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Updated: 04 अक्टूबर, 2018 05:57 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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मायावती की राजनीति को भी समझना डॉन को पकड़ने जैसा ही होता है - मुश्किल ही नहीं काफी हद तक नामुमकिन भी. बात पते की अब भी यही है कि ताजा बयान देकर भी मायावती ने सस्पेंस बरकरार रखा है. मायावती को जो कहना था कह दिया, समझने वाले अपने अपने हिसाब से समझते रहें. मायावती अच्छी तरह जानती हैं कि 2019 से पहले ये बेहतरीन मौका है - खुद को तौलने का. हर जोर-आजमाइश की पैमाइश का. कौन कितना भाव लगा सकता है जानने का. किससे हाथ मिलाने से कितनी हिस्सेदारी मिलेगी ये अंदाजा लगाने का.

मायावती को तो बस एक नाम चाहिये था. दिग्विजय की जगह किसी दूसरे नेता ने मायावती को लेकर कुछ कहा होता तो वहीं बीजेपी का एजेंट बताया जाता. मायावती की मौजूदा सियासत का आलम ये है कि वो खुद को सीधे चुनावी मैदान में आजमा रही हैं - और सारे ऑप्शन पूरी तरह खोल रखे हैं.

बसपा-कांग्रेस गठबंधन जो बना ही नहीं

जो गठबंधन बना ही नहीं, उसके टूटने की चर्चा होने का क्या मतलब है? क्या मायावती ने कभी खुल कर कहा था कि कांग्रेस के साथ बीएसपी का गठबंधन हो गया है? क्या कांग्रेस की ओर से किसी औपचारिक तौर पर इस बात की कोई घोषणा हुई थी?

अब भी मायावती ने तो सिर्फ इतना ही कहा है कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी के इमानदार प्रयासों के बावजूद दिग्विजय सिंह जैसे नेता नहीं चाहते कि कांग्रेस-बीएसपी गठबंधन हो.

mayawatiऐसा तो कहा नहीं - अभी नहीं तो कभी नहींऍ

ये तो यही बता रहा है कि कांग्रेस और मायावती के बीच कोई गठबंधन नहीं, बल्कि एक डील चल रही थी. उसी डील को लेकर मोलभाव का दौर चल रहा था - और उसमें मायावती ने नया अपडेट दिया है कि अब तक ऐसा कुछ नहीं हो सका है. पहले भी गठबंधन के सवालों पर मायावती कहती रहीं कि सम्मानजनक सीटें मिलने पर ही गठबंधन संभव होगा. अब कह रही हैं कि दिग्विजय सिंह जैसे नेता रोड़ा डाल रहे हैं. अरे भई दिग्विजय सिंह तो खुद हाशिये पर हैं. एक एक करके उन्हें सारी जिम्मेदारियों से मुक्त कर दिया गया है. दिग्विजय सिंह ने इतना ही तो कहा था कि मायावती सीबीआई के डर से गठबंधन में शामिल नहीं हो रही हैं. ऐसा कौन है जिसके लिए दिग्विजय सिंह के पास ऐसे बयान पहले से तैयार नहीं होते. यकीन न हो तो दिग्विजय सिंह का ट्विटर टाइमलाइन देख लीजिए.

गठबंधन तो वो होता है जैसे बिहार में बना था - महागठबंधन. ऐसे देखें तो यूपी चुनाव से पहले नीतीश कुमार भी तमाम कोशिशें की थीं और आखिर में पटना में खूंटा गाड़ कर बैठ गये. महागठबंधन तोड़ कर नीतीश कुमार हट गये, लेकिन आरजेडी और कांग्रेस के बीच अब भी वो गठबंधन कायम है. क्या ऐसा कुछ मायावती, कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच कभी हुआ था? बिलकुल नहीं.

समझने वाली बात एक ये भी है कि दिग्विजय सिंह के बयान पर अखिलेश यादव ने मायावती का सपोर्ट किया है - 'बीएसपी अकेली ऐसी पार्टी है जो किसी से नहीं डरती'. अखिलेश यादव का कहना रहा, "...कल अगर मैं किसी पार्टी के साथ गठबंधन में शामिल न होऊं तो मुझ पर भी ऐसे आरोप लगेंगे... ये सही नहीं है."

मायावती के लिए बीजेपी से गठबंधन में क्या बुराई है?

फिलहाल ध्यान देनेवाली बात ये है कि मायावती कांग्रेस और बीजेपी दोनों पर हमलावर हैं. अभी ये मान लेना कि अब कांग्रेस के साथ गठबंधन तो होने से रहा - बिलकुल ठीक नहीं होगा.

