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Updated: 12 मार्च, 2022 08:09 PM
अनुज शुक्ला
अनुज शुक्ला
  @anuj4media
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उत्तर प्रदेश में नई सरकार के गठन और उसके स्वरूप पर लोगों की नजरें हैं. मोदी-योगी के नेतृत्व में रिकॉर्डतोड़ जीत के बाद योगी कैबिनेट को लेकर चर्चाएं शुरू हैं. तमाम सूत्र अपनी तरफ से नाम सुझाने लगे हैं. हालांकि अभी पुष्ट रूप से किसी भी तरह का कैबिनेट फ़ॉर्मूला सामने नहीं आया है. मगर चुनाव से पहले भाजपा सरकार के खिलाफ कुछ मुद्दों पर लोगों के गुस्से, सिराथू में केशव मौर्य की हार और पार्टी की रिकॉर्डतोड़ जीत में दिखी भविष्य की उम्मीदों के लिहाज से योगी की नई कैबिनेट के साथ-साथ यूपी भाजपा के संगठनिक चेहरे में भी फेरबदल की उम्मीद करना गलत नहीं होगा.

होली के बाद योगी सरकार के शपथ ग्रहण में निश्चित ही बदलाव दिखेगा. इसके पीछे बहुत हद तक दो साल बाद के लोकसभा चुनावों को लेकर भाजपा की रणनीतियां काम करेंगी. कई चीजें चौंका भी सकती है. जहां तक यूपी में संगठन और सरकार में शीर्ष शक्ति केन्द्रों के बंटवारे की बात है भाजपा 2017 के फ़ॉर्मूले को ही थोड़े फेरबदल के साथ लागू करना पसंद करेगी. पार्टी सूत्रों का भी कहना है कि फ़ॉर्मूला लगभग वही रहेगा- बस इसमें थोड़ा सा फेरबदल होगा. सत्ता के बंटवारे का फ़ॉर्मूला 1+2 ही होगा. यानी एक मुख्यमंत्री के साथ दो उपमुख्यमंत्री.

केशव मौर्य, हटने के संकेत और संयोग कई हैं

योगी आदित्यनाथ तो मुख्यमंत्री बनने जा रहे मगर सवाल है कि क्या उनके दोनों मातहत उपमुख्यमंत्री भी दोहराए जाएंगे? शायद नहीं, और इसकी ठोस वजहें हैं. एक तो केशव मौर्य चुनाव हार चुके हैं. हालांकि पराजय ऐसी वजह नहीं कि उन्हें दोबारा उपमुख्यमंत्री ना बनाया जा सके. लेकिन पराजय से पार्टी में विरोधियों को नैतिक बल मिला है जिसके आधार पर उनकी उम्मीदवारी का विरोध होगा. केशव के वापस ना आने की सबसे बड़ी वजह- सत्ता वर्चस्व को लेकर पार्टी के अंदर और बाहर योगी के साथ उनकी कथित प्रतिस्पर्धा हो सकती है.

cm-yogi-650_031222073028.jpgयोगी आदित्यनाथ.

ये दूसरी बात है कि योगी और केशव, दोनों ने किसी भी तरह की तनातनी को खारिज किया और रिश्ते बेहद सामान्य बताए. पर एक ही पार्टी और सरकार में साथ-साथ रहने के बावजूद कभी सार्वजनिक रूप से दोनों का तालमेल नहीं दिखा. योगी और केशव की कथित प्रतिस्पर्धा ने विपक्ष को भाजपा के गैरयादव ओबीसी समीकरण को खराब करने का मौका दिया और समूचे चुनाव में भाजपा को उससे परेशानी भी होती दिखी. भाजपा से दलबदल करने वाले पिछड़े नेताओं ने बढ़-चढ़कर इसे प्रचारित किया. दावा भी किया कि सरकार में केशव की बिल्कुल नहीं चलती थी. वे शो पीस भर थे. भाजपा नेता आख़िरी चरण के मतदान तक सफाई देते रहे.

केशव मौर्य की जगह कौन लेगा?

अगर केशव मौर्य को बदला जाता है तो उनकी जगह भाजपा प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह लेंगे. भाजपा प्रदेश अध्यक्ष की कई खूबियां भाजपा के संभावित समीकरण में उन्हें हर तरह से फिट साबित करती हैं. एक तो स्वतंत्र देव सिंह यूपी के मजबूत सांगठनिक नेता माने जाते हैं. कार्यकर्ताओं में उनकी पकड़ है. पिछड़ी जाति (कोइरी कुर्मी) से हैं. उनका राजनीतिक बैकग्राउंड संघ और उसके अनुषांगिक संगठनों से जुड़ा है. योगी के साथ स्वतंत्र देव सिंह सबसे उपयुक्त पिछड़े चेहरों में इस वजह से भी हो सकते हैं कि योगी और पार्टी के दूसरे बड़े नेताओं के साथ उनकी ट्यूनिंग बेहतर है.

