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Updated: 29 जून, 2019 07:28 PM
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ममता बनर्जी 23 मई से पहले तक मायावती और राहुल गांधी की ही तरह प्रधानमंत्री की कुर्सी की प्रबल दावेदार थीं. चुनाव नतीजों के बाद मायावती ने सपा-बसपा गठबंधन तोड़ दिया और राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया है. मायावती की ही तरह ममता बनर्जी भी अब PM छोड़ CM की कुर्सी के लिए जूझ रही हैं.

2016 में तो ममता बनर्जी ने नारदा-सारदा के बावजूद अपने बूते तृणमूल कांग्रेस को दोबारा सत्ता दिला दी लेकिन लोक सभा चुनाव में बीजेपी ने सब तहस नहस कर दिया है. पश्चिम बंगाल में बीजेपी ने लोक सभा की 42 में से 18 सीटें तो जीती ही, ममता बनर्जी का भी नंहर 34 से घटाकर 22 कर दिया. बीजेपी के वोट शेयर में 23 फीसदी का इजाफा ममता बनर्जी को लगातार परेशान कर रहा है.

ममता बनर्जी की मुश्किल ये है कि जिस तरह राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष एकजुट नहीं हो पाया था - पश्चिम बंगाल में राज्य स्तर पर भी वैसे ही संकेत मिले हैं. हालांकि, अभी बड़े नेताओं की ओर से औपचारिक तौर पर कुछ कहा नहीं गया है. BJP की तरह कांग्रेस की भी नजर केरल के बाद पश्चिम बंगाल पर ही टिकी है - ऐसे में कांग्रेस ममता बनर्जी को कितना तवज्जो देगी कहना मुश्किल है.

दुश्मन के दुश्मन दोस्तों साथ आओ!

ममता बनर्जी और मायावती के नजरिये में गठबंधन को लेकर थोड़ा फर्क है. ममता बनर्जी राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन की राजनीति की पक्षधर तो रहीं हैं, लेकिन पश्चिम बंगाल में तो बिलकुल नहीं.

ऐसा पहली बार हुआ है जब ममता बनर्जी ने भरी विधानसभा में बीजेपी के खिलाफ विपक्षी एकता की वकालत की है. सुनने वालों के लिए काफी हैरान करने वाला भी रहा कि ममता बनर्जी खुलेआम लेफ्ट और कांग्रेस को तृणमूल कांग्रेस के साथ हाथ मिलाकर बीजेपी के खिलाफ लड़ने की अपील की.

2016 में जब विधानसभा के चुनाव हो रहे थे तो ममता बनर्जी लगातार कांग्रेस नेतृत्व के संपर्क में रहीं. सोनिया गांधी से 10, जनपथ जाकर मुलाकात भी की. शुरू में तो ऐसा लगा जैसे ममता बनर्जी कांग्रेस के साथ विधानसभा चुनाव में हाथ मिलाना चाहती हैं, लेकिन बाद में मालूम पड़ा ममता की दिलचस्पी लेफ्ट और कांग्रेस के बीच चुनावी समझौता न होने पाये उसमें ज्यादा रही. ममता के मनमाफिक चीजें तो नहीं हो पायीं लेकिन ममता बनर्जी सत्ता में वापसी करने में कामयाब रहीं.

ममता बनर्जी बिखरे विपक्ष को समझाना तो यही चाहती होंगी कि दुश्मन का दुश्मन सदियों से आपस में दोस्त माना जाता रहा है. मगर ममता बनर्जी का ये फॉर्मूला दुश्मन को दुश्मनों को भी आपसी दुश्मनी भुलाने में मददगार साबित नहीं हो रहा है.

mamata benarjee for alliance in WBराजनीति में ममता के दोस्त कम दुश्मन ज्यादा हैं - बीजेपी की ही तरह कांग्रेस और लेफ्ट की भी यही राय है!

वैसे भी ममता बनर्जी ने राजनीति भी ऐसी ही की है जिसमें दोस्त कम और दुश्मन ज्यादा ही रहते हैं. दिल्ली की बात और है, कोलकाता में तो ममता बनर्जी का कोई भी राजनीतिक दोस्त नजर नहीं आता - ऐसा क्यों है ये बात भी ममता बनर्जी बखूबी समझती हैं.

