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Updated: 12 मार्च, 2022 12:40 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
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बीजेपी चुनावी मशीन है - ये बात कार्यकर्ता न भूल जायें, याद दिलाने का काम भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) ने अपने हाथ में ले रखा है. ये सोच कर ही विधानसभा चुनावों में जीत की अगली ही सुबह वो अहमदाबाद पहुंचते ही. एयरपोर्ट से ही रोड शो शुरू कर देते हैं - ताकि बीजेपी कार्यकर्ताओं में जीत का जोश बरकरार रहे और अगले टारगेट की तैयारी में कोई कसर बाकी न रहे.

बाद में भी जा सकते थे. अभी तो जश्न के तमाम मौके हैं. चार राज्यों में अलग अलग बीजेपी के मुख्यमंत्रियों को शपथ लेना है. हर शपथग्रहण अलग ही उत्सव होगा. हां, यूपी की बात अलग है. फिर भी ऐसी ताबड़तोड़ तैयारी की खास वजह तो होगी ही.

यूपी (UP Election 2022) की जीत योगी आदित्यनाथ के हवाले करके प्रधानमंत्री मोदी ने दिल्ली में बधाई दी और जश्न मनाने गुजरात पहुंच गये. ये तो पहले ही बता दिया था कि बीजेपी की होली तो हफ्ता भर पहले ही शुरू हो चुकी है - फिर भी डर तो इस बात का भी होगा कि कहीं होली की मस्ती में कार्यकर्ता मकसद न भूल जायें.

साल के आखिर में गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभाओं के लिए चुनाव होने हैं. गुजरात भी तो बीजेपी के लिए यूपी जैसा ही है - और वो भी तो बनारस की ही तरह प्रधानमंत्री की प्रतिष्ठा जुड़ा हुआ है. मिशन 2024 की कामयाबी के लिए भी तो जरूरी है कि सारे चेक पोस्ट पर चाक चौबंद जरूरी इंतजाम हों.

कितना फर्क देखने को मिलता है. जो जीता है वो एक टारगेट पूरा होते ही दूसरे मिशन की तैयारी में लग जाता है - और जो हार गया है उसे जरा भी फिक्र नहीं, ऐसा क्यों लगता है? या फिर जीत का अहसास और हार की आशंका भी पहले से ही हो जाती है.

मोदी-शाह की तैयारियों को देख कर तो ऐसा लगता है, जीत से जिम्मेदारी का अनुभव होता है. और हार? हार तो पहली बार ही कचोटती है. बाद में तो जैसे आदत ही पड़ जाती है. ऐसी बातें तो राहुल गांधी (Rahul Gandhi) और प्रियंका गांधी वाड्रा को G-23 नेता कपिल सिब्बल भी सुना सुना कर थक चुके हैं.

चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर हैं कि समझा रहे हैं कि 2024 की लड़ाई अलग से होने वाली है. राज्यों के नतीजों से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला. सही बात है, लेकिन लड़ाई तो लड़ कर ही जीती जाती है - और वो भी लगातार लड़कर. जैसे कोई गुरिल्ला युद्ध हो.

देखा जाये तो, जो राजनीतिक हालात हैं, गुजरात के लिए बीजेपी चाहे तो बड़े आराम से रह सकती है, लेकिन ऐसा करके वो विपक्ष को शिकस्त दे सकती है - नेस्तनाबूद नहीं कर सकती. अफसोस की बात तो ये है कि लोकतंत्र को मजबूत बनाये रखने वाला विपक्ष की हार के बाद भी चेतना वापस नहीं आ रही है.

जैसे बनारस, वैसे गुजरात

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अहमदाबाद रोड शो का मकसद भी वही है, जो यूपी चुनाव के आखिरी दौर में बनारस वाले का रहा - चुनाव में बीजेपी की जीत सुनिश्चित करना. बेशक बीजेपी ने यूपी में जीत का रिकॉर्ड बनाया हो, लेकिन अंतिम घड़ी में तो मोदी के वाराणसी संसदीय क्षेत्र की कई सीटों के फंसे होने की आशंका जतायी जाने लगी थी.

