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Updated: 15 मई, 2021 03:58 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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मुख्यमंत्री ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) ने भी पश्चिम बंगाल के लोगों से वैसे ही वोट मांगे थे, जैसे 2019 के चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने - और जैसे देश के लोगों ने नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के नेतृत्व वाली बीजेपी और एनडीए गठबंधन को 2014 के मुकाबले ज्यादा सीटें दे दी, ठीक वैसे ही पश्चिम बंगाल के लोगों ने भी ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस की झोली में 2016 की सीटों के साथ साथ शगुन के तौर पर दो विधायक एक्स्ट्रा भी तोहफे में दे डाले.

ममता बनर्जी को 2016 की 211 सीटों की जगह इस बार 213 सीटें मिली हैं, जबकि दो सीटों पर चुनाव होने बाकी हैं - और अगर बीजेपी के दो सांसद अपनी विधानसभा सीटों से इस्तीफा दे दें तो अब तक चार सीटें खाली समझिये. अब अगर मान्यता के मुताबिक उपचुनावों के नतीजे सत्ताधारी दल के पक्ष में जाते हैं तो तृणमूल कांग्रेस की सीटें 217 तक पहुंच सकती हैं.

अब जैसी अपेक्षा देश के लोगों को मोदी सरकार से होनी चाहिये, बिलकुल वैसी ही पश्चिम बंगाल के लोगों को ममता बनर्जी सरकार से अपेक्षा रखने का हक है - लेकिन अब तक ऐसा देखने को नहीं मिला है कि किसी भी मुद्दे पर राजनीतिक टकराव न हो. छोटी छोटी चीजें हैं जिनको जनहित में बीजेपी और तृणमूल कांग्रेस दोनों ही पार्टियां चाहें तो कुछ देर के लिए किनारे रख कर लोगों की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए मिल जुल कर काम करने के बारे में सोच रही हों.

ऐसा लगता है जैसे केंद्र की मोदी सरकार और राज्यपाल जगदीप धनखड़ (Jagdeep Dhankhar) के साथ साथ मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी अपना ज्यादातर वक्त और ऊर्जा ऐसी ही चीजों पर जाया कर रही हैं - जबकि बंगाल के लोगों ने बड़ी ही उम्मीद भरी नजरों से भारी बहुमत के साथ तृणमूल कांग्रेस को सत्ता सौंपी है.

बीजेपी नेतृत्व को भी बंगाल के लोगों की भावनाओं और उनके हक का सम्मान करते हुए राज्य सरकार के साथ मिल कर समस्याओं को सुलझाने की कोशिश करनी चाहिये - क्योंकि अगर ममता बनर्जी को सरकार चलाने और बीजेपी को जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका निभाने वाला फैसला सुनाने के बाद भी वे अपने हक से वंचित रहते हैं तो इसे बगैर किसी शक शुबहे के जनादेश का अपमान ही समझा जाएगा.

सियासी टकराव बना बंगाल के लोगों की मुसीबत

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश के जिलाधिकारियों से बातचीत करने वाले हैं जिन जिलों में कोविड-19 महामारी का सबसे ज्यादा असर देखने को मिला है - और ऐसी बातचीत की शुरुआत जिन जिलों से हो रही है, उन राज्यों में पश्चिम बंगाल भी शामिल है.

ममता बनर्जी को प्रधानमंत्री मोदी का जिलाधिकारियों से बात करना अच्छा नहीं लग रहा है. सुनने में आया है कि ममता बनर्जी को लगता है कि सीधे डीएम से प्रधानमंत्री का बातचीत करना राज्यों के अधिकारों में दखल है. वैसे प्रधानमंत्री मोदी पहले भी अलग अलग मुद्दों पर जिलाधिकारियों के साथ बातचीत कर चुके हैं.

