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Updated: 12 मार्च, 2022 04:39 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
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गुजरात में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी रोड शो कर रहे थे, अहमदाबाद के कर्णावती में RSS प्रमुख मोहन भागवत प्रतिनिधि सभा की बैठक का उद्घाटन कर रहे थे. ये दोनों ही इवेंट अभी अभी खत्म हुए यूपी चुनाव और करीब आठ महीने बाद होने जा रहे गुजरात चुनाव की कड़ी बने हैं.

जैसे रोड शो कर के मोदी ने यूपी (UP Election 2022) सहित विधानसभा चुनावों में जीत के जश्न के साथ गुजरात विधानसभा चुनावों के लिए कैंपेन का आगाज किया है, संघ (RSS) प्रमुख भी यूपी चुनाव की समीक्षा और गुजरात चुनाव की तैयारियों की रणनीति तैयार कराने वाले हैं.

ये भी संयोग ही है कि जब देश में अगला आम चुनाव हो रहा होगा, आरएसएस भी अपनी स्थापना का शताब्दी वर्ष मना रहा होगा. मौके के तैयारी भी ऐसी लगती है कि संघ का विस्तार कार्यक्रम अगले चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी की जीत में फिर से मददगार बने.

शताब्दी वर्ष में आरएसएस ने अपनी शाखाओं की संख्या एक लाख तक पहुंचाने का लक्ष्य रखा है. फिलहाल ये तादाद करीब 55 हजार है. कोशिश ये होगी कि ग्राम पंचायत स्तर तक संघ की शाखाओं का विस्तार किया जा सके - ताकि देश में हिंदुओं की आस्था के प्रतीक अयोध्या, काशी और मथुरा सहित बाकी धार्मिक स्थलों अपना संदेश हर जगह पहुंचायी जा सके.

चुनावी जीत का पूरा क्रेडिट प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को दी जा रही है. निश्चित रूप से मोदी-योगी जीत का श्रेय दिये जाने के हकदार भी हैं, लेकिन ये भी नहीं भूलना चाहिये कि संघ के प्रचारक कैसे जमीनी स्तर पर लोगों को बीजेपी को वोट देने के लिए तरह तरह से समझाने की कोशिश कर रहे थे - हां, ये जरूर है कि जिस तरीके से मोदी-योगी ने यूपी में बीजेपी को जीत दिलायी है, RSS का काम काफी आसान हो गया है.

मोदी-योगी और संघ की तैयारियां

यूपी चुनाव में बीजेपी को राष्ट्रवाद के नाम पर वोट मांगते देखा गया. जब संघ और बीजेपी नेतृत्व ने तय कर लिया कि चुनावों में राष्ट्रवाद पर फोकस होकर नैरेटिव तैयार करना है, फिर दोनों ही अपने अपने तरीके से मिशन में जुट गये - ध्यान इस बात पर दिया जाता कि लोग दोनों के अलग अलग कैंपेन को एक जैसा या घालमेल न समझ लें. इसके लिए संघ की तरफ से पूरी सावधानी बरती जाती थी.

narendra modi, mohan bhagwatसंघ को मोदी-योगी की जोड़ी मिल गयी अपना एजेंडा लागू करने के लिए

कैंपेन के दौरान संघ की तरफ से लोक जागरण मंच, जागरुक मतदाता मंच के कार्यक्रम तो जारी रहे ही, राष्ट्रीय विचार परिषद के बैनर तले अलग अलग शहरों में नौजवानों और महिलाओं के लिए संगोष्ठी का आयोजन भी किया जाता रहा - खास बात ये रही कि ऐसे सभी कार्यक्रमों में मंच पर न तो बीजेपी नेताओं को और न ही उम्मीदवारों को बुलाया जाता था. किसी के मन में कोई सवाल न उठे इसलिए कोई ऐसा बैनर पोस्टर भी नहीं लगाया जाता जिससे लोगों को शक हो कि ये बीजेपी के लिए चुनाव प्रयार चल रहा है - इस दौरान उन विधानसभाओं पर ज्यादा जोर हुआ करता जहां एक तिहाई से अधिक आबादी मुस्लिम समुदाय की होती.

ऐसे सभी कैंपेन के दौरान लोगों को पर्चे भी बांटे जाते थे और बगैर किसी का नाम लिये, लोगों से अपील की जाती कि वे इस बार 'वोट राष्ट्रवाद के नाम' पर जरूर दें. बीजेपी के कैंपेन में भी राष्ट्रवाद के नाम पर ही लोगों से वोट देने की अपील की जाती रही - और लोगों को ये बात ठीक से समझ में आ जाये, इसके लिए अमित शाह तो सीधे सीधे बोल देते कि वे बीजेपी के नेता, विधायक, मंत्री या मुख्यमंत्री को भी नहीं - वोट सिर्फ प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे पर दें.

जो पर्चे बांटे जा रहे थे उसमें 25 मुद्दों की एक फेहरिस्त थी - और लोगों से कहा जाता कि जो ये चीजें सुनिश्चित करे, वे उसे ही वोट दें. समझने वाले तो समझ ही जाते थे कि किसकी बात हो रही है.

1. लोगों से अपील की जाती रही कि वे वोट उसी पार्टी को दें जो अपराधियों को जेल में डालने और धर्मांतरण के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करती हो.

