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Updated: 11 जून, 2020 01:23 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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लालू प्रसाद यादव को जन्मदिन (Lalu Yadav birthday) पर अलग-अलग ढंग से याद किया जा रहा है. चारा घोटाले में अपराधी साबित होने के बाद से लालू जेल में हैं. लेकिन, उनकी राजनीति का राज अब भी कायम हैं. वे अब भी चर्चा में है. बस फर्क ये है कि बिहार चुनाव (Bihar election 2020) से पहले उन्हें RJD और तेजस्वी यादव से ज्यादा उनके राजनीतिक विरोधी बीजेपी और जेडीयू (BJP-JDU alliance) चर्चा में रखे हुए हैं. तेजस्वी भले कुछ भी चाहते हों, लेकिन बीजेपी और जेडीयू की कोशिश है कि बिहार की जनता लालू यादव या उनके 'लालू राज' को बिल्कुल न भूले. अब सारा दारोमदार रणनीति-वीर लालू यादव पर ही है कि क्या वे विरोधियों के हमलों को अवसर में बदल पाएंगे?

बिहार में नीतीश कुमार (Nitish Kumar) के शासन के 15 साल हो रहे हैं - और अगले 5 साल की तैयारी शुरू हो चुकी है. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने अपनी डिजिटल रैली में दावा भी ठोक दिया कि नीतीश कुमार ही दो-तिहाई बहुमत के साथ चुनाव जीत कर अगले पांच साल के लिए NDA के मुख्यमंत्री के तौर पर सरकार चलाएंगे. ऐसी बातों पर किसी को वैसे ही कोई शक-शुबहा नहीं हो रहा है, जैसे महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस और एनसीपी के भी नेता नहीं सोच पा रहे थे कि बीजेपी-शिवसेना गठबंधन सरकार सत्ता में नहीं लौटेगी. बिहार के मामले में ऐसी संभावनाओं का प्रतिशत महाराष्ट्र के मुकाबले बहुत ज्यादा है - और वो नीतीश कुमार के पक्ष में ही जाता है.

नीतीश राज के 15 साल पहले भी एक शासन की अवधि 15 साल ही रही - लालू राज, लेकिन वो जंगलराज के रूप में कुख्यात हुआ. उसी पीरियड के चारा घोटाले के चलते लालू प्रसाद (Lalu Prasad) अभी जेल में सजा काट रहे हैं. लालू प्रसाद भले ही जेल में हों, लेकिन उनकी ट्विटर पॉलिटिक्स चालू है. लालू प्रसाद का भी ट्विटर एकाउंट वैसे ही सक्रिय है जैसे जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती का.

कोरोना संकट और लॉकडाउन के दौरान ट्विटर और जूम ऐप विपक्षी राजनीति के लिए बहुत बड़े संबल साबित हुए हैं. राष्ट्रीय राजनीति में राहुल गांधी की ही तरह लालू के बेटे तेजस्वी यादव काफी दिनों तक दिल्ली में बैठे बैठे नीतीश कुमार को कभी बिहार की शासन व्यवस्था पर तो कभी घर लौटने के लिए जूझ रहे मजदूरों की हालत पर ट्वीट करते रहे.

अमित शाह की रैली के दिन को छोड़ दें तो अब भी लालू परिवार की राजनीतिक की राजनीतिक गतिविधि ट्विटर पर देखी जा सकती है. बारी बारी तीनों नेता - लालू प्रसाद, राबड़ी देवी और तेजस्वी यादव एक ही सवाल कर रहे हैं कि नीतीश कुमार मुख्यमंत्री आवास से निकल क्यों नहीं रहे हैं - 83 दिन हो गये, फिर 84 दिन हो गये और फिर 85 दिन हो गये. सवाल ये है कि क्या लालू परिवार ट्विटर के भरोसे ही राजनीति में टिका हुआ है?

या फिर कोई और फैक्टर है (BJP and JDU) जो लालू प्रसाद को जेल में होने के बावजूद बिहार की राजनीति में प्रासंगिक बनाये हुए है?

जंगलराज के नाम पर कब तक चलेगी राजनीति?

जाति आधारित बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद की गहरी पैठ रही है - और उनके M-Y फैक्टर यानी मुस्लिम-यादव गठजोड़ का विरोधी बरसों तक लोहा मानते रहे हैं. पांच साल पहले भी 2015 में एक छोर से लालू प्रसाद और दूसरी छोर से नीतीश कुमार ने बीजेपी को बाहरी साबित करते हुए सत्ता की राजनीति में एंट्री रोक डाली थी, लेकिन गठबंधन टूटते ही बीजेपी सत्ता में साझीदार हो गयी और लालू प्रसाद के जेल चले जाने के बाद उनकी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल जैसे तैसे सांसे बचाये हुए है.