पहले कब्जा तो हटाओ!

गठबंधन के मामले में राजनीतिक दलों के बीच ममता बनर्जी और मायावती दोनों की ही छवि तकरीबन एक जैसी ही है. ममता बनर्जी ने मायावती जितने गठबंधन तो नहीं किये, लेकिन बीजेपी और कांग्रेस दोनों के साथ रही हैं - लेकिन तभी तक जब तक उनका मन माना है. वरना, गठबंधन तोड़ते ममता बनर्जी को भी वक्त नहीं लगता.

पश्चिम बंगाल के राज्यपाल केशरीनाथ त्रिपाठी के अभिभाषण पर चर्चा के दौरान ममता बनर्जी ने बीजेपी पर बंगाल में समानांतर सरकार चलाने की कोशिश का इल्जाम लगाया और लगे हाथ संघर्ष में कांग्रेस और सीपीएम जैसे दलों से साथ देने की अपील की. विधानसभा चुनाव को लेकर इसे ममता बनर्जी का बड़ा दांव माना जा रहा है.

ममता बनर्जी ने कहा, ‘हमारे लिए साथ मिलकर काम करना जरूरी है. ये बड़े मकसद के लिए है.’

ममता बनर्जी की अपील पर रूचि दिखाना तो दूर विपक्ष के नेता अब्दुल मन्नान ने सदन में ही अपनी शिकायत दर्ज करा दी. अब्दुल मन्नान ने कहा कि टीएमसी कार्यकर्ताओं ने तो कांग्रेस के ही कई दफ्तरों पर कब्जा कर लिया है. ममता बनर्जी को भी ऐसे रिएक्शन की उम्मीद नहीं रही होगी लेकिन क्या करतीं, कांग्रेस नेता से ऐसे कार्यालयों की सूची दिखाने को कहा.

दरअसल, विपक्ष मानता है कि ममता बनर्जी की गलत नीतियों के चलते ही बीजेपी को पांव जमाने और पसारने का मौका मिला है. ममता बनर्जी की गुजारिश पर कांग्रेस नेता अब्दुल मन्नान कहते हैं, ‘बीजेपी के खिलाफ संघर्ष के लिए हमें ममता से सीखने की जरूरत नहीं है. ये उनकी नीतियां ही हैं जिनके कारण बीजेपी की जमीन बंगाल में तैयार हुई है. पहले उन्हें यह स्वीकार करना चाहिए कि उनकी गलतियों के कारण ही बीजेपी राज्य में मजबूत हुई है.’

सीपीएम विधायक दल के नेता सुजान चक्रबर्ती ने भी अब्दुल मन्नान की राय से इत्तेफाक जताया है. ऐसे में बीजेपी को बोलने का मौका भी मिल गया है. प्रदेश बीजेपी अध्यक्ष दिलीप घोष कह रहे हैं - 'ममता की अपील से उनका डर दिख रहा है.'

यूपी-बिहार की तरह बंगाल में भी फेल होगा गठबंधन

अव्वल तो पश्चिम बंगाल में महागठबंधन का हकीकत बनना ही संदेह के घेरे में है. अगर जैसे तैसे महागठबंधन बना भी तो उसका सफल होना मुश्किल लगता है. यूपी का सपा-बसपा गठबंधन ताजा मिसाल है - और बिहार का महागठबंधन तो सबकी आंखों के सामने है ही.

यूपी और बिहार के गठबंधनों के मॉडल अलग अलग हैं और नतीजे भी अलग अलग आये हैं. पहले चरण में तो बिहार गठबंधन पूरी तरह सफल रहा. बाद की बातें और हैं. बिहार के बाद यूपी में दो साल के अंतर पर दो गठबंधन बने और दोनों का हाल एक जैसा ही रहा. चुनाव से पहले नेताओं ने सगे-संबंधियों जैसे दिखावे किये और नतीजे आते ही रंग और शब्द दोनों बदल लिये. यूपी के दोनों गठबंधनों में समाजवादी पार्टी कॉमन हिस्सेदार रही, लेकिन पार्टनर बदलते रहे. विधानसभा में तो कांग्रेस को कोई लाभ नहीं हुआ, लेकिन आम चुनाव में तो बीएसपी ज्यादा ही फायदे में रही.

