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Updated: 21 अक्टूबर, 2022 03:26 PM
अनुज शुक्ला
अनुज शुक्ला
  @anuj4media
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साल 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी को हराने के बाद लगभग तय था कि सोनिया गांधी देश की प्रधानमंत्री बनेंगी. यही उनकी हसरत भी थी. इससे पहले विदेशी मूल के मुद्दे पर कांग्रेस में बड़े विभाजन और क्षेत्रीय दलों के पीठ दिखाने की वजह से वह चूक गई थीं. पूर्व विदेश मंत्री और गांधी परिवार के खासमख़ास रहे नटवर सिंह जब अपनी जीवनी 'वनलाइफ इज नॉट एनफ' लिख रहे थे- प्रियंका और उसके कुछ ही देर बाद सोनिया गांधी अचानक दिल्ली स्थित उनके घर पहुंच गईं. आग्रह किया कि वह किताब में कम से कम प्रधानमंत्री बनने की उनकी इच्छा के प्रसंग का जिक्र ना करें. उन्होंने अनुनय-विनय किया और दस जनपथ के भरोसेमंद रहे नटवर से गलतियों के लिए क्षमा भी मांगी. नटवर सिंह ने बताया था कि असल में 2004 के चुनाव में जीत के बाद सोनिया का प्रधानमंत्री बनना निश्चित था. पीएम की कुर्सी को लेकर उनके घर मीटिंग हो रही थी. बैठक में सुमन दुबे, मनमोहन सिंह और प्रियंका भी मौजूद थीं. लेकिन राहुल गांधी ने जिद पकड़ ली कि सोनिया को पीएम नहीं बनना चाहिए. बेटे को डर था कि कहीं पिता की तरह मां की भी हत्या ना कर दी जाए.

राहुल ने अपनी मां पर तीखा दबाव डाला था और 24 घंटे का अल्टीमेटम दिया था. सोनिया, राहुल के व्यवहार से खिन्न हो गई थीं. बाद में गांधी परिवार ने मनमोहन सिंह को पीएम बनवाया और सोनिया के लिए संप्रग सरकार में विशेष 'रिमोट कंट्रोल' पद का प्रावधान भी किया गया. जिससे वह सरकार को नियंत्रित करते नजर आती हैं. कई प्रसंग संजय बारू की किताब 'द एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर' और तमाम अलग-अलग इंटरव्यूज से भी साफ हो चुके हैं अब तक. बावजूद पीएम पद को ठुकराना मिसाल के तौर पर पेश किया जाता है और सोनिया गांधी को त्याग की देवी बताया जाता है. यह अंतरात्मा की आवाज नहीं बल्कि बेटे का दबाव था. वर्ना सबकुछ उनके पक्ष में ही था. यहां तक कि शरद पवार और तमाम क्षेत्रीय दलों के नेता विदेशी मूल के मसले को ठंडे बस्ते में डाल चुके थे. खैर.

अतीत में यह सब ना हुआ होता तो शायद इस वक्त राहल गांधी के नेतृत्व में गांधी परिवार को राजनीतिक साख बचाने के लिए किसी यात्रा की जरूरत ही नहीं पड़ती. या वे राजनीतिक रूप से यात्रा के लायक रहते ही नहीं. हालांकि कांग्रेस की तरफ से फैलाए प्रोपगेंडा में मनमोहन को पीएम बनाने को सोनिया के बलिदान की जादुई कहानी के रूप में परोसने का सिलसिला एक बार फिर कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में मल्लिकार्जुन खड़गे की ताजपोशी से साथ ताजा है. कांग्रेस को लगता है कि कि दलित नेता को दिए सम्मान के बदले देशभर का दलित मतदाता उसे भर-भरकर वोट देंगे. खड़गे की ताजपोशी से कांग्रेस को कोई कोई हानि-लाभ दूर-दूर तक मिलती दो दिख नहीं रही. अशोक गहलोत, दिग्विजय सिंह और शशि थरूर एपिसोड के बाद यह बहस के लिए भी जरूरी मसला नहीं दिखता. अगर कांग्रेस को लगता है कि अध्यक्ष के रूप में खड़गे की ताजपोशी से कांग्रेस का भला हो जाएगा, तो मान लेना चाहिए कि पार्टी अभी भी पेटदर्द के लिए पुदीनहरा लेने की बजाए क्रोसिन खाना चाहती है. असल में यही प्रवृत्ति कांग्रेस में लाइलाज है. और आप मान सकते हैं कि नरेंद्र मोदी की जीत में उनके करिश्माई व्यक्तित्व से कहीं ज्यादा योगदान, कांग्रेस का भी है. क्षेत्रीय दल भी क्यों नहीं? वे भी.

congressमल्लिकार्जुन खड़गे और सोनिया गांधी.