दूसरा- कोइरी-कुर्मी जाति से होने की वजह से अपना दल (सोनेलाल) की अनुप्रिया पटेल को नियंत्रित रखने में उनका चेहरा दबाव की तरह काम करता रहेगा. तीसरा- स्वतंत्र देव सिंह की पूर्वांचल और बुंदेलखंड में जबरदस्त पकड़ है. वे मूलत: मिर्जापुर जिले से हैं. जबकि उनका कार्यक्षेत्र बुंदेलखंड है. चौथी सबसे बड़ी वजह स्वतंत्र देव का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का खासम ख़ास होना है. शायद लोगों को नहीं पता होगा कि जब 2014 से पहले मोदी को प्रधानमंत्री पद का चेहरा बनाया गया था, यूपी में उनकी रैलियों के आयोजन और उसकी व्यवस्था का जिम्मा स्वतंत्र देव के ही हाथों में था. मोदी और अमित शाह उनके काम से बहुत प्रभावित थे और प्रबंधकीय कौशल की वजह से ही उन्हें मोदी-शाह ने यूपी की कमान दी थी.

swatantra-dev-650_031222073051.jpgस्वतंत्र देव सिंह.

जहां तक केशव मौर्य को एडजस्ट करने की बात है, फिलहाल तो उन्हें केंद्र में ले जाया जा सकता है.

दिनेश शर्मा का क्या होगा?

दिनेश शर्मा के रूप में भी दूसरा उपमुख्यमंत्री शायद ही रिपीट हो. दिनेश शर्मा को ब्राह्मण चेहरे के रूप में केशव के साथ सरकार में नंबर दो की जगह तो दी गई, पर पार्टी की जरूरत के हिसाब से वे सक्रिय नहीं दिखे. महत्वपूर्ण पोर्टफोलियो होने के बावजूद वे हमेशा डंपिंग यार्ड में पड़े नजर आए और इसमें दोष खुद उनके एंड से ज्यादा है. जबकि उन्हीं के बराबर सहयोगी केशव मौर्य बहुत मुखर थे. दिनेश की सुस्ती का असर यह रहा कि सरकार में ब्राह्मण प्रतिनिधि के रूप में कोई दमदार चेहरा उभर नहीं पाया. उलटे चुनाव में ब्राह्मणों को बहुत भाव ना देने का आरोप भी पार्टी को झेलना पड़ा. दिनेश शर्मा का रिपीट ना किया जाना भाजपा के संभावित जातीय फ़ॉर्मूले की भी जरूरत है. असल में संभावना ज्यादा है कि अगड़ी जाति के मुख्यमंत्री की कैबिनेट में एक पिछड़ा और एक दलित चेहरा रखा जाए. सरकार में शीर्ष पद पर दो अगड़ी जाति के होने से नैरेटिव खिलाफ बन सकते हैं.

वैसे भी भाजपा को इस बार दलितों का जबरदस्त वोट मिला है. यह मत स्वाभाविक रूप से सपा विरोधी मत रहा है जो लाभार्थी योजनाओं या फिर अखिलेश को रोकने के लिए बीजेपी के साथ आया है. पहले यह मायावती के साथ था. बड़े दलित मत समूह को बरकरार रखने के लिए भाजपा इसी समुदाय से बड़ा नेतृत्व उभारे. उसके संभावित विकल्प के रूप में बेबी रानी मौर्य और पूर्व आईपीएस असीम अरुण के नाम की खूब चर्चा है. हालांकि बेबी रानी मौर्य, महिला और दलित होने की वजह से भाजपा की संभावित योजनाओं के लिहाज से ज्यादा अनुकूल नजर आ रही हैं. यानी सरकार में शीर्ष पद पर एक अगड़ी जाति का मुख्यमंत्री होगा, एक पिछड़ी जाति और एक दलित उपमुख्यमंत्री होगा.

फिर ब्राह्मणों को लुभाने के लिए भाजपा के पास क्या है?

योगी कैबिनेट में ब्राह्मणों को भी पर्याप्त जगह मिलेगी. पर सरकार में तीन शीर्ष पदों पर वे शायद ही दिखें. हां, भाजपा पार्टी में संगठन की कमान किसी ब्राह्मण चेहरे को सौंप सकती है जो अहम पद माना जा सकता है. वह विजिबल भी रहेगा. और इस चेहरे की वजह से भविष्य में भाजपा के खिलाफ ब्राह्मण कार्ड चलने का मौका भी नहीं रहेगा. वैसे भी तमाम प्रदेश अध्यक्षों को वेटिंग सीएम माना जाता है. राजनाथ सिंह से देवेंद्र फडणवीस तक तमाम बड़े उदाहरण नजर आते हैं. हालांकि प्रदेश अध्यक्ष के रूप में वह चेहरा कौन होगा, अभी इसके कयास लगा पाना मुश्किल है.

लेखक

अनुज शुक्ला अनुज शुक्ला @anuj4media

ना कनिष्ठ ना वरिष्ठ. अवस्थाएं ज्ञान का भ्रम हैं और पत्रकार ज्ञानी नहीं होता. केवल पत्रकार हूं और कहानियां लिखता हूं. ट्विटर हैंडल ये रहा- @AnujKIdunia

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