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Updated: 26 अक्टूबर, 2022 12:11 AM
अनुज शुक्ला
अनुज शुक्ला
  @anuj4media
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आबादी या उसमें असंतुलन के दुष्परिणाम को भारत और पाकिस्तान की दो हालिया घटनाओं से बहुत बेहतर समझा जा सकता है. दो अलग भूगोल और अलग राजनीति साफ़ करने के लिए पर्याप्त हैं कि असल में आबादी का असंतुलन किस हद तक खतरनाक हो सकता है? पहली घटना पाकिस्तान की है जहां हैदराबाद में सरेबाजार दिन-दहाड़े एक हिंदू लड़की को अगवा किया जाता है. जबरदस्ती मुसलमान बनाया जाता है. मौलवी निकाह पढ़वाता है और हर रोज लड़की को तमाम तरह के उत्पीड़नों से गुजरना पड़ता है. उसका बलात्कार ही हुआ होगा. शुरू-शुरू में पुलिस मामला दर्ज नहीं करती. किसी तरह मामला दर्ज होता है और अदालती प्रक्रिया शुरू हो जाती है. आखिर में फैसला लड़की के घरवालों के खिलाफ ही आता है. आज की तारीख में गैरमुस्लिमों के लिए पाकिस्तान में यह बहुत आम कहानी है. हर रोज मामले आते हैं. जो मामले अंतरराष्ट्रीय मीडिया के जरिए बाहर आ जाते हैं, लोग उनके बारे में जान लेते हैं. अभी बीबीसी के हवाले से एक और कहानी सामने आई कि तीन महीने एक नाबालिग हिंदू लड़की को अगवा कर लिया गया. पुलिस मामला ही दर्ज नहीं कर रही.

ऊपर जिस लड़की की कहानी बताई गई वह सौभाग्यशाली है. असल में लड़की का एक वीडियो वायरल हो गया. जिससे लड़की की इच्छाओं का पता चला और यह भी साफ़ हुआ कि असल में वहां कैसे मजहब, समाज, पुलिस, अदालतें गैरमुस्लिमों के खिलाफ सांस्थानिक अभियान चलाती हैं. वायरल वीडियो के बाद उसी अदालत को अपना फैसला वापस लेना पड़ा. यह भी सामान्य बात है कि ज्यादातर शिकार हिंदुओं की दलित आबादी है जो बंटवारे के वक्त तमाम वजहों से भारत नहीं आ पाई. पाकिस्तान में गैरमुस्लिमों की आबादी को उस हद तक पहुंचा दिया गया कि वह चीजों को बदलने या अपनी आवाज उठाने में अब सक्षम नहीं है.

रविवार के अवकाश से सिर्फ मुसलमानों को तकलीफ क्यों हो रही भला?

दूसरी घटना भारत की है. झारखंड में एक गांव के लोगों ने कह दिया कि साब अब हमारी आबादी 75 प्रतिशत हो गई है- इसलिए स्कूलों में साप्ताहिक अवकाश रविवार की बजाए जुमे (शुक्रवार) को ही हो. मजेदार यह है कि हेमंत सोरेन की सरकार ने निर्देश भी जारी कर दिया कि अधिसूचित उर्दू स्कूलों में शुक्रवार से छुट्टी होगी, बाकी स्कूलों में पहले की तरह साप्ताहिक अवकाश रविवार को ही रहेगा. झारखंड के अलावा देश के कई इलाकों में जुमे की छुट्टी की मांग होने लगी है. एक राज्य में सिर्फ एक मजहब के लिए मजहबी आधार पर साप्ताहिक अवकाश तय किया गया. बढ़ी आबादी के हवाले से जो तर्क परोसा गया उसके आधार पर तो यही लग रहा है कि असम, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, तेलंगाना और केरल जैसे देश के एक बड़े भूभाग पर मुसलमानों के लिए स्वतंत्र व्यवस्थाएं करनी ही पड़ेंगी.

Demographic imbalance in Indiaराजस्थान में विवादित धार्मिक जुलूस जहां हाल ही में सिर तन से जुदा के नारे लगाए गए. प्रतीकात्मक फोटो.