कांग्रेस में संकट क्या है- उसकी असल बीमारी से समझिए

भाजपा से लगातार चुनाव हार रही कांग्रेस का संकट भयावह है. और यह सिर्फ कांग्रेस भर का संकट नहीं है. बल्कि भारतीय राजनीति में तमाम क्षेत्रीय दलों को लगभग इसी संकट से जूझना पड़ा रहा है. जो लोग खड़गे की ताजपोशी को 2024 में लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग का जवाब मान रहे हैं, असल में 'मृगतृष्णा' का शिकार हैं. उन्हें रेगिस्तान की दोपहरी में पानी के विशाल जलाशय का भ्रम हुआ है बस. वे भाजपा के सांगठनिक ढांचे और उसके अंदर के वैचारिक और स्वाभाविक लोकतंत्र को समझ ही नहीं पाए हैं और बेवजह नक़ल करते हुए मात पर मात खाए जा रहे हैं. भला हो कांग्रेस के कुछ क्षेत्रीय क्षत्रपों का जिनके पुरुषार्थ की वजह से दो-तीन राज्यों में अभी भी पार्टी जिंदा नजर आती है.

कांग्रेस और क्षेत्रीय दल आतंरिक लोकतंत्र के नाम पर अपना गाल बजाते हैं. असलियत यह है कि सिर्फ एक परिवार (क्षेत्रीय पार्टियों में एक या दो जातियां)  के लोग ही पार्टी डील करते नजर आते हैं. वैसे परिवारवाद भाजपा में भी कम नहीं है. दर्जनों नेता पुत्र हैं. लेकिन भाजपा में फर्क यह है कि सर्वोच्च शक्ति पाने के लिए उसके आतंरिक ढांचे में प्रतिद्वंद्विता की जबरदस्त गुंजाइश है. वैचारिक आधार पर भले लाख आलोचना की जाए, मगर निर्विवाद रूप से इकलौती पार्टी दिखती है जहां 'पॉलिटिकल हैवीवेट' अपनी क्षमताओं का प्रदर्शन करने के लिए 'ओपन रिंग' में उतरने का मौका पाते हैं. पार्टी के वैचारिक खांचे में सटीक बैठने वाले किसी भी नेता को नीचे से ऊपर तक संघर्ष करने का अवसर मिलता है. अगर उसमें क्षमता है, तो चुनौती पेश कर सकता है. जीत सकता है. संघ का अनुमोदन तो सबसे बाद की चीज है. और उसके लिए किसी नरेंद्र मोदी, अमित शाह की राह लाख कोशिशों के बावजूद पार्टी के पितामह समझे जाने वाले लालकृष्ण आडवाणी तक नहीं रोक पाते. ऐसा भी होता है कि संघ से बहुत नजदीकी के बावजूद नितिन गडकरी, शिवराज सिंह चौहान को दूसरे लोगों के लिए जगह बनानी पड़ती है. देवेंद्र फडणवीस को ना चाहते हुए भी डेपुटी पद से संतोष करना पड़ता है. केशव मौर्य असंतुष्ट होने के बावजूद अच्छे दिनों का इंतज़ार करते नजर आते हैं ना कि बगावत.

