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Updated: 29 जून, 2018 10:36 AM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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"बहुत नीक लगता. आप सब लोगन के पाय लागीं..."

टूटी फूटी भोजपुरी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ये बनारसी अंदाज मगहर में देखने को मिला. चार साल वैसे भी कम नहीं होते - किसी बोली, भाषा, संस्कृति और लाइफ स्टाइल को समझने के लिए. बनारसी मस्ती तो ऐसी है कि एक बार जिसे लत लग जाये तो जिंदगी भर न भूल पाये. बनारसी मस्ती को महसूस करने के लिए भांग, गांजा, शराब या कोई और नशा करने की जरूरत नहीं पड़ती, काशी क्षेत्र में कदम रखते ही हर शख्स को इस चीज का अहसास हो जाता है. चार साल में मोदी ने भले ही काशी में कुछ ही दिन गुजारा हो, समझ तो लिया ही. जिसे गंगा खुद काशी बुलाये फिर उसके बारे में समझना समझाना क्या?

मोदी अच्छी तरह जानते हैं कि उनके आलोचकों को चार साल के शासन में कुछ भी नजर नहीं आता. खुद मोदी ने भी मगहर में ये बता दिया कि विरोधियों को ये बात समझ में नहीं आने की वजह क्या है - ये समाजवादी या बहुजन नहीं, परिवारवादी लोग हैं, जिनकी जड़ें जमीन से कट चुकी हैं. कनेक्ट होने की अदा तो मोदी को बाखूबी आती है. सिर्फ अदा ही क्यों कहें, मोदी को तो इसमें महारत हासिल है. जो दुनिया के किसी भी कोने में किसी भी मत या समुदाय के लोगों से अपनी वाक्पटुता के जरिये तत्काल जुड़ जाये उसे मगहर के लोग भी कुछ देर के लिए कबीरपंथी समझ बैठें तो अतिशयोक्ति की बात की गुंजाइश कम ही बचती है.

narendra modiमगहर से मोदी ने सुनाया राग कबीर

तो क्या मोदी के मगहर विजिट को 'संपर्क फॉर समर्थन' के रूप में देखा जा सकता है? इस मुहिम के तहत बीजेपी ऐसे लोगों को साधने में जुटी है जिनका समाज में असर है. बीजेपी ऐसे लोगों को उसी तरह इस्तेमाल करना चाहती है, जैसे कोई भी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म हो. जहां तक असर की बात है तो कबीरपंथियों की भी देश में तादाद अच्छी खासी है. माना जाता है कि कबीरपंथियों में सबसे ज्यादा दलित और पिछड़े समुदाय के लोग हैं. तो क्या कबीर भी अंबेडकर की तरह वोट दिला सकते हैं? तमाम कठिन कवायदों के बावजूद अंबेडकर तो ठीक से बीजेपी के हाथ नहीं आ पाये, क्या कबीर ये चमत्कार कर पाएंगे?

संपर्क फॉर समर्थन वाया 'कबीर'

क्या प्रधानमंत्री मोदी कबीर में अंबेडकर का अक्स देख रहे हैं? क्या मोदी और उनके सबसे भरोसेमंद साथी अमित शाह को लगता है कि जो काम अंबेडकर नहीं कर पाये वो चमत्कार कबीर कर सकते हैं?

बीजेपी ने 2019 के लिए स्लोगन भले बदल लिया हो, फिर भी कुछ न कुछ कमी उसे कदम कदम पर खटक रही है. बीजेपी को लगने लगा है कि कुछ पाने के चक्कर में कुछ ज्यादा ही खो न देना पड़े.

भले ही बीजेपी अगले आम चुनाव के लिए 'ऑपरेशन राष्ट्रवाद' चला रही हो, लेकिन वक्त के उसी दरख्त पर उसे लगता है कि 'सबका साथ, सबका विकास' कहीं दूर पीछे न छूट जाये. ये ठीक है कि सर्जिकल स्ट्राइक का वीडियो सौभाग्यवश सही वक्त पर लीक हुआ है, या कराया गया है. जो जैसे चाहे अपने हिसाब से समझने की पूरी छूट है.

narendra modiकबीर में अंबेडकर का अक्स तो नहीं देख रही बीजेपी?

बीजेपी ने स्लोगन भले ही बदल लिया हो - 'साफ नीयत, सही विकास', उसे ये अपूर्ण लग रहा है. डर है कहीं 'सबका साथ सबका विकास' जैसी बातों को लोग जुमला न समझ बैठें. एक को खुश रखने के चक्कर में दूसरा चुपके से रूठ न जाये. चवन्नी के चक्कर में अठन्नी हाथ से न निकल जाये. गोरखपुर से कैराना तक, वाया कर्नाटक, बीजेपी को लगातार गंवाते रहना पड़ा है. बीजेपी को लगने लगा है कि उसकी किस्मत इतनी अच्छी तो है कि विपक्ष कभी एकजुट नहीं हो सकता. तीसरे मोर्चे में प्रधानमंत्री पद का कम से कम दो-तीन उम्मीदवार तो रहेगा ही. मोदी को चैलेंज करने का ख्वाब संजोये राहुल गांधी को चुनौती देने वाले नीतीश कुमार को तो मोदी ने