कांग्रेस और बीजेपी के साथ बराबर दूरी बनाकर मायावती कोई बड़ा संकेत भी दे रही हैं. आखिर ऐसा क्या है कि मायावती का सिर्फ कांग्रेस के साथ ही गठबंधन संभव है? बीजेपी के साथ क्यों नहीं? बस यूपी पर आंच नहीं आनी चाहिये या केंद्र में कोई बड़ी भूमिका मिल जाये.

वैसे भी दलितों के मुद्दे पर तो बीजेपी इस कदर परेशान है कि कुछ भी कर गुजरने को तैयार है. फिर मायावती का साथ मिल जाये तो 2019 को लेकर जो थोड़ी बहुत आशंका है - खत्म हो जाएगी.

कैसा हो अगर मायावती और बीजेपी में गठबंधन हो जाये? मायावती के लिए तो कांग्रेस से ज्यादा फायदेमंद बीजेपी ही साबित हो सकती है. कांग्रेस में फायदा तो तभी है जब मायावती को प्रधानमंत्री बनाया जाये या फिर यूपी के सीएम की कुर्सी उनके पास रहे.

बीजेपी में प्रधानमंत्री पद तो नामुमकिन है, लेकिन बदले में बीजेपी मायावती को अच्छे दिन तो दे ही सकती है. सत्ता में भागीदारी के साथ साथ अगर 'पिंजरे का तोता' भी खामोश रहे तो उसकी कोई कीमत नहीं होती क्या? दिग्विजय सिंह भी तो इसी स्पॉट पर चोट कर रहे हैं.

विधानसभा चुनाव में 2019 चुनाव गठबंधन की तैयारी

2019 के हिसाब से देखें तो मायावती अगर अभी सब कुछ बटोरने में कामयाब नहीं हो पातीं तो आगे मुश्किल है. 2019 में तो बस ठोक बजा कर रिस्क ही उठाने जैसा होगा. तब आजमाने जैसी कोई बात तो होने से रही.

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दरअसल, तीन राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के चुनाव मायावती को बीएसपी के लिए सही ग्राउंट रिपोर्ट और फीडबैक लेने का मौका मुहैया करा रहे हैं. जो एक्सपेरिमेंट मायावती ने कर्नाटक चुनाव में किये उसे ही तीनों विधानसभा चुनावों में दोहराने जा रही हैं. चुनाव नतीजों से मायावती को ये फैसला लेने में सुविधा होगी कि गठबंधन के लिए स्थानीय दल ठीक हैं या कोई राष्ट्रीय पार्टी?

फिलहाल, तीन राज्यों में कांग्रेस से गठबंधन न कर मायावती न तो कांग्रेस से किसी तरह का नाता तोड़ रही हैं, न ही बीजेपी के साथ भविष्य के किसी संभावित साथ के दरवाजे पर ताला लगा रही हैं. मायावती ने यही रवैया यूपी विधानसभा चुनाव में भी अपनाया था. हो सकता है यूपी को लेकर अलग रणनीति रही हो.

देखा जाये तो मायावती के दोनों एक्सपेरिमेंट बेहद सफल रहे हैं. एक यूपी के उपचुनावों में और दूसरा कर्नाटक विधानसभा चुनाव में. यूपी उपचुनावों में मायावती ने साबित कर दिया है कि वो अपना वोट बैंक किसी को भी ट्रांसफर कर सकती हैं, लेकिन दूसरा अगर ऐसा नहीं कर पाता तो उसे किसी और तरीके से कीमत चुकानी पड़ेगी. कर्नाटक में मायावती ने जेडीएस के साथ हाथ मिलाया और विधानसभा की एक सीट के साथ कर्नाटक कैबिनेट में भी उनकी भागीदारी है. समाजवादी पार्टी के साथ गोरखपुर और फूलपुर होते हुए राज्य सभा और विधान परिषद चुनाव तक का बीएसपी ने जो सफर तय किया है - वो निर्बाध गति से चालू है.

गठबंधन को लेकर मायावती के ताजा बयान में ऐसी तो कोई बात नहीं कही गयी है कि 2019 में भी गठबंधन नहीं होने वाला. - और सबसे ज्यादा गौर करने वाली बात यही है. मायावती ने गठबंधन का ऑप्शन पूरी तरह खुला रखा है - क्योंकि राजनीति में यही होता है. वैसे बंद ऑप्शन को भी खुला समझना कोई गलती नहीं है.

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#मायावती, #कांग्रेस, #गठबंधन, Mayawati, BSP Congress Alliance, Digvijay Singh

लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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