2. जिस राजनीतिक दल ने काशी विश्वनाथ धाम परिसर का निर्माण कराया हो, अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए लड़ाई लड़ी हो उसे वोट दें.

3. जिसने राष्ट्र और राष्ट्रीयता के साथ साथ महापुरुषों के सम्मान की रक्षा सुनिश्चित की हो.

4. जो पार्टी महिलाओं की सुरक्षा का ख्याल रखे और उनके लिए सुरक्षित माहौल सुनिश्चित करती हो, जरूर वोट दें.

5. जम्मू-कश्मीर से धारा 370 और हटाने वालों को तो राष्ट्रवाद के नाम पर वोट देना बनता ही है.

संघ का एजेंडा और यूपी के नतीजे

देखा जाये तो यूपी चुनाव के नतीजों ने आरएसएस के हिंदुत्व का एजेंडा लागू करने की राह में आने वाली अड़चनों को बहुत हद तक खत्म भी कर दिया है. जातीय राजनीति की वजह से संघ के लिए हिंदुओं के एकजुट रखना सबसे बड़ी चुनौती साबित हो रही थी.

वोटों के ध्रुवीकरण की कवायद भी इसीलिए शुरू की गयी कि मुस्लिम समुदाय में बीजेपी के विरोध के विरुद्ध हिंदू वोटर एकजुट होकर सपोर्ट करे. होता ये रहा है कि जातीय राजनीति करने वाली पार्टियों की वजह से वोट अलग अलग बंट जाते रहे और बीजेपी को नुकसान हो जाता है.

लव जिहाद जैसे मुद्दों के जरिये योगी आदित्यनाथ जैसे नेता अपनी राजनीति तो चमका लेते रहे, लेकिन कनवर्जन की समस्या से संघ को अलग से जूझना पड़ता है. कनवर्जन को काउंटर करने के लिए ही संघ को घर वापसी जैसे कार्यक्रम चलाने पड़ते हैं. यूपी चुनाव के समानांतर भी संघ के कार्यक्रमों में घर वापसी पर जोर दिये जाने के पीछे यही खास वजह रही.

यूपी चुनाव के नतीजे बताते हैं कि समाजवादी पार्टी का तो वोट शेयर बढ़ा है, लेकिन बीएसपी के वोट शेयर में काफी कमी दर्ज की गयी है. समाजवादी पार्टी के वोट शेयर बढ़ने में भी जातीय वोटों के बजाय मुस्लिम वोटों की भूमिका ज्यादा समझी जा रही है - और इसका सीधा असर ये हुआ है कि सारे हिंदू वोट एकजुट होकर बीजेपी की झोली में आ गये हैं.

चुनाव नतीजे देखें तो उत्तर प्रदेश में बीएसपी का वोट शेयर सीधे 10 फीसदी घट गया है. 2012 में बीएसपी का वोट शेयर जहां 22 फीसदी रहा, 2022 में वो 12 फीसदी रह गया है. हो सकता है बीएसपी के कुछ वोट अखिलेश यादव की पार्टी को मिले हों, लेकिन वोट शेयर में जो इजाफा दर्ज हुआ है वो तो मुस्लिम वोट के कारण ही है. समाजवादी पार्टी का वोट शेयर 2017 के मुकाबले 10 फीसदी बढ़ा हुआ है. 2017 में सपा का वोट शेयर 22 फीसदी था जो अब करीब 32 फीसदी हो गया है.

बीएसपी के दलित वोट छिटक कर कहीं समाजवादी पार्टी की तरफ शिफ्ट न हो जाये, इसीलिए अमित शाह ने मायावती के चुनावी राजनीति में प्रासंगिक बने रहने की बात कही थी. हालांकि, ये कोशिश मुस्लिम वोटों को डिवाइड करने के मकसद से भी की गयी थी.

मायावती के वोट शेयर गिरने का हाल ये हुआ है कि बीएसपी का महज एक उम्मीदवार ही चुनाव जीत पाया है. कांग्रेस के भी दो ही उम्मीदवार चुनाव जीते और उसका वोट शेयर भी 2017 के 6.3 फीसदी के मुकाबले 2.3 फीसदी रह गया है.

आरएसएस बरसों से अलग अलग तरीके से कोशिश करता रहा है कि सारे हिंदू 'एक कुआं, एक मंदिर और एक श्मशान' को फॉलो करते हुए जातिवाद को भूल कर हिंदू की राह चलने की कोशिश करे, लेकिन सारी कोशिशें नाकाम रह जाती हैं.

2015 में संघ की प्रतिनिधि सभा में ये मुद्दा चर्चा में सबसे ऊपर रखा गया था. नागपुर में आयोजित इस बैठक में तय किया गया था कि हिंदुओं के बीच मौजूद जातिगत मतभेद को खत्म करने के हर संभव उपाय किये जायें.

अब तक संघ के लिए हमेशा ही ये चुनौती बनी हुई थी. ये तो नहीं कह सकते कि यूपी चुनाव के बाद ये बहुत जल्दी खत्म हो जाएगा, लेकिन ये तो मान ही सकते हैं कि यूपी चुनाव ने संघ की ये राह काफी आसान कर दी है.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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