अब तो बिहार में आरजेडी की हालत ये हो गयी है कि जीतनराम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा जैसे नेता भी लालू परिवार को किनारे रख चुनावी गठबंधन की कोशिशें कर रहे हैं. दोनों के साथ VIP के मुकेश साहनी भी हैं साथ हो लिए हैं और ये लोग कभी अकेले तो कभी प्रशांत किशोर के साथ बैठकर भी राजनीतिक रणनीति तैयार कर रहे हैं.

सोचने वाली बात ये है कि अगर जीतनराम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा जैसे नेता भी आरजेडी को अहमियत नहीं दे रहे हैं तो वो कौन है जो लालू प्रसाद को प्रासंगिक बनाये हुए है?

tejashwi yadav, lalu prasadलालू प्रसाद की विरासत को तेजस्वी यादव से ज्यादा तो बीजेपी और जेडीयू असरदार बनाये हुए हैं

7 जून को जब अमित शाह की बिहार रैली चल रही थी तो लालू परिवार विरोध में थाली बजा रहा था - आगे की पंक्ति में राबड़ी देवी और उनके अगल-बगल दोनों बेटे तेजस्वी यादव और तेज प्रताप. पीछे आरजेडी के नेता और कार्यकर्ता. पटना की तरह ही आरजेडी के कई नेताओं ने अपने अपने इलाके में वैसे ही विरोध प्रदर्शन किया था.

अपनी रैली के दौरान ही अमित शाह ने लालू प्रसाद के परिवार के विरोध प्रदर्शन का नोटिस लिया. बोले भी, 'ये रैली कोई चुनावी रैली नहीं है. ये वर्चुअल रैली कोरोना के खिलाफ देश की जनता को जोड़ने के लिए है - वक्रदृष्टा लोग इस पर भी सवाल उठा रहे हैं.'

क्या अमित शाह को लालू परिवार के विरोध प्रदर्शन पर रिएक्ट करने की जरूरत थी?

आरजेडी के इस विरोध प्रदर्शन का लेवल महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की सरकार के खिलाफ बीजेपी के विरोध प्रदर्शन जैसा तो कतई नहीं था. पटना की तस्वीरें जरूर ट्विटर से चल कर मीडिया और सोशल मीडिया तक पहुंचीं लेकिन बिहार के बाकी इलाकों से. छिटपुट विरोध ही दर्ज हो पाया. वो भी जब अमित शाह खुद बिहार के 243 विधानसभा क्षेत्रों के 72 हजार बूथों से सीधे जुड़े हुए थे.

अमित शाह ने लालू प्रसाद के शासन को लालटेन युग और नीतीश कुमार के शासन को एलईडी के जमाने के रूप में पेश किया. जोर देकर ये सब भी बताया - 'हम 'लूट एंड मर्डर' से बिहार को 'लॉ एंड ऑर्डर' तक लेकर आये... हम बिहार को चारा घोटाले से DBT तक लेकर आये...'

फिर अमित शाह ने बिहार के जंगलराज की याद दिलायी - 'हम बिहार को 'जंगलराज' से 'जनताराज' तक लेकर आए...'

जिस स्तर का आरजेडी का विरोध प्रदर्शन रहा, अगर अमित शाह चाहते तो नजरअंदाज कर आगे भी बढ़ सकते थे. अमित शाह चाहते तो लालू परिवार के थाली बजाने का जवाब देने का जिम्मा सुशील मोदी, गिरिराज सिंह, नित्यानंद राय या नित्यानंद राय को भी दे सकते थे, लेकिन अमित शाह ने उस पर जोर देकर रिएक्ट किया.

ऐसा भी नहीं है सिर्फ अमित शाह की अपनी रैली में जंगलराज और लालू परिवार को इतना भाव मिला हो, बल्कि ये रूटीन का हिस्सा बन चुका है. चाहे वो बीजेपी हो या नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू, दोनों में से कोई भी बगैर लालू प्रसाद का नाम लिये या जंगलराज का भय दिखाये अपनी कोई बात कह ही नहीं रहे हैं. अमित शाह की रैली के पहले जो हाल रहा वही उसके बाद भी है.

साफ है, ये बीजेपी और जेडीयू ही हैं जो लालू प्रसाद को बिहार की राजनीति में लगातार प्रासंगिक बनाये हुए हैं - बगैर लालू राज या जंगल राज का भय दिखाये बिहार में लगता है मौजूदा सत्ता पक्ष की राजनीति एक कदम भी बढ़ने को तैयार नहीं है.