जबकि रविवार का अवकाश अंग्रेजों की व्यवस्था है. इसका संबंध हिंदुओं की बजाए ईसाइयों से है. ईसाई समुदाय रविवार को चर्चों में सामूहिक पूजा के लिए जुटता है. बावजूद भारत जैसे हिंदू बहुल देश में सहज हो चुके रविवार के अवकाश को कभी बदलने की जरूरत महसूस नहीं हुई. बहुसंख्यकों ने भी इसे धर्म के साथ जोड़ना अनुचित और आतार्किक ही माना. अब भारत में एक तबके को चुल्ल हो रही है कि वह गंगा को उलटा बहाकर हिमालय की तरफ ले जाएंगे तो पागलपन पर क्या ही कहा जाए? और उन पार्टियों पर क्या कहा जाए जो क़ानून बनाकर ऐसी मनमानियों को संरक्षण प्रदान करते हैं. जबकि असलियत में यह संविधान की अवहेलना है. देश की संप्रभुता और अखंडता पर भी हमला है. क्या इसकी वजह एक अल्पसंख्यक वर्ग की जरूरत से ज्यादा आबादी है?  वे कुछ भी करवाने को सक्षम हैं.

खैर. आगे जो बात होगी, ऊपर की दोनों घटनाओं का उससे कोई सीधा-सीधा संबंध नहीं दिखता है बावजूद गहरा संबंध है. तो फिलहाल बहुत तेज आवाज में सवाल किया जाना चाहिए कि आखिर हो क्या रहा है और वजहें क्या हैं? भारत जैसे देश के लिए बढ़ती आबादी और मजहबी असंतुलन भयावह सिरदर्द है. बढ़ती जनसंख्या के तमाम खतरे, पाकिस्तान-बांग्लादेश से मिल रहे उदाहरणों से स्पष्ट नजर आते हैं. आज की तारीख में पाकिस्तान की आबादी रिकॉर्ड स्तर पर 23 करोड़ और बांग्लादेश की जनसंख्या 15 करोड़ के आसपास है. जबकि बांग्लादेश की मुक्ति के समय अविभाजित पाकिस्तान के जनसांख्यिकीय हालात दूसरे थे. तब बांग्लादेश की आबादी पाकिस्तान से भी ज्यादा थी. मगर मुक्ति के बाद बांग्लादेश ने चीजों में तेजी से सुधार किया और अपनी राष्ट्रीय सामाजिक जरूरतों के हिसाब से बहुत हद तक आबादी को संतुलित करने में कामयाबी पाई. बावजूद कि वहां भी अल्पसंख्यकों की आबादी बुरी तरह से घटी है. दूसरी तरफ पाकिस्तान की आबादी जिस तरीके बढ़ रही है ज्यादा से ज्यादा एक दशक में वह बांग्लादेश से दोगुनी भी हो सकती है. लोगों को ताज्जुब होगा मगर यह भी हकीकत है कि सिर्फ तीन दशक पहले आर्थिक मोर्चे पर पाकिस्तान ना सिर्फ बांग्लादेश बल्कि कई मायनों में भारत से भी बहुत आगे था.

लेकिन पिछले तीन दशक में वहां जिस तरह अरब प्रायोजित इस्लामीकरण हुआ और मदरसों और मस्जिदों का नेटवर्क समूचे पाकिस्तान में पसरा- चीजें उलट पुलट हो गईं. (अरब मदरसों के जरिए क्या करवाता है पैसे देकर बीबीसी की रिपोर्ट से यहां क्लिक कर बेहतर समझ सकते हैं). पाकिस्तान में जनसंख्या को नियंत्रित करने के बारे में आज की कोई सरकार कल्पना तक नहीं कर सकती. इसलिए कि इस्लाम में प्रजनन नियंत्रित करने की सख्त मनाही है. तमाम इलाकों में पुरुषों के बीच बहुविवाह की मध्ययुगीन प्रथाएं जारी हैं. बेतहाशा बच्चे पैदा किए जा रहे हैं. पचास प्रतिशत से ज्यादा बच्चों को स्कूल नहीं मिल रहा. अरब प्रायोजित मदरसा मजबूरी है. रोजगार के मौके नहीं हैं. यह मुसलमानों की हालत है. जबकि उसी पाकिस्तान में दूसरे अल्पसंख्यक समूहों की आबादी बेतहाशा घटती दिख रही है और अब कई अनुसूचित जाति और जनजातियां दुर्लभ होने की कगार पर हैं. हालत इतने खराब हैं पाकिस्तान की सरकार अल्पसंख्यकों के जनसांख्यिकीय आंकड़ों और प्रजनन दर को उजागर ही नहीं कर रही. सही आंकड़े आने के बाद पाकिस्तान दुनिया को मुंह दिखाने लायक नहीं रहेगा कि वहां अल्पसंख्यकों को कौन सी धरती निगल गई?

