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Updated: 29 अक्टूबर, 2022 09:09 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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मल्लिकार्जुन खड़गे (Mallikarjun Kharge) और प्रियंका गांधी वाड्रा दोनों ही कांग्रेस में काफी दिनों से संकटमोचक की भूमिका में देखे गये हैं. ये ठीक है कि संकटमोचक के रूप में मल्लिकार्जुन खड़गे के मुकाबले प्रियंका गांधी ने ज्यादा सुर्खियां बटोरी है.

लेकिन दोनों ही नेताओं का ट्रैक रिकॉर्ड मिलता जुलता ही रहा है. कांग्रेस के सामने आये संकटकाल में दोनों ही नेताओं को काफी एक्टिव देखा गया है. दोनों ही अपनी तरफ से पहल करते भी देखे गये हैं, लेकिन नतीजे दोनों के हिस्से में एक जैसे ही रहे हैं - दोनों ही संकट को टालने में माहिर हैं, लेकिन आखिर तक वो मामला उलझा ही रहता है.

संकटकाल में मल्लिकार्जुन खड़गे और प्रियंका गांधी में गांधी परिवार के होने और न होने का फर्क भी साफ देखा गया है. मल्लिकार्जुन खड़गे को जहां गांधी परिवार ड्यूटी पर तैनात करता रहा, प्रियंका गांधी के पास ये विशेष सुविधा रही कि वो भाई और मां से सीधे संपर्क कर लेतीं - और गांधी परिवार से होने के नाते उनका वजन भी ज्यादा महसूस किया जाता रहा.

कागजी कांग्रेस में ताजा हैसियत की बात करें तो मल्लिकार्जुन खड़गे अध्यक्ष बन चुके हैं और जो स्टीयरिंग कमेटी बनायी है, उसमें प्रियंका गांधी का नाम 19वें नंबर पर है. जिस सूची में पहले नंबर पर सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) हैं, प्रियंका गांधी के लिए राहत की बात इतनी ही है कि पी. चिदंबरम को उनके नीचे यानी 20वें नंबर पर जगह मिली है.

कांग्रेस में आज कल राहत काल चल रहा है. सोनिया गांधी ने मल्लिकार्जुन खड़गे के कांग्रेस अध्यक्ष बनने पर कहा था कि जो हुआ है, उससे उनको बहुत बड़ी राहत मिली है, लेकिन कोई खुल कर ये नहीं कह पा रहा है कि सबसे ज्यादा राहत तो राहुल गांधी महसूस कर रहे होंगे - भले ही राहुल गांधी राहत की ये बात अपनी मुस्कुराहट के पीछे छुपाते फिर रहे हों.

सच तो ये है कि सोनिया गांधी ने मल्लिकार्जुन खड़गे को कांग्रेस का अध्यक्ष बना कर राहुल गांधी (Rahul Gandhi) को डबल राहत बख्श दी है - अब तो कम से कम राहुल गांधी को अध्यक्ष बन जाने वाले टेंशन से तो मुक्ति मिल ही गयी है. अब इससे अच्छी बात क्या होगी कि कांग्रेस में मनमानी करने की पूरी छूट के साथ राहुल गांधी के लिए मल्लिकार्जुन खड़गे के जरिये विपक्षी खेमे के नेताओं से संवाद और संपर्क करना हद से ज्यादा आसान हो जाएगा.

विपक्ष की समस्या तो विपक्ष ही जाने, राहुल गांधी को क्या फर्क पड़ता है - मल्लिकार्जुन खड़गे के हाथ लग जाने के बाद अब तो राहुल गांधी यही चाहेंगे कि जैसे कांग्रेस को चलाते हैं, विपक्ष के साथ भी वैसे ही पेश आयें, जिसे मंजूर हो वो साथ रहे, जिसे न हो वो अपनी राह पकड़ ले.