बनारस में जब मोदी बने 'नीलकंठ' नीलकंठ शिव को कहते हैं. समुद्र मंथन के बाद विष पी लेने से कंठ नीला पड़ गया था. शिव की नगरी बनारस की शहर दक्षिणी सीट पर नीलकंठ तिवारी का वीडियो माफीनाफा भी जब फेल लगने लगा तो संघ के लिए भी उम्मीद की किरण मोदी की तरफ ही दिखायी दी. कर भी क्या सकते थे. हालत तो विष पीने जैसी ही हुई होगी. सारे किये कराये पर एक नकारा विधायक पानी जो फेर रहा था. निकल पड़े गलियों में रोड शो करते हुए.

narendra modi, rahul gandhiगुजरात चुनाव को लेकर कांग्रेस की तत्परता देख कर तो नहीं लगता कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने बीजेपी को चैलेंज कर पाएंगे!

वैसे भी वाराणसी दक्षिणी सीट के रुझान देखें तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का अनुमान बिलकुल सही लगता है. ये ठीक है कि बीजेपी उम्मीदवार नीलकंठ तिवारी के सिर ही आखिरकार जीत का सेहरा बंधा, लेकिन दिन भर जो आगे-पीछे होते रहे - कई बार तो बीजेपी नेताओं की धड़कनें भी बढ़ा दे रहा था. अंत भला तो सब भला - मोदी की कृपा बरसी और नीलकंठ तिवारी 10 हजार से ज्यादा वोटों से समाजवादी पार्टी के किशन दीक्षित को हरा पाये.

जो हाल इस बार रहा, 2017 में भी यूपी चुनाव के आखिरी दौर में भी महसूस किया गया - और फिर गुजरात चुनाव में भी. आखिरकार, अमित शाह को कोई चारा न देख प्रधानमंत्री मोदी को ही मोर्चे पर उतारना पड़ा. गुजरात चुनाव 2022 में फिर से वैसा ही हाल न हो जाये, इसलिए अमित शाह ने पहले से ही मोदी का रोड शो कराना शुरू कर दिया है.

पुष्कर धामी की हार का असर तो होगा ही यूपी के साथ साथ गुजरात की कुछ चीजें उत्तराखंड से भी कनेक्ट हो रही हैं. असल में, गुजरात में भी बीजेपी ने उत्तराखंड की ही तरह मुख्यमंत्री बदला है. भूपेंद्र पटेल को तो जब बनाया गया तभी अस्थाई इंतजाम मान लिया गया था. चुनाव बाद अगले मुख्यमंत्री के रूप में तो पहले से ही मनसुख मंडाविया के नाम की चर्चा होने लगी थी.

उत्तराखंड में बीजेपी की जीत में चौंकाने वाली बात रही कि मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी चुनाव हार गये. निश्चित तौर पर इस वाकये ने बीजेपी की फिक्र तो बढ़ाई ही होगी. होने को तो 2017 में हिमाचल प्रदेश में मिलता जुलता ही अनुभव रहा, जब बीजेपी के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार प्रेम कुमार धूमल अपनी सीट से चुनाव हार गये थे.

गुजरात भी तो बनारस जैसा ही है, मोदी की प्रतिष्ठा से जो जुड़ा हुआ मामला है - फिर भला मोदी औरों के भरोसे क्यों छोड़े जब आखिरी वक्त पर खुद ही मोर्चा संभालना पड़ता हो. बनारस की धरती से ही मोदी ने ओपनिंग की थी - और फिनिशर भी खुद मोदी ही बने. गुजरात में भी लक्षण कुछ कुछ वैसे ही नजर आ रहे हैं. अभी तो ऐसा ही लगता है.

अब तो लगता है बीजेपी ने यूपी की नयी जीत के साथ राजनीतिक इरादा भी बदल लिया है. अब बीजेपी नेतृत्व की जीत की भूख जल्द शांत होती नहीं लग रही है. हो भी कैसे चारा जो विपक्ष ही मुहैया करा रहा है. तभी तो मोदी-शाह महज विपक्ष पर जीत दर्ज करने से संतुष्ट नहीं लगते - ऐसा लगता है जैसे विपक्ष को पूरी तरह खत्म करने का ही मन बना लिया हो.