कोटा के अस्पताल में बच्चों की मौत को लेकर राजस्थान की अशोक गहलोत सरकार पर सवाल उठने शुरू हुए तो कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी ने सचिन पायलट को मौके पर भेजा था. कोटा जाकर बाकी बातों के अलाव सचिन पायलट ने एक महत्वपूर्ण बात कही थी वो ये कि आखिर कब तक पिछली सरकार को दोष देकर राजनीति चलेगी. ये तब की बात है जब अशोक गहलोत सरकार के मुश्किल से साल भर ही हुए होंगे, लेकिन बिहार में नीतीश कुमार के लालू राज की बराबरी के बावजूद बार बार जंगलराज का नाम लेना पड़ रहा है.

नीतीश कुमार के सोशल मीडिया अकाउंट पर भले ही सरकारी गतिविधियों और उपलब्धियों की ही जानकारी मिले, लेकिन जेडीयू कार्यकर्ताओं से हर मुलाकात में वो जंगलराज और लालू-राबड़ी शासन की ही दुहाई दिये जा रहे हैं. खबरों के मुताबिक, नीतीश कुमार की ही तरह बीजेपी भी बिहार में लोगों को बात बात पर लालू-राबड़ी शासन की ही याद दिला रही है - लेकिन ऐसा क्यों है? क्या बीजेपी और जेडीयू के पास नीतीश कुमार के शासन की उपलब्धियों में बताने के लिए ऐसा कुछ भी नहीं है जिसकी बदौलत जंगलराज का नाम लेने की जरूरत न पड़े?

ये लालूवाद क्या होता है?

बीजेपी के सामने बिहार में आरजेडी बिलकुल वैसी ही चुनौती है जैसे यूपी में समाजवादी पार्टी और बीएसपी. बीजेपी दोनों ही राज्यों में अपने तीनों विरोधियों को 2019 के आम चुनाव में चित्त कर चुकी है. यूपी में तो सपा-बसपा गठबंधन को 15 सीटें मिली भी थीं लेकिन बिहार में आरजेडी का तो खाता भी नहीं खुल सका, फिर भी लालू परिवार सूबे की राजनीति में सबसे महत्वपूर्ण बना हुआ है.

अब इससे अजीब क्या होगा कि बिहार में लालूवाद की बात होने लगी है - और ये लालूवाद होता क्या है?

यूपी में कभी मुलायमवाद या मायावतीवाद तो नहीं सुनने को मिला - लेकिन बिहार में लालूवाद खूब चल रहा है और कोई और नहीं बिहार के डिप्टी सीएम और बीजेपी नेता सुशील कुमार मोदी ही बिहार में लालूवाद को आगे बढ़ा रहे हैं.

एक दौर रहा जब बिहार में नारा लगता रहा - 'जब तक समोसे में रहेगा आलू, बिहार में रहेगा लालू.' हकीकत तो ये है कि लालू प्रसाद बिहार से कट कर बने झारखंड राज्य की रांची जेल में सजा काट रहे हैं और उनका परिवार और पार्टी दोनों बिखर चुकी है. पांच साल पहले जेल से छूटे लालू प्रसाद जब पटना में हुआ करते रहे तो चारों तरफ तूती बोलती थी. चुनाव जीतने के बाद लालू ने दोनों बेटों को नीतीश सरकार में मंत्री बना दिया - तेजस्वी यादव तो डिप्टी सीएम भी बन गये. लालू प्रसाद के जेल जाने के काफी दिन बाद तक तेजस्वी को संपर्क सूत्रों के जरिये दिशानिर्देश मिलते रहे. लोक सभा के बाद हुए झारखंड चुनाव में भी लालू प्रसाद का हस्तक्षेप देखा गया - लेकिन अब कहीं भी वो बात नहीं नजर आती.

मौजूदा दौर का सच तो ये है कि लालू प्रसाद को उनकी पार्टी आरजेडी से कहीं ज्यादा बीजेपी और जेडीयू बिहार की राजनीति में प्रासंगिक बनाये हुए हैं - क्योंकि बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद और उनका परिवार ही 'पाकिस्तान' जैसा चटपटा जायका और तड़का दे पाता है.

ये भी बिलकुल वैसे ही है जैसे लालू प्रसाद अपने बारे में खुद ही कहते रहे हैं कि धरती पर उनके आने के एक साल पहले ही अंग्रेज डर कर भाग गये - 11 जून 1948 को जन्मे लालू प्रसाद अपना 73वां जन्म दिन जेल में मनाएंगे और बधाइयां बिहार की राजनीति में दी जाएंगी.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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