पाकिस्तान में धर्मांतरण के नानाप्रकार के हथकंडे हैं

सरकारी संरक्षण में वहां अंधीधुन धर्मांतरण की प्रक्रिया दिखती है. कई हथकंडे हैं. लोगों की संपत्तियों को कब्जे में लेकर, मुकदमों का दबाव बनाकर, धमकाकर, बरगलाकर. और सबसे बड़ी वजह दूसरे अल्पसंख्यक समूहों की लड़कियों को अगवाकर. वहां अल्पसंख्यकों के कई समूहों में लैंगिंक अनुपात पहले से ही खराब था लेकिन, अपहरण की संस्थागत और बेतहाशा कोशिशों की वजह से अल्पसंख्यक वर्ग में किशोरों को विवाह के लिए अब लड़कियां ही नहीं मिलती हैं. इससे बचने के लिए गैरमुस्लिमों में बाल विवाह का चलन खूब बढ़ा. मगर अब नाबालिग लड़कियों को अगवा किया जा रहा है जिनका जिक्र ऊपर किया गया. विवाहित गैरमुस्लिमों पर बलात्कार की हजारों घटनाएं ही नहीं दर्ज होतीं. पाकिस्तान के अल्पसंख्यक समूहों में प्रजनन दर के चिंताजनक स्तर तक पहुंचने और जनसंख्या के अस्वाभाविक असंतुलन के पीछे की वजहों को समझना मुश्किल नहीं होना चाहिए. हिंदू-सिख-ईसाई सब उनके निशाने पर हैं. मस्जिदों/मदरसों के मौलाना संरक्षण देते हैं. राजनीति में मौलानाओं का दबदबा कुछ यूं है कि कोई पार्टी उसके खिलाफ आवाज तक नहीं उठाती. अल्पसंख्यकों के खिलाफ बांग्लादेश में भी ऐसे हालात हैं बावजूद वहां चीजें अभी भी विस्फोटक नहीं दिखीं. पाकिस्तान में तमाम चीजें अंधी सुरंग में हैं.

बच्चे पैदा करने पर रोक की मनाही हिंदुओं में भी है, लेकिन...

दिलचस्प यह भी है कि हिंदुओं में विवाह संस्कार के रूप में दर्ज है. उसके कई प्रकार बताए गए हैं और हर गृहस्थ या स्त्री पुरुष के प्रेमपूर्ण संबंधों को प्रजनन के लिए प्रेरित किया जाता है. यानी देखा जाए तो धार्मिक आधार पर हिंदुओं में भी प्रजनन रोकना एक तरह से अधर्म ही है. बावजूद देशकाल की जरूरतों में लोगों ने उस चीज को पीछे छोड़ना उचित समझा. चार दशक पहले तक देश में बहुसंख्यकों में भी दो से दस या उससे ज्यादा बच्चे पैदा करना आम बात थी. लेकिन जनसंख्या को लेकर भारतीय कोशिशों और समाज की प्रगतिगामी सोच ने उसे बहुत हद तक नियंत्रित कर लिया है. अन्य अल्पसंख्यक समूहों ने भी किया है. मुसलमानों में भी हुआ है. अशराफों की वजह से उनकी प्रजनन दर भी कम हुई है. बावजूद देश में मुसलमानों की प्रजनन दर अन्य सभी धार्मिक समूहों से बहुत ज्यादा है. हिंदुओं का लक्ष्य के मुताबिक़. बौद्ध, जैन, सिख, ईसाइयों में प्रजनन दर कम है. पारसियों में तो यह चिंताजनक स्तर पर है. प्रजनन दर से आबादी पर सीधा असर पड़ता है.