ये विपक्ष मुक्त गुजरात की मुहिम है

पंजाब का चुनाव जीतने के 24 घंटे के भीतर ही अरविंद केजरीवाल ने प्रधानमंत्री मोदी पर जोरदार हमला बोला है. दिल्ली में एमसीडी चुनाव कराये जाने को लेकर चुनाव आयोग के बहाने मोदी सरकार पर देश की संस्थाओं को नष्ट करने का आरोप लगाया है.

मोदी सरकार पर ऐसे इल्जाम अब तक राहुल गांधी या सोनिया गांधी तरफ से ही लगाये जाते रहे हैं, लेकिन गांधी परिवार तो लगता है जैसे मैदान ही छोड़ चुका हो. जैसे पहले से ही मान लिया हो कि जो होना था हो चुका, आगे तो कुछ होने से रहा. कम से कम अखिलेश यादव समाजवादी कार्यकर्ताओं को ईवीएम पर नजर रखने के लिए तो बोल ही रहे थे, लेकिन राहुल गांधी और प्रियंका गांधी तो गजब ही ढाने लगे थे.

जैसे पहले ही हार स्वीकार कर ली हो: प्रियंका गांधी वाड्रा का चुनाव नतीजों से एक दिन पहले आया बयान देख कर तो यही लगता है जैसे यूपी में कांग्रेस ने पहले ही हार मान ली हो. जो बातें चुनाव नतीजे आने के बाद की जाती हैं, प्रियंका गांधी वाड्रा ने सांत्वना पत्र पहले ही ट्विटर पर जारी कर दिया.

9 मार्च को रात दस बजे के करीब जारी बयान में प्रियंका गांधी वाड्रा कह रही हैं, 'आपकी ताकत और दृढ़ता से इन चुनावों में हमारा अभियान सकारात्मक एवं प्रदेश की तरक्की का रास्ता बताने वाला रहा... कांग्रेस पार्टी के प्रयासों ने इस चुनाव में मुद्दा आधारित राजनीति को आगे बढ़ाया... लोकतंत्र जिस तरह आपको ये जिम्मेदारी देता है कि आप जनता के मुद्दों को उठायें...'

ऐसी बातें भला चुनाव नतीजे आने से पहले की जाती हैं. मान लेते हैं कि प्रियंका गांधी वाड्रा के पास अपने स्रोतों से फीडबैक मिला होगा. ये भी मान लेते हैं कि प्रियंका गांधी की आशंका एग्जिट पोल से और भी मजबूत हुई होगी - लेकिन क्या किसी नेता को अपने कार्यकर्ताओं को पहले से ही ऐसी बातें समझानी चाहिये?

आखिर प्रियंका गांधी कांग्रेस कार्यकर्ताओं को क्या मैसेज देने की कोशिश कर रही थीं? कम से कम नतीजे आने तक तो संयम बरता ही जा सकता था. वैसे तो कांग्रेस की चुनावी बैठकों के बीच से भी ऐसी खबरें आती रहीं कि उम्मीदवारों को टिकट देते वक्त भी प्रियंका गांधी मान कर चलती रहीं कि वे तो जीतने से रहे.

सीटों की बात अलग है, लेकिन चुनाव कैंपेन में नये नये आइडिया से प्रियंका गांधी भी फील्ड में वैसे ही नजर आ रही थीं, जैसे अखिलेश यादव टक्कर देते माने जा रहे थे. बीजेपी नेता जरूर कहते रहे कि कांग्रेस 2017 की तरह 7 सीटें भी जीत ले वही बड़ी बात होगी. कांग्रेस ने यूपी चुनाव में दो सीटें जीती है.

नतीजों से पहले मस्ती में डूबे राहुल गांधी: राहुल गांधी ने भी नतीजों से पहले वायनाड का कार्यक्रम बना रखा था - और यूथ कांग्रेस चीफ श्रीनिवास बीवी ने मस्तीभरे अंदाज में राहुल गांधी की एक तस्वीर भी ट्विटर पर शेयर की थी, जिसमें वो आइसक्रीम खा रहे थे. कांग्रेस की तरफ से 9 मार्च को ही एक वीडियो शेयर किया गया है जिसमें राहुल गांधी बैडमिंटन खेल रहे हैं

फिर तो जीत का जज्बा आने से रहा: ये जो हाल है, उम्मीद भी क्या की जा सकती है. ये हाल तो पूरे विपक्ष का है. मायावती की भूमिका को बिहार के चिराग पासवान जैसा पहले से ही देखा जा रहा था. मायावती ने तो कम से कम बचे खुचे वोट बैंक को नतीजों के बाद आश्वस्त किया है कि फिर से वापसी करेंगे, लेकिन कांग्रेस नेतृत्व को तो जैसे फिक्र ही नहीं लगती.