कांग्रेस और विपक्ष के बीच संवाद सेतु बनेंगे खड़गे

मान कर चलना चाहिये कि विपक्षी खेमे के नेताओं के लिए भी राहुल गांधी और सोनिया गांधी के मुकाबले मल्लिकार्जुन खड़गे से डील करना ज्यादा ही आसान होगा - वैसे शरद पवार और ममता बनर्जी जैसे कुछ नेता ऐसे भी हो सकते हैं, जो सोनिया गांधी के साथ बातचीत में ही ज्यादा सहज महसूस करते रहे हैं, ऐसे नेताओं के लिए मल्लिकार्जुन खड़गे और राहुल गांधी में कोई अंतर नहीं लग सकता है.

rahul gandhi, mallikarjun kharge, sonia gandhiराहुल गांधी की राजनीति के मास्टर की बन गये हैं मल्लिकार्जुन खड़गे

विपक्ष के बाकी नेताओं के लिए सोनिया गांधी की बातों के खास मायने होते थे, लेकिन राहुल गांधी को भाव देने वाले कम ही नेता हैं. तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन और उनके बेटे उदयनिधि स्टालिन को छोड़ दें तो ले देकर बिहार के डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव ही राहुल गांधी को तवज्जो देते हैं - वो भी जब से राहुल गांधी के साथ दिल्ली में लंच किया और तस्वीर शेयर की है.

अब भले ही ममता बनर्जी कहती फिरें कि संविधान में कहां लिखा है कि हर बार सोनिया गांधी से मिलना ही चाहिये, लेकिन पहले तो ऐसा नहीं होता था. और राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष होते हुए भी ममता बनर्जी मिलना नहीं चाहती थीं. शरद पवार तो कई बार राहुल गांधी को लेकर बयान भी दे चुके हैं - और महाराष्ट्र में महाविकास आघाड़ी सरकार बनाने के लिए भी पवार ने सोनिया गांधी से ही संपर्क किया था, राहुल गांधी को तो कई चीजों की भनक भी नहीं लगी होगी. और ये बात भी सवालों को लेकर शरद पवार के जवाब से ही समझ में आयी थी.

कुल मिला कर समझ में यही आया है कि विपक्ष के ज्यादातर नेता सोनिया गांधी के प्रति तो बड़ा ही सम्मान भाव रखते रहे हैं, लेकिन राहुल गांधी को कोई भी भाव नहीं देता था. अब मल्लिकार्जुन खड़गे से बातचीत होने पर कम ही लोग ऐसे हो सकते हैं जिनको दिक्कत होनी चाहिये - भला राहुल गांधी के लिए इससे बड़ी राहत वाली बात क्या होगी.

विपक्षी दलों के साथ किसी तरह के गठबंधन या सीटों पर समझौते को लेकर राहुल गांधी पहले एक लाइन तय करेंगे और मल्लिकार्जुन खड़गे उसी के आधार पर आगे की बातचीत करेंगे. विपक्षी नेताओं के साथ जहां सहमति बनती दिखायी देगी वहां से बीच का रास्ता निकाल कर राहुल गांधी को समझाने की कोशिश करेंगे - आखिरी फैसला तो राहुल गांधी ही लेंगे.

पहले की बातें छोड़ भी दें तो हाल के राष्ट्रपति चुनाव में भी मल्लिकार्जुन खड़गे ने काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी. जब कांग्रेस की तरफ से पहल शुरू हुई तो वो मल्लिकार्जुन खड़गे ही सोनिया गांधी के दूत बन कर विपक्षी खेमे के नेताओं से मिलते रहे. विपक्ष के नेताओं को सोनिया गांधी का वो संदेश समझाने में भी सफल रहे कि विपक्ष की तरफ से कोई एक ही उम्मीदवार होना चाहिये. कांग्रेस ने पहले से ही तय कर लिया था कि इस बार पार्टी का कोई नेता राष्ट्रपति चुनाव में उम्मीदवार नहीं होगा. ये विपक्ष से कनेक्ट होने की रणनीति भी रही, जो सफल भी रही.

नीतीश कुमार ने जो पहल की है

कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव के दौरान पटना पहुंचे मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा था कि विपक्ष को एकजुट करने की नीतीश कुमार की तरफ से जो पहल शुरू हुई है, फैसला वही लेंगे. लालू यादव के साथ मिलने गये नीतीश कुमार को भी सोनिया गांधी ने पहले ही संकेत दे दिया था कि जो भी विचार विमर्श होगा वो कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव के बाद ही होगा.