दावे से कहा जा सकता है कि असल में भाजपा में जिस तरह की असंतुष्टि और आपसी प्रतिद्वंद्विता है- वैसा किसी दल में नजर नहीं आता. मगर यहां एक पूरी प्रक्रिया है और लक्ष्य भी हैं. और यही वजह है कि वो चाहे उमा भारती हों, कल्याण सिंह हों, बाबूलाल मरांडी हों या फिर वीएस येदियुरप्पा- उन्हें सुरक्षित भविष्य के लिए वापस लौटना ही पड़ता है. वापसी करने वाले तमाम नेताओं को काफीकुछ मिलता भी दिखा है. राज्य से केंद्र तक उनके लिए जगह बना ही दी जाती है. भाजपा की जीतों और उसके अपराजेय बनने तक उसकी सोशल इंजीनियरिंग से कहीं ज्यादा उसके आतंरिक ढांचे में प्रतिद्वंद्विता से उपजे नतीजे ही जिम्मेदार हैं. हर जाति की भागीदारी है. उन्हें खोजना नहीं पड़ता. कांग्रेस हो या कोई भी क्षेत्रीय दल- उनका आतंरिक ढांचा कुछ ऐसा है जहां, प्रतिद्वंद्विता को 'बगावत' समझा जाता है. मध्य प्रदेश, पंजाब से असम तक उदाहरण भरे पड़े हैं. उत्तर भारत में कांग्रेस समेत तमाम क्षेत्रीय पार्टियां उसी का दुष्परिणाम भुगत रही हैं.

सिर्फ गांधी परिवार के घरेलू आरक्षण की वजह से बर्बाद हो रही है कांग्रेस, क्षेत्रीय दल भी सुरक्षित नहीं  

मध्य प्रदेश में कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया, पंजाब में अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू, असम में  हिमंता विस्वा शर्मा और गोगोई, या फिर महाराष्ट्र, दिल्ली, ओडिशा, आंध्रप्रदेश, पश्चिम बंगाल आदि राज्यों में कांग्रेस में आतंरिक प्रतिद्वंद्विता के दुष्परिणाम क्या निकले? राजस्थान में भी पार्टी को दो झटके मिल चुके हैं. तय है कि अशोक गहलोत और सचिन पायलट में से किसी एक को बाहर जाना ही होगा. अनगिनत उदाहरण हैं और दुर्भाग्य से नए उदाहरणों का सिलसिला ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहा. अब सवाल है कि कांग्रेस की बर्बादी में किसका योगदान है? वजह क्या है? क्या इसे रोका भी जा सकता है?

एक वाक्य में कह सकते हैं- "कांग्रेस की बर्बादी में सबसे बड़ा योगदान गांधी परिवार (सोनिया-राहुल-प्रियंका) का ही है और वजह पूरी तरह से पार्टी पर एकध्रुवीय नियंत्रण या उसकी कोशिश करना है." इसे रोका जा सकता है, मगर कांग्रेस के मौजूदा स्वरूप में यह संभव नजर नहीं. भाजपा में हिमंता के लिए सर्बानंद सोनोवाल संतुष्ट होकर गुवाहाटी से दिल्ली आए होंगे क्या? वे हमेशा ओपन रिंग में बने हुए हैं. लोग कहते हैं मोदी के बाद कौन? आधा दर्जन नेता मोदी के बाद निगाह गड़ाए बैठे हैं. पार्टियों के लोकतांत्रिक प्रक्रिया में चीजों को ऐसे ही रोका जा सकता है- जैसे अटल बिहारी वाजपेयी ने आडवाणी को रोका था. नरेंद्र मोदी ने आडवाणी और गडकरी को रोका. क्या यह कांग्रेस में संभव है? हिमंता बिस्वा शर्मा, कैप्टन अमरिंदर सिंह, अशोक गहलोत, सचिन पायलट, ज्योतिरादित्य सिंधिया आदि की राजनीतिक महत्वाकांक्षा गांधी परिवार के घरेलू आरक्षण की वजह से अपने राज्य से बाहर देख ही नहीं पाती. नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की वजह से यह स्थिति तब और ज्यादा घातक होती है जब आप लंबे वक्त तक केंद्र की सत्ता से भी बाहर हो जाते हैं. कोई भी लोकप्रिय नेता भला अपने राज्य को क्यों छोड़ना चाहेगा? जबकि उसे मालूम है कि दिल्ली में दस जनपथ से आगे कांग्रेस की कोई राह नहीं जाती.