एक तरफ मोदी-शाह हैं कि महीनों के थकाऊ चुनाव कैंपेन के बाद नये मिशन पर निकल जाते हैं, दूसरी तरफ जिनको चैलेंज करना है वे मस्ती में डूबे हुए हैं. अब तो लगता है राघव चड्ढा गलत नहीं कह रहे थे कि आम आदमी पार्टी कांग्रेस को रिप्लेस करने जा रही है - वैसे अरविंद केजरीवाल ने मोदी सरकार पर संस्थाओं को बर्बाद करने का आरोप लगा कर साफ कर दिया है कि आने वाले दिनों में क्या होने वाला है?

आखिर राहुल गांधी गुजरात में कांग्रेस कार्यकर्ताओं को क्या सोच कर मोटिवेशनल स्पीच दे रहे थे, "लड़ाई खत्म होने से पहले हार कभी नहीं माननी चाहिये. 10 दिसंबर से पहले कोई भी कांग्रेस का नेता या कार्यकर्ता हार नहीं मानेगा."

फिर 10 मार्च से पहले ही राहुल गांधी ने भी और प्रियंका गांधी ने भी - यूपी चुनाव में हार क्यों मान ली? मान लेते हैं पंजाबी बहू तौर पर खुद को प्रोजक्ट करने के बावजूद प्रियंका गांधी बतौर यूपी प्रभारी बयान जारी करती हैं - लेकिन राहुल गांधी को भी क्या पंजाब के नतीजों की भनक लग चुकी थी.

अगर ऐसी बात है तो जब नवजोत सिंह सिद्धू को पंजाब कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया था तभी राहुल गांधी को ये मान लेना चाहिये था. जब चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री पद के लिए चेहरा घोषित किया था तब भी मान लेना चाहिये था. कम से कम कैप्टन अमरिंदर सिंह से सोनिया गांधी को 'सॉरी' बोलने की नौबत लाने से पहले भी ये समझ लेना चाहिये था.

फरवरी के आखिर में गुजरात में आयोजित कांग्रेस के चिंतन शिविर में राहुल गांधी ने कहा था, गुजरात हमें सिखाता है कि एक तरफ सत्ता हो, सीबीआई हो, ईडी हो... कौरव हों, कुछ फर्क नहीं पड़ता. सच्चाई बड़ी साधारण होती है.

और फिर कह दिये कि ये सब माया है. राहुल गांधी कह रहे थे, सीबीआई, ईडी, पुलिस, गुंडे, हर रोज कोई न कोई कपड़ा! गुजरात हमें सिखाता है... दोहराते हैं, एक तरफ सत्ता... फर्क नहीं पड़ता... और फिर ठहाकों के बीच यूं ही बता डालते हैं - "सब माया है!"

अपने भाषण में राहुल गांधी ने ये भी कहा था, "ये चुनाव आप जीत गये हो, बस अब इस बात को स्वीकार करना है."

राहुल गांधी के लिए ये सब मान लेना सहज और स्वाभाविक भी हो सकता है, लेकिन कार्यकर्ताओं लिए? और वो भी तब जब गुजरात कांग्रेस के कार्यकर्ता अमित शाह को विपक्ष को कच्चा चबा डालने जैसी रणनीति तैयार करते देख रहे हों - और मोदी को 24x7 चुनाव प्रचार करते. यूपी चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी 193 विधानसभाओं से कनेक्ट हुए थे जिनमें 12 वर्चुअल रैलियां थीं और 32 मौके पर पहुंच कर किये थे. राहुल गांधी तो बस एक बार अमेठी को छू कर लौट आये थे - लेकिन प्रशांत किशोर मालूम नहीं कौन से नैरेटिव की बात कर रहे हैं.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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