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Updated: 05 सितम्बर, 2021 10:09 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) को भी उद्धव ठाकरे जैसी ही राहत भरी खबर मिली है - ऐसी राहत भरी खबर के लिए तीरथ सिंह रावत के कान तरसते रहे, लेकिन तभी बुरी खबर ही आ गयी.

बीजेपी के तीरथ सिंह रावत को चार महीने भी नहीं हुए थे कि उत्तराखंड के मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी. समझाया तो यही गया कि छह महीने के भीतर उपचुनाव की संभावना नहीं बन पा रही थी, इसलिए बीजेपी नेतृत्व ने मुख्यमंत्री ही बदल दिया. एक राय ये भी सामने आयी कि चूंकि तीरथ सिंह रावत के नेतृत्व में बीजेपी को सत्ता में वापसी की उम्मीद नहीं लगी, इसलिए भी चेहरा बदल दिया गया.

तीरथ सिंह रावत के इस्तीफे के बाद ममता बनर्जी को मुख्यमंत्री रहते उपचुनाव लड़ने का मौका मिल पाएगा, कम ही उम्मीद थी. ममता बनर्जी की ही तरह महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे का भी मामला रहा. शिवसेना और बीजेपी का गठबंधन टूट जाने के बावजूद उद्धव ठाकरे ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से फोन कर मदद मांगी थी - और तभी जो राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी कैबिनेट की सिफारिशों को खारिज किये जा रहे थे, चुनाव आयोग को पत्र लिख कर विधान परिषद चुनाव कराने को कहा और उद्धव ठाकरे की कुर्सी बच गयी.

अब ममता बनर्जी भी राहत भरी सांस ले सकती हैं क्योंकि चुनाव आयोग ने भवानीपुर (Bhabanipur Bypoll) सहित तीन सीटों पर उपचुनाव की घोषणा कर दी है. उपचुनाव के लिए वोटिंग 30 सितंबर को होंगे और नतीजे गिनती के बाद 3 अक्टूबर को आ जाएंगे.

चुनाव आयोग के उपचुनाव कराने के फैसले के बाद ममता बनर्जी के पास कम से कम इस मामले में केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी नेतृत्व मोदी-शाह (Modi & Shah) पर हमले का मौका तो नहीं ही मिलेगा - बाकी सब तो चलता ही रहेगा.

ममता के लिए राहत है, लेकिन जीत भी हासिल करनी होगी

ये उपचुनाव यूं ही नहीं हो रहे हैं. ये चुनाव ममता ममता बनर्जी की लड़ाई की बदौलत तो हो ही रहा है, सिविक बॉडी पोल को लेकर विपक्षी दलों के दबाव का भी नतीजा है - जम्मू-कश्मीर की तरह पश्चिम बंगाल में भी अलग अलग स्टैंड के कारण टकराव हो रहा था.

जैसे जम्मू-कश्मीर में विधानसभा के चुनाव और राज्य का दर्जा देने को लेकर पहले ये, पहले वो वाली तकरार चल रही है, वैसे ही पश्चिम बंगाल में भी सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस की डिमांड थी कि पहले उपचुनाव कराये जायें, जबकि विपक्षी दल चाहते थे कि निकायों के चुनाव ही करा लिये जायें.

बंगाल के विपक्षी दलों की मांग थी कि पहले 106 नगरपालिकाओं और कोलकाता सहित 6 नगर निगमों के चुनाव कराये जायें जो करीब साल भर से टाले जा रहे हैं. ममता बनर्जी पर विपक्ष का आरोप रहा है कि हार के डर से कोविड 19 का बहाना बना कर नगर निगमों के चुनाव टालने की कोशिश हो रही है.

ममता बनर्जी पहले उपचुनाव कराने को लेकर चुनाव आयोग पर लगातार दबाव बनाये हुए थीं और आरोप लगा रही थीं कि उपचुनाव टाल कर केंद्र सरकार पश्चिम बंगाल में संवैधानिक संकट बुलाना चाह रही है. चुनाव आयोग से बार बार अपील किये जाने के बाद आयोग ने कोविड की स्थिति के बारे में रिपोर्ट तलब की थी

चुनाव आयोग की तरफ से कहा गया है, '...संवैधानिक आवश्यकताओं और पश्चिम बंगाल के विशेष अनुरोध पर विचार करते हुए विधानसभा क्षेत्र 159 - भवानीपुर के लिए उपचुनाव कराने का निर्णय लिया गया है. कोविड-19 संक्रमण से बचाव के लिए आयोग की ओर से बचाव के लिए पूरी सावधानी बरतने के लिए सख्त मानदंड तय किये गये हैं.'

mamata banerjeeउपचुनाव तो ममता बनर्जी के लिए एहसान जैसा ही है - बीजेपी के खिलाफ आक्रामक तेवर में कोई फर्क भी आएगा क्या?