मौजूदा आतंरिक चुनाव से यह एक बार फिर साबित हो गया कि दस जनपथ की वजह से कांग्रेस का पूरी तरह बर्बाद होना तय है. कांग्रेस का आतंरिक सिस्टम साफ़ बता रहा कि दस जनपथ के अवरोध की वजह से छत्तीसगढ़, कर्नाटक में भी एक ना एक दिन पंजाब या मध्य प्रदेश दोहराता दिखे तो हैरान नहीं होना चाहिए. छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल अपनी स्वतंत्र राजनीतिक जमीन बना चुके हैं जो गांधी परिवार का मोहताज नहीं है. जाहिर है कि कांग्रेस से जो अलग होंगे उनके हित भाजपा के साथ ही सधते नजर आएंगे. पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और महाराष्ट्र में शरद पवार की किन महत्वाकांक्षाओं की वजह से कांग्रेस की दुर्गति हुई? बंगाल में पार्टी पूरी तरह बर्बाद है और महाराष्ट्र में बिना पवार की वैशाखी के एक दर्जन सीट भी जीतने की स्थिति में नहीं है. क्योंकि सोनिया, राहुल या प्रियंका की अंतहीन पराजयों ने साबित कर दिया कि गांधी परिवार की विरासत पर राजनीति करने वाली इंदिरा गांधी जैसी क्षमता तीनों में से किसी के पास नहीं है. राजीव गांधी के पास भी नहीं थी. अगर राजीव की हत्या नहीं हुई होती तो आज जो कांग्रेस की हालत नजर आ रही है- वह अंजाम 22 साल पहले ही हो गया होता.

आप नजर घुमा लीजिए. पारिवारिक विरासत पर राजनीति करने वाले सभी दल इसी संकट से जूझ रहे हैं. उनका भी हश्र तय है. पारिवारिक विरासत पर राजनीति करने वाला कोई दल हो- आतंरिक ढांचे में उपजी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं से पार पाने का फ़ॉर्मूला अब उनके पास नहीं है. वह चाहे समाजवादी पार्टी हो, बसपा हो, शिवसेना (ठाकरे) हो, राकांपा हो, राजद हो, अकाली दल, वाईएसआर कांग्रेस हो डीएमके हो, बीआरएस हो या ऐसे और भी तमाम क्षेत्रीय दल. आतंरिक ढांचे की कमजोरी के साथ वे तभी तक सुरक्षित हैं जब तक उनके दरवाजे के सामने कोई मजबूत प्रतिद्वंद्वी खड़ा नहीं हो जाता. उनके हाथ में शक्ति स्थायी नहीं है. उनका भी अंजाम कांग्रेस जैसा होगा या फिर वे जनता दल सेकुलर और लोकदल, अकाली दल की तरह बैशाखी भर रह जाएंगे. 5 साल, 10 साल या हद से हद 15 साल. पारिवारिक विरासत पर टिकी राजनीति, घर से बाहर के नेतृत्व को शक्ति देने के लिए तैयार ही नहीं दिखती. इस स्थिति में राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को कहां आसरा मिलता है. अब तो घर के अंदर ही चुनौतियां मिलने लगी हैं. खड़गे को शुभकामनाएं दे सकते हैं. मगर सवाल तो यह भी कम बड़ा नहीं कि जब मनमोहन दो टर्म तक पीएम की सर्वोच्च कुर्सी पर रहे बावजूद कांग्रेस के पक्ष में सिखों का ध्रुवीकरण नहीं हो पाया, अपने ही क्षेत्र में चुनाव हार जाने वाले खड़गे से उम्मीद पालना मुंगेरी लाल के हसीन सपनों के अलावा कुछ नहीं.

याद रखें रिमोट कंट्रोल से टीवी या दूसरे गैजेट चला सकते हैं पाटती नहीं. लंबे समय तक तो बिल्कुल नहीं. कांग्रेस का समय पूरा हो चुका है.

 

लेखक

अनुज शुक्ला अनुज शुक्ला @anuj4media

ना कनिष्ठ ना वरिष्ठ. अवस्थाएं ज्ञान का भ्रम हैं और पत्रकार ज्ञानी नहीं होता. केवल पत्रकार हूं और कहानियां लिखता हूं. ट्विटर हैंडल ये रहा- @AnujKIdunia

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