प्रधानमंत्री मोदी इससे पहले कोविड कंट्रोल के तरीकों पर बातचीत के लिए मुख्यमंत्रियों के साथ मीटिंग कर चुके हैं - और पिछली दो बैठकों में से किसी में भी ममता बनर्जी शामिल नहीं हुईं, बल्कि, पश्चिम बंगाल के चीफ सेक्रेट्री ने ही मुख्यमंत्री का प्रतिनिधित्व किया.

mamata banerjee, jagdeep dhankharममता बनर्जी खुद तय कर लें तो अकेले दम पर भी काफी हद तक टकराव टाल सकती हैं - और बंगाल के लोगों के मन में ये सोच आने से रोक सकती हैं कि उनका जनादेश जाया नहीं होने वाला

प्रधानमंत्री मोदी शुरू में 20 मई को 10 राज्यों के 54 जिलों के जिलाधिकारियों के साथ बात करेंगे जिनमें पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, पुडुचेरी, राजस्थान, महाराष्ट्र, झारखंड, ओडिशा, केरल और हरियाणा के जिलाधिकारी शामिल होंगे. प्रधानमंत्री के साथ बैठक में पश्चिम बंगाल के 9 जिलाधिकारियों को शामिल किया जाना है.

पश्चिम बंगाल में चुनाव नतीजों के बाद हुई हिंसा को लेकर बीजेपी नेतृत्व काफी आक्रामक रवैया दिखाया है. केंद्रीय गृह मंत्रालय ने राज्य के चीफ सेक्रेट्री से हिंसा पर रिपोर्ट तो तलब की ही, एक केंद्रीय टीम जांच के लिए भी पश्चिम बंगाल गयी थी.

ममता बनर्जी और केंद्र सरकार के बीच टकराव का एक मुद्दा बीजेपी विधायकों को सुरक्षा दिया जाना है. केंद्रीय टीम की सलाह पर ही विधायकों को X कैटेगरी की सुरक्षा दिया जा रहा है - और ये सिर्फ बीजेपी के 77 विधायकों के लिए नहीं है, बल्कि चुनाव हार चुके बीजेपी के सभी उम्मीदवारों को भी 31 मई तक केंद्रीय बलों की सुरक्षा मुहैया कराये जाने के फैसला किया गया है.

बीजेपी की दलील है कि विधायकों को लोगों के काम और जरूरत के हिसाब से इलाके में दौरा करना पड़ रहा है और पश्चिम बंगाल के हिंसक माहौल में उनको कहीं भी आने जाने पर खतरा है.

तृणमूल कांग्रेस ने केंद्र सरकार के इस कदम को गलत बताते हुए याद दिलाया है कि सरकार को ये नहीं भूलना चाहिये कि कानून और व्यवस्था का जिम्मा राज्य की सरकार का होता है, इसलिए इस मामले में भी केंद्र सरकार को दखल देने की जरूरत नहीं होनी चाहिये.

ये बात तो है ही कि ममता बनर्जी को बीजेपी विधायकों को केंद्रीय बलों की सुरक्षा मुहैया कराया जाना राज्य में कानून-व्यवस्था की स्थिति पर सवालिया निशान लगाने जैसा लग रहा होगा. वैसे विपक्ष के विधायकों को केंद्र की तरफ से सुरक्षा मुहैया कराये जाने का ये पहला मामला है.

नंदीग्राम से फिर से विधायक बन चुके शुभेंदु अधिकारी को तो बीजेपी ज्वाइन करने के कुछ दिन बाद ही Z कैटेगरी की सुरक्षा मिल गयी थी. पश्चिम बंगाल बीजेपी अध्यक्ष दिलीप घोष और प्रभारी महासचिव कैलाश विजयवर्गीय को भी पहले से ही सुरक्षा मिली हुई है.

टकराव का एक मुद्दा रहा, पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ का कूच बिहार दौरा. ममता बनर्जी तो वहां चुनावों के दौरान ही हो आयी थीं, लेकिन गवर्नर को पत्र लिख कर अपना दौरा रद्द करने देने की सलाह दी थी. ममता बनर्जी ने इसे नियमों का उल्लंघन बताया था. दरअसल, कूच बिहार के सीतलकुची में एक बूथ के पास केंद्रीय सुरक्षा बलों की फायरिंग में चार स्थानीय लोगों की मौत हो गयी थी.

ममता बनर्जी की सलाह खारिज करते हुए राज्यपाल जगदीप धनखड़ सीतलकुची के दौरे पर गये जहां उनके काफिले को काले झंडे दिखाते हुए वापस जाने को लेकर नारेबाजी भी हुई.

