ज्यादा फिक्रमंद तो मायावती भीम आर्मी से लग रही हैं. वो तो चंद्रशेखर रावण आजाद के अस्तित्व को ही खारिज करने पर तुली हैं. क्या चंद्रशेखर को मिलते दलित सपोर्ट से मायावती चिंतित हैं. सुनने में तो ये भी आया था कि प्रियंका वाड्रा और चंद्रशेखर की मुलाकात से मायावती इतनी खफा हुई थीं कि अमेठी और रायबरेली से भी गठबंधन का उम्मीदवार खड़ा करने पर आमादा थीं. वो तो जैसे तैसे अखिलेश यादव उन्हें मनाने में कामयाब हो सके.

राहुल गांधी ने एक सवाल के जवाब में कहा था कि मायावती या ममता बनर्जी के पीएम बनने से उन्हें कोई ऐतराज नहीं है. ऐसी ही बातें शरद पवार और एचडी देवगौड़ा ने भी कही थी जो मायावती के पक्ष में जाती हैं - मगर, ये तब की बातें हैं जब मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान विधानसभा के चुनावों के नतीजे नहीं आये थे. कांग्रेस की जीत और सरकारें बन जाने के बाद तो राहुल गांधी अपनेआप ऊपर उठ गये और विपक्षी खेमे के नेता भी संकोच महसूस करने लगे.

मायावती खुद को 'दलित की बेटी' कहते हुए राजनीति करती आ रही हैं - और यही कह कर प्रतिकूल परिस्थितियों में सहानुभूति भी जुटा लेती हैं - लगता है प्रधानमंत्री की कुर्सी की ओर भी वो इसी छवि के साथ आगे बढ़ने की कोशिश कर रही हैं. मायावती के लिए केंद्र में तभी ऐसी कोई स्थिति बन सकती है जब चुनाव बाद बीजेपी या कांग्रेस कोई भी खुद सरकार बनाने की स्थिति में न हो - और एक दूसरे को रोकने के मकसद से दोनों में से कोई भी किसी तीसरे को सपोर्ट करने का फैसला करने को मजबूर हो.

तो क्या मायावती किसी दूरगामी सोच के तहत कांग्रेस से दूरी बनाकर चल रही हैं. अगर ऐसी कोई नौबत आती की सरकार न बना पाने की स्थिति में कांग्रेस को रोकने के लिए बीजेपी मायावती को सपोर्ट कर दे - या बीजेपी को रोकने के लिए कांग्रेस ऐसा कदम उठाये? हालांकि, तब मायावती के सामने ये चुनौती भी होगी कि वो ममता बनर्जी या शरद पवार या एन. चंद्रबाबू नायडू के बीच खुद को कैसे भारी भरकम साबित करती हैं?

गठबंधन की घोषणा के वक्त अखिलेश के जवाब पर मायावती खुशी की हंसी रोक नहीं पायी थीं. बगैर चुनाव लड़े मायावती 'गुजरात-मॉडल' की तर्ज पर अपने उस 'यूपी-मॉडल' पर को प्रोजेक्ट कर रही हैं जो जिसे 2017 में उत्तर प्रदेश की जनता ठुकरा चुकी है.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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