नीतीश कुमार ने लालू यादव के साथ सलाह मशविरा करके ऐसे वक्त एनडीए छोड़ने का फैसला किया जब कांग्रेस की स्थिति भी ठीक नहीं चल रही थी. सोनिया गांधी और राहुल गांधी नेशनल हेराल्ड केस में प्रवर्तन निदेशालय की पूछताछ से परेशान रहे. मुश्किल तो ये हो गयी थी कि राष्ट्रपति चुनाव में सोनिया गांधी ने जो तैयारी की थी, मल्लिकार्जुन खड़गे के हाथों ही ममता बनर्जी को भिजवा दी थी. शरद पवार को तो मल्लिकार्जुन खड़गे ने सोनिया गांधी का संदेश पहले ही दे दिया था.

तब तो हाल ये हो रखा था कि राहुल गांधी की मनी लॉन्ड्रिंग केस में गिरफ्तारी तक की आशंका जतायी जाने लगी थी. बाकियों की कौन कहे मीडिया से बातचीत में कांग्रेस के कई नेताओं ने भी ऐसा महसूस किया था. कुछ दिन बाद ये भी पता चला था कि प्रवर्तन निदेशालय फिर से राहुल गांधी से पूछताछ की तैयारी कर रहा है. लेकिन अभी तो ऐसा कुछ सामने नहीं आया है. अगर नोटिस मिलेगा तो सबको मालूम हो ही जाएगा.

राहुल गांधी का इल्जाम रहा है कि केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार के दबाव में ही प्रवर्तन निदेशालय के अधिकारी गांधी परिवार को परेशान कर रहे हैं. ऐसे भी समझ सकते हैं कि राहुल गांधी ने बीजेपी के साथ सीधे टकराव का रास्ता बदल दिया है.

बीजेपी से सीधा टकराव गुजरात और हिमाचल प्रदेश चुनावों में होना था. अव्वल तो राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा के रूट में गुजरात और हिमाचल प्रदेश को शामिल ही नहीं किया, और हिमाचल प्रदेश में प्रियंका गांधी के कमान संभालने के बाद ये भी साफ हो चुका है कि गुजरात में भी मोर्चा वही संभालने जा रही हैं. और राहुल गांधी दोनों ही चुनावों से करीब करीब दूर ही रहने वाले हैं - और तब तक सीबीआई और दूसरी जांच एजेंसियां राहुल गांधी से ज्यादा मनीष सिसोदिया पर ध्यान देने लगी हैं.

ऐसे में नीतीश कुमार के लिए नुकसान वाली बात ये है कि राहुल गांधी लोगों से जुड़ने के बाद आत्मविश्वास से लबालब नजर आ रहे हैं. ऐसा आत्मविश्वास राहुल गांधी में 2018 मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को मिली जीत के बाद देखने को मिला था - ये आत्मविश्वास नीतीश कुमार जैसे सभी नेताओं के लिए निराश करने वाला है.

मल्लिकार्जुन खड़गे के कांग्रेस अध्यक्ष बन जाने के बाद से राहुल गांधी के सिर से बड़ा बोझ उतर चुका है, और दक्षिण भारत में कांग्रेस के बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद करने लगे होंगे. हालांकि, ऐसी उम्मीदों का असली परीक्षण तो कर्नाटक चुनाव में ही हो पाएगा, लेकिन तब तक राहुल गांधी काफी बदल चुके होंगे, ऐसा लगने लगा है.

राहुल गांधी का जो रूप अभी दिखायी पड़ रहा है, वैसा कभी नहीं देखने को मिला है - आप चाहें तो कोरोनाकाल के बाद और पश्चिम बंगाल चुनावों तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जैसा लुक कांग्रेस नेताओं को राहुल गांधी में नजर आ रहा होगा. जिस कदर बच्चे और बूढ़े राहुल गांधी का भारत छोड़ो यात्रा के दौरान माथा चूम रहे हैं, उससे तो उनकी लोकप्रियता में इजाफा महसूस किया ही जा सकता है.

वैसे भी राहुल गांधी उत्तर के मुकाबले दक्षिण भारत में ज्यादा सहज महसूस करते हैं. और महसूस ही नहीं करते, सार्वजनिक तौर पर बोल भी चुके हैं कि दक्षिण भारत के लोग उत्तर भारतीयों के मुकाबले राजनीति की बेहतर समझ रखते हैं.

ऐसी सारी बातों के नीतीश कुमार जैसे नेताओं के लिए निराश करने वाली एक ही बात है, वो ये कि प्रधानमंत्री पद पर कांग्रेस की तरफ से राहुल गांधी की दावेदारी अचानक फिर से और ज्यादा ही मजबूत लगने लगी है.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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