चुनाव आयोग ने राज्यों से रिपोर्ट के आधार पर ही पश्चिम बंगाल की तीन सीटों, भवानीपुर के अलावा जंगीपुर और शमशेरगंज के साथ ही ओडिशा की पीपली सीट पर उपचुनाव कराने की घोषणा की है. आयोग का कहना है कि संबंधित राज्यों के मुख्य सचिवों और मुख्य चुनाव अधिकारियों की राय और रिपोर्ट को ध्यान में रखते हुए बाकी 31 विधानसभा क्षेत्रों और 3 संसदीय क्षेत्रों में उपचुनाव नहीं कराने का फैसला किया है.

भवानीपुर सीट तो तृणमूल कांग्रेस के विधायक ने ममता बनर्जी के लिए ही खाली की है, लेकिन मुर्शिदाबाद जिले के जंगीपुर विधानसभा सीट पर RSP उम्मीदवार प्रदीप नंदी की कोरोना वायरस की चपेट में आने से निधन के कारण और मुर्शिदाबाद जिले की ही शमशेरगंज सीट से कांग्रेस प्रत्याशी रिजाउल हक की मौत हो जाने की वजह से चुनाव रद्द कर दिये गये थे.

वैसे उपचुनाव होना ही ममता बनर्जी की कुर्सी बचे रहने की गारंटी नहीं है. नंदीग्राम में बीजेपी नेता शुभेंदु अधिकारी से चुनाव हार चुकीं, ममता बनर्जी को भवानीपुर सीट से भी उपचुनाव जीतना ही होगा. ममता बनर्जी के भवानीपुर सीट से मैदान में उतरने की संभावन इसलिए भी है क्योंकि वहां के विधायक शोभनदेव भट्टाचार्या ने ये कह कर ही इस्तीफा दिया था कि वो ममता बनर्जी के लिए ही सीट खाली कर रहे हैं.

उद्धव ठाकरे तो विधान परिषद की सदस्यता पाकर ही अपनी कुर्सी बचा लिये थे, लेकिन ममता बनर्जी को प्रत्यक्ष चुनाव प्रक्रिया से गुजरनी होगी और जनता के बीच जाना होगा. आम तौर माना यही जाता है कि मुख्यमंत्री रहते कोई नेता उपचुनाव नहीं हारता, लेकिन ये कोई गारंटी वाली बात नहीं है. 1970 में यूपी के मुख्यमंत्री रहते त्रिभुवन नारायण सिंह गोरखपुर की मणिराम सीट से चुनाव हार गये थे. उसी तरह 2009 में झारखंड के मुख्यमंत्री रहते JMM नेता शिबू सोरेन तमाड़ सीट से चुनाव हार गये थे. शिबू सोरेन के बेटे हेमंत सोरेन फिलहाल झारखंड के मुख्यमंत्री हैं.

ताकि कोई तोहमत न लगा सके

यूं तो चुनाव आयोग स्वतंत्र रूप से अपना काम करता है, लेकिन जिस तरीके से ममता बनर्जी विधानसभा चुनाव पश्चिम बंगाल में सात चरणों में कराये जाने से लेकर अब उपचुनाव टाले जाने पर केंद्र की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदो की सरकार को टारगेट कर रही थीं - देखा जाये तो आगे से कम से कम इस मामले तृणमूल कांग्रेस नेता के पास कोई मौका बचा नहीं है और ये बीजेपी नेतृत्व की तरफ से बड़ा मैसेज है.

ऐसा लग रहा है जैसे बीजेपी बदले की राजनीति और ऑपरेशन लोटस को लेकर राजनीतिक विरोधियों की तोहमत से परेशान सी होने लगी है. खास कर पश्चिम बंगाल चुनावों की हार के बाद और उत्तर प्रदेश के चुनावी मैदान में उतरने से पहले - भवानीपुर सहित पश्चिम बंगाल की तीन सीटों पर उपचुनावों की घोषणा के बाद कम से कम ममता बनर्जी के पास ऐसे इल्जाम लगाने का मौका तो बचेगा नहीं.

दरअसल, महाराष्ट्र में रातोंरात देवेंद्र फडणवीस के मुख्यमंत्री बनने के लिए एक्टिव होने और सुबह ही सुबह शपथग्रहण करने लेने में भी कर्नाटक के बीएस येदियुरप्पा जैसी हरकत के रूप में देखी गयी थी - और कोरोना वायरस को लेकर देश में संपूर्ण लॉकडाउन से पहले मध्य प्रदेश में तत्कालीन कमलनाथ सरकार के खिलाफ ऑपरेशन लोटस के सफल अंजाम देखने के बाद भी बीजेपी के खिलाफ एक नकारात्मक छवि बनने लगी थी.

सबसे बड़ा सबूत है महाराष्ट्र में बीजेपी नेतृत्व के नापसंद होने के बावजूद शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस गठबंधन का सत्ता में बने रहना. ये कयास भी लगाये जाने लगे थे कि पश्चिम बंगाल चुनाव के बाद महाराष्ट्र में सारे राजनीतिक समीकरण बदल जाएंगे, लेकिन बाजी पलट गयी और मामला आगे के लिए होल्ड हो गया.