अब राज्यपाल जगदीप धनखड़ के नाराज होने की बारी थी. जगदीप धनखड़ ने पुलिस अफसरों को नारेबाजी करने वालों के खिलाफ एक्शन न लेने के लिए फटकार लगायी. बोले, 15 लोगों की भीड़ जमा होकर भाजपा के राज्यपाल वापस जाओ के नारे लगा रहे हैं और कोई एक्शन नहीं होता है - कानून पूरी तरह खत्म हो चुका है. राज्यपाल ने कहा, 'मैं स्तब्ध हूं. मैंने कभी सोचा भी न था कि ऐसी चीज हो सकती है.'

राज्यपाल धनखड़ ने मुलाकात के बाद बताया कि लोगों की आंखों में डर साफ दिखायी दे रहा है और वे पुलिस के पास भी शिकायत करने जाने से डर रहे हैं. साथ ही, हिंसा को लेकर गवर्नर ने वो सारे आरोप भी लगाये जो बीजेपी नेता भी बारी बारी लगाते रहे हैं.

चुनाव खत्म हो गये और नतीजे आने के बाद नयी सरकार भी बन गयी. मुख्यमंत्री बनने के बाद ममता बनर्जी ने अपनी कैबिनेट भी बना ली, लेकिन पश्चिम बंगाल के लोगों की जिंदगी में कोई फर्क पड़ा हो, ऐसा बिलकुल भी नजर नहीं आ रहा है. तृणमूल कांग्रेस और बीजेपी के बीच तकरार वैसे ही कायम है जैसे चुनाव की तारीखें आने के पहले या बाद में होती रही.

चुनावों के दौरान तो ये सब स्वाभाविक भी लगता था, लेकिन आम लोगों की जिंदगी अब भी सियासी वर्चस्व की लड़ाई की भेंट चढ़े ये क्या मतलब हुआ. अब तो लोगों की यही अपेक्षा होगी कि जिस उम्मीद से नयी सरकार चुनी है, वो उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतरे.

ये तो बहुत ही नाइंसाफी है

दिल्ली की तरह एकतरफा तो नहीं लेकिन पश्चिम बंगाल के लोगों ने जिस तरह ममता बनर्जी पर भरोसा किया और बीजेपी को खारिज कर दिया - दोनों ही दलों की जिम्मेदारियां अलग अलग हो गयी हैं. तृणमूल कांग्रेस की बल्कि ज्यादा जिम्मेदारी है क्योंकि लोगों ने बंगाल में बीजेपी के डबल इंजिन सरकार के फायदे बताने के बावजूद एक न सुनी और ममता बनर्जी पर ही लगभग आंख मूंद कर भरोसा किया.

हालात कैसे भी हों, ममता बनर्जी लाख चाहें तो भी दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की तरह केंद्र सरकार के सिर पर काम न करने देने का ठीकरा फोड़ कर पल्ला भी नहीं झाड़ सकतीं - राजनीतिक विरोध में शोर मचाने की बात और है.

निश्चित तौर पर बीजेपी को भी चाहिये कि बंगाल के लोगों की खुशहाली के लिए तृणमूल कांग्रेस सरकार को काम करने दे - और जहां जरूरी हो केंद्र की तरफ से राज्य सरकार की मदद की जाये.

ये बंगाल के लोगों का हक है कि उनकी चुनी हुई सरकार लोक हित को सर्वोपरि समझे और सूबे में कानून-व्यवस्था कायम रखते हुए हिंसा पर काबू करे. लोग बेधड़क अपने काम में लगे रहें और महिलाएं बगैर किसी डर के जहां कहीं भी काम हो आ जा सकें और उसके लिए समय की कोई बाध्यता न हो. किसी अन्य मुख्यमंत्री की तरह ममता बनर्जी से भी कभी ये सुनने को न मिले कि आधी रात को एडवेंचरस बनने की क्या जरूरत थी? न नही कोई नेता उनके पहनावे पर टिप्पणी करते हुए जिम्मेदार ठहराये - और न ही किसी की दोबारा ये कहने की हिम्मत हो कि लड़के हैं, लड़कों से गलती हो जाती है.