पश्चिम बंगाल में भी बिहार की तर्ज पर महागठबंधन की कोई संभावना नजर नहीं आती. हां, यूपी जैसे एक्सपेरिमेंट से इंकार नहीं किया जा सकता. लोक सभा चुनाव 2019 में तो ममता बनर्जी चाहती थीं कि कांग्रेस दिल्ली, पश्चिम बंगाल और आंध्र प्रदेश सभी जगह क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन करे, लेकिन स्थानीय नेतृत्व का नाम लेकर राहुल गांधी पीछे हट गये. फिर भी लगता है ममता बनर्जी ने हार नहीं मानी है. हार न मानना भी ममता बनर्जी की मजबूरी ही है.

लेफ्ट के तो ममता से हाथ न मिलाने के कई वजहें हैं. पहली वजह तो लेफ्ट का ममता बनर्जी से हाथ मिलाना ही खुदकुशी जैसा कदम होगा. ममता बनर्जी से हाथ मिलाने पर सीपीएम को फायदा तो दूर नुकसान ही होगा. सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी ने अभी तक कुछ कहा तो नहीं है, लेकिन गुंजाइश कम ही लगती है. ममता बनर्जी ने कोलकाता के ब्रिगेड परेड ग्राउंड रैली में भी जिन राजनीतिक दलों को नहीं बुलाया था उनमें बीजेपी के अलावा सीपीएम ही रही.

पंचायत चुनावों का भी लेफ्ट पार्टियों का अनुभव बीजेपी जैसा ही है. चुनावों के दौरान बीजेपी के साथ साथ लेफ्ट का भी एक ही इल्जाम रहा कि टीएमसी कार्यकर्ता उनके कार्यकर्ताओं को डराने धमकाने के साथ साथ हत्या भी कर दे रहे हैं. कांग्रेस ने तो विधानसभा में ही कह दिया कि टीएमसी कार्यकर्ताओं ने उसके दफ्तरों पर ही कब्जा जमा लिया है. पंचायत चुनावों में हिंसा के चलते टीएमसी के काफी उम्मीदवार निर्विरोध चुनाव जीत गये थे. करीब करीब वैसे ही जैसे जम्मू-कश्मीर के निकाय चुनावों में देखने को मिला था.

आम चुनाव में अधीर रंजन चौधरी ने ही कांग्रेस और टीएमसी का गठबंधन नहीं होने दिया था. अब वो दिल्ली आ चुके हैं और लोक सभा में कांग्रेस के नेता हैं. अधीर रंजन को ही कांग्रेस को पश्चिम बंगाल में जिंदा रखने का श्रेय दिया जाता है. दिल्ली आने के बाद अधीर रंजन का क्या रूख रहता है और पश्चिम बंगाल की राजनीति में उनका कितना दखल रहता है, देखना होगा.

2021 विधानसभा चुनावों खातिर ममता बनर्जी ने विपक्षी दलों को सलाह भर दी है. ये ठीक है कि इसमें ममता बनर्जी की मजबूरी नजर आती है और बीजेपी बौखलाहट बता रही है - लेकिन ममता के कहने का अंदाज मदद मांगने जैसा नहीं लगता. ममता बनर्जी का कहना है कि बीजेपी के खिलाफ लड़ाई में लेफ्ट और कांग्रेस को भरपूर सपोर्ट मिलेगा. यही वो तेवर है जो गठबंधन की राह में सबसे बड़ी बाधा है.

पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के महागठबंधन की पहल को सूबे के नेताओं ने तो सिरे से ही खारिज कर दिया है - लेकिन शीर्ष नेतृत्व से अभी कोई औपचारिक प्रतिक्रिया सामने नहीं आयी है. फिर भी यूपी-बिहार के प्रयोगों के नतीजे उत्साहवर्धक न होने से किसी संभावित बंगाल गठबंधन की कामयाबी की तस्वीर काफी धुंधली नजर आती है.

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