वरना, अगर उद्धव ठाकरे के फोन करने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुप्पी साध लेते तो कोई क्या कर लेता भला. सबसे बड़ा तो कोविड 19 से हुए बदतर हालात का ही बहाना था. तब लॉकडाउन के बाद धीरे धीरे अनलॉक की प्रक्रिया चल रही थी. महाराष्ट्र की 9 विधान परिषद सीटों के लिए चुनाव नहीं कराये जाते तो वैसे भी उद्धव ठाकरे संवैधानिक तौर पर शपथग्रहण के छह महीने बीतते ही मुख्यमंत्री पद के अयोग्य हो जाते.

ममता बनर्जी के साथ भी वैसी ही परिस्थिति पैदा होने लगी थी और वो उद्धव ठाकरे की राह न पकड़ लें, बीजेपी ने उत्तराखंड में बतौर संदेश ही अपना मुख्यमंत्री भी बदल डाला था - लेकिन अब बीजेपी के खिलाफ ममता बनर्जी का आक्रामक रुख चुनावों के मामले में अपनेआप न्यूट्रलाइज हो जाएगा.

ऐसा भी नहीं कि ऐसा हो जाने से ममता बनर्जी और बीजेपी की लड़ाई कम हो जाएगी. टीएमसी छोड़ने के बाद बीजेपी के विधायक बन चुके नेताओं की घर वापसी भी जारी है और ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी की ही तरह पश्चिम बंगाल में विपक्ष के नेता शुभेंदु अधिकारी को भी क्रमशः ED और 2018 के एक केस के सिलसिले में बंगाल पुलिस का समन मिल ही चुका है

बीजेपी छोड़ कर तृणमूल कांग्रेस ज्वाइन करने वाले विधायकों को लीगल नोटिस भेजे जाने की जानकारी शुभेंदु अधिकारी ने दी है. असल में मुकुल रॉय, तन्मय घोष और बिश्वजीत दास जैसे विधायकों ने टीएमसी तो ज्वाइन कर लिया है, लेकिन विधानसभा से इस्तीफा नहीं दिया है. मुकुल रॉय की सदस्यता खत्म कराने के लिए तो बीजेपी हाई कोर्ट का रुख भी कर चुकी है.

कुछ दिन पहले ममता बनर्जी दिल्ली के दौरे पर थीं. उसी दौरान ममता बनर्जी तृणमूल कांग्रेस संसदीय बोर्ड की अध्यक्ष भी बन गयीं जिसकी सामान्य रूप से कोई जरूरत नहीं थी. तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख होने के कारण उनके पास सर्वाधिकार सुरक्षित हैं, ऐसे में वो खुद संसदीय बोर्ड की चेयरपर्सन रहें न रहें या कोई भी रहे बहुत फर्क पड़ सकता है, ऐसा तो बिलकुल भी नहीं लगता. ये सब विशेष परिस्थितियों में ही होता है, लेकिन तृणमूल कांग्रेस में लोक जनशक्ति पार्टी जैसा कोई विवाद तो है नहीं.

टीएमसी संसदीय बोर्ड के ममता बनर्जी के अध्यक्ष बनने को दिल्ली में उनकी मौजूदगी से जोड़ कर देखा जाने लगा था. अगर वो संवैधानिक मजबूरियों के चलते मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने को मजबूर होतीं तो राष्ट्रीय राजनीति का रुख कर सकती थीं. हो सकता है ऐसा हालात में मुख्यमंत्री पद अभिषेक बनर्जी को मिल जाता क्योंकि जिस तरीके से उनको ममता बनर्जी का उत्तराधिकारी दिखाया जा रहा है, देख कर तो ऐसा ही लगता है.

ममता बनर्जी के दिल्ली में जमे रहने पर केंद्र की मोदी सरकार की सेहत पर तो कोई खास फर्क नहीं पड़ता, लेकिन विरोध में शोर तो मचता ही. मीडिया अटेंशन तो बदल ही जाता. देखें तो ममता बनर्जी के पांच दिन के दिल्ली दौरे में ही राहुल गांधी से लेकर शरद पवार और लालू प्रसाद यादव की सक्रियता बढ़ गयी. भले ही ममता बनर्जी को ऐसी राजनीतिक सक्रियता का कोई खास फायदा न मिले, लेकिन बीजेपी के नजरिये से देखें तो सिरदर्द तो बढ़ ही रहा है.

लंब वक्त तक के लिए न सही, लेकिन बीजेपी नेतृत्व को कम से कम उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों तक ऐसा कोई नया सिरदर्द नहीं ही पैदा होने देना चाहिये. ममता बनर्जी ने उद्धव ठाकरे की तरह भले ही प्रधानमंत्री को फोन न किया हो, लेकिन बैकडोर मैनेजर आखिर होते किसलिए हैं - पर्दे के पीछे की इस डील या नो-डील का किस्सा सामने आये न आये, दिलचस्प तो होगा ही.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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