कोरोना संकट में लोगों को और न झेलना पड़े ये ममता बनर्जी की भी जिम्मेदारी है - और केंद्र की बीजेपी सरकार की भी. अस्पतालों में बेड, ऑक्सीजन और जरूरी दवाइयां उपलब्ध कराने के साथ ही जरूरत के हिसाब से कोविड 19 वैक्सीन की सुविधा भी उपलब्ध करायी जाये - और इस मामले में भी किसी तरह के भेदभाव वाली बात नहीं होनी चाहिये.

बंगाल के लोगों को रोजी-रोटी के साधन उपलब्ध कराना और नौजवानों भी रोजगार मुहैया कराना भी ममता बनर्जी सरकार की जिम्मेदारी है - और उसके लिए वो केंद्र की मोदी सरकार को जिम्मेदार ठहराने की जगह खुद पहल करें और जरूरी कदम उठायें. ये सारी चीजें हासिल करने का लोगों को हक है और मुहैया कराना सरकारों की ड्यूटी है.

टकराव की जारी राजनीति को लेकर पहला सवाल तो ये है कि क्या ममता बनर्जी अपनी तरफ से ये टालने की कोशिश नहीं कर सकती हैं - और दूसरा, ये कि क्या मोदी सरकार मामूली मुद्दे दरकिनार कर पश्चिम बंगाल के लोगों के कल्याण के लिए काम नहीं कर सकती ताकि आने वाले चुनावों में वो और भी मजबूती के साथ अपना पक्ष रख सके?

मिसाल के तौर पर अगर राज्यपाल के सीतलकुची दौरे की ही बात करें तो क्या जगदीप धनखड़ उसे टाल नहीं सकते थे? अगर ममता बनर्जी की बात मान कर जगदीप धनखड़ दौरा टाल देते तो वहां जो कुछ हुआ और जिस चीज को लेकर उनको तकलीफ हुई टाली जा सकती थी - और सवाल ये भी है कि क्या ममता बनर्जी राज्यपाल के दौरे को लेकर टकराव का रास्ता छोड़ नहीं सकती थीं?

अगर ममता बनर्जी को आशंका हो कि राज्यपाल के दौरे में लोग उनकी शिकायतें करेंगे जिससे उनकी छवि खराब होगी तो क्या उससे बचाव के एहतियाती उपाय नहीं हो सकते?

चुनावों में तो सबने देखा ही कि किस तरह ममता बनर्जी मोदी, शाह और बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा के दौरों के बाद खुद उन इलाकों में पहुंच जाती थीं और लोगों से अपनी बात कहती थीं. जो कुछ भी बीजेपी नेता कह कर गये होते, वो उसका अपने तरीके से काउंटर करतीं और उनका प्रभाव खत्म करने की कोशिश करतीं - चुनावों में ममता बनर्जी की जीत बताती है कि बीजेपी नेताओं के लाख समझाने बुझाने के बावजूद लोगों ने तृणमूल कांग्रेस नेता की ही बात मानी.

अब अगर राज्यपाल जगदीप धनखड़ के दौरे के ऐन पहले ममता बनर्जी खुद मौके पर पहुंच जातीं या अपना कोई प्रतिनिधि भेज देतीं तो भी काम बन जाता. ममता बनर्जी का प्रतिनिधि लोगों से बात करता उनकी समस्याएं सुनता और ममता बनर्जी की तरफ से आश्वस्त करता कि उनको परेशान होने की जरूरत नहीं है उनका काम हो जाएगा. अब जो लोग ममता बनर्जी पर भरोसा करके उनको सत्ता सौंप चुके हैं क्या वो उनके संदेश पर भरोसा नहीं कर लेते?

अगर ममता बनर्जी की तरफ से ऐसे छोटे से काम कर दिये जाते तो राज्यपाल जगदीप धनखड़ के जाने पर लोग बताते कि उनको ममता बनर्जी का आश्वासन मिल चुका है और उनको यकीन है कि उनकी समस्या सुलझा दी जाएगी - अगर राज्यपाल लोगों के मुंह से सीधे ऐसी बातें सुनते और वे बातें टीवी पर प्रसारित होतीं तो क्या ममता बनर्जी की आलोचना का कोई आधार बन पाता? ये तो ममता बनर्जी के प्रचार के ही काम आता और वो एक पैर से बंगाल जीतने के बाद दो पैरों से दिल्ली जीतने की दिशा में भी लोगों की उम्मीदें बढ़ा रही होतीं.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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