आजादी के बाद भारत में हिंदुओं की आबादी 30 करोड़ थी जो फिलहाल तिगुनी यानी 96 करोड़ से कुछ ज्यादा है. मुसलमानों की आबादी मात्र 3.5 करोड़ थी जो आज की तारीख में करीब-करीब छह गुना ज्यादा यानी 17 करोड़ से ज्यादा है. आजादी के समय और आज की तारीख में अन्य धार्मिक समूहों की आबादी की वृद्धि दर लगभग हिंदुओं की तरह या उससे भी कम है. भारत को समझना होगा कि आबादी का ना तो बहुत बढ़ना फायदेमंद है और ना ही कम होना. हमें कहीं दूर देखने की जरूरत नहीं. उदाहरण हमारे आसपास ही हैं. बिल्कुल अपने करीब देखिए. हम दोनों के दुष्परिणाम देख सकते हैं. झारखंड में जुमे पर सरकारी साप्ताहिक अवकाश घोषित करना उसी का नतीजा है.

हम दो पड़ोसियों से सबक ले सकते हैं. अगर लेना चाहें तो. चीन ने बढ़ती आबादी से चिंतित होकर प्रजनन दर को इतना नियंत्रित किया कि वहां अब आबादी ने अलग तरह की चिंता पैदा कर दी है. देश पर वृद्धजनसंख्या आने वाले कुछ सालों में हिमालय जैसे बोझ की तरह साबित होने जा रही है. अगले दस-बीस साल के अंदर चीन को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी. चीन और पाकिस्तान के उदाहरण साफ़ संकेत है कि अगले कुछ सालों में भारत को क्या कुछ देखना पड़ सकता है. अब एक बच्चे पैदा करने में संतुष्ट दिख रही हिंदू या दूसरी गैरमुस्लिम आबादी कुछ साल बाद चीन की तरह बूढ़ी हो जाएगी. और बहुत आशंका है कि मुस्लिम आबादी ज्यादा जवान होगी. आबादी में ऐसे असंतुलन के नफे नुकसान को लेकर आप खुद निष्कर्ष निकाल सकते हैं. आबादी के मोर्चे पर देश के सामने खड़ी होने वाली चुनौतियां सिर्फ रोजगार और लोगों का पेट भरना भर नहीं हैं.

वरिष्ठ नौकरशाह कुरैशी और अपढ़ मुसलमान बच्चे पैदा करने पर क्यों एक तरह से सोचता है?

आबादी के असंतुलन को लेकर समाज में बहस है. हालांकि पूर्व नौकरशाह और विद्वान एसवाई कुरैशी मुसलमानों की बढ़ती आबादी को बहुत सामान्य मानते हैं और जरूरी चिंताओं को अफवाह बताकर खारिज कर देते हैं. चीजों को राजनीति से प्रेरित बताते हैं और एक मोटी सी किताब लिख देते हैं. पिछले कुछ महीनों में मैंने एक चीज गौर की है. शायद आपकी आंखों के सामने से भी होकर गुजरा हो. मुझे सोशल मीडिया पर कुछ ख़ास तरह के वीडियो दिखे. हो सकता है कि इन्हें राजनीतिक प्रोपगेंडा के तहत ही बनाया गया हो. मगर वीडियो में एक समाज विशेष का जनसांख्यिकीय सवालों पर गैरजिम्मेदाराना बयान भयवाह है. लोग बहुत सामान्य तरीके से कई पत्नियों को रखने और कई बच्चे पैदा करने की बात कहते हैं. पाकिस्तान में बिल्कुल ऐसा ही है.

वीडियो में लोग कहते हैं कि जब वे खुद अपनी पत्नियों और बच्चों का पेट पालते हैं. उनकी मर्जी है, चाहे जितने बच्चे पैदा करें. जब कोई खिला नहीं रहा, फिर दूसरे कैसे तय करेगा कि बच्चे दो ही अच्छे. वह यह भी कहते हैं कि परिवार में ज्यादा लोग होते हैं तो ज्यादा कमाई आती है. ज्यादा बच्चे होने का एक फायदा यह भी है कि अगर एक दो नालायक निकल गए तो घर संभालने के लिए और बच्चे मौजूद रहते हैं. यह तबका असल में सर्विस क्लास है. असंगठित पेशों से घरबार चलाने वाला. वह सब्जी बेंचने वाले, मजदूरी करने वाले, रिक्शा खींचने वाले, ऑटो टैक्सी चलाने वाले और ऐसे ही छोटे मोटे कामधंधा या रोजी रोजगार करने वाले लोग हैं.

कम-पढ़ा लिखा और मजहबी रूप से जड़ तबका भी लगभग वही बात करता है, जिसे कुरैशी साब अंग्रेजी में 'इस्लामोफोबिया' के बहाने बौद्धिक अंदाज में कहने की कोशिश करते हैं. अगर किसी समाज में पढ़े-लिखे लोगों और कम पढ़ें लिखे-लोगों का एक सा रवैया है तो 75 साल में देश की जिस समुदाय की आबादी छह गुना बढ़ी है वह अगले दो दशक में तीन से चार गुना क्यों नहीं बढ़ सकती है? क्या यह चिंताजनक नहीं है. बढ़ी आबादी को कौन नियंत्रित करेगा? किस संविधान क़ानून से सामजिक व्यवस्था चलेगी? क्योंकि इनकी अपनी मजहबी व्यवस्थाएं हैं और प्राय: देखने में आता है कि हर चीज में मजहब की टांग आ ही जाती है.

असंख्य उदाहरण हैं मुझे बताने की जरूरत नहीं. आपके ही सिस्टम में आने वाले दिनों में पाकिस्तान की तरह भारत में भी मौलाना चीजों को नियंत्रित करते दिखेंगे. आप चाहकर भी कुछ नहीं कर पाएंगे. वैसे भी ज्यादा पुरानी बात नहीं है जब भारत की राजनीतिक पार्टियां चुनाव जीतने के लिए मतदाताओं के बीच जाने से कहीं ज्यादा इमामों/मौलानाओं की चरणवंदना करते दिखती थीं.अभी भी, मगर दूसरे तरीके से. वोट मिल भी जाता है. मुसलमान मतदाताओं को कुछ मालूम हो या ना हो, मगर यह अच्छी तरह पता है कि कब, देश के किस राज्य में, किस पार्टी के साथ जाना है. वह भी एकमुश्त.

आबादी के मोर्चे पर भारत में दो धार्मिक समुदायों में एक वर्ग का सर्विस क्लास (छोटे मोटे काम धंधा मेहनत मजूरी करने वाले) चाहता है कि उसके बच्चे पढ़ लिखकर ऊपर जाए. चौकीदार अपने बेटे को चौकीदार नहीं बनाना चाहता और इसके लिए वह अपनी हड्डियां घिस दे रहा है. उनके बच्चे पिताओं से बेहतर बन भी रहे हैं. लेकिन एक दूसरे वर्ग का सर्विस क्लास चाहता है कि उसका परिवार बढ़े. मदरसे से शिक्षित होकर उसका बेटा पिता के काम-धंधे में हाथ बटाए. वह संतुष्ट है. वह महंगाई, गरीबी, भूख, भ्रष्टाचार पर वोट नहीं करता.

ऐसा नहीं है कि बिना सर्विस क्लास के किसी आत्मनिर्भर देश की व्यवस्था चल जाएगी. सर्विस क्लास की जरूरत हमेशा है, मगर वह स्वाभाविक हो तो बेहतर. भारत का मकसद सर्विस क्लास बढाने की बजाए उसे कम करना ज्यादा ठीक है. बावजूद कि खाड़ी देशों में भारत के सर्विस क्लास की भारी डिमांड है. मगर उसकी कीमत हम क्यों चुकाएं? और उस सर्विस क्लास का बेजा बोझ दूसरे लोग क्यों उठाएं? पाकिस्तान और चीन से सबक लेते हुए यह सही समय है कि भारत के सभी धार्मिक समूहों को जनसांख्यिकीय चिंताओं के मद्देनजर सामंजस्य बिठाते हुए एक दिशा में एक लक्ष्य के लिए कार्य करना चाहिए.

महान शायर स्वर्गीय राहत इंदौरी जी का शेर यहां भी पूरी तरह से फिर बैठता है:-

लगेगी आग तो आएंगे घर कई जद में यहां पे सिर्फ हमारा मकान थोड़ी है.

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लेखक

अनुज शुक्ला अनुज शुक्ला @anuj4media

ना कनिष्ठ ना वरिष्ठ. अवस्थाएं ज्ञान का भ्रम हैं और पत्रकार ज्ञानी नहीं होता. केवल पत्रकार हूं और कहानियां लिखता हूं. ट्विटर हैंडल ये रहा- @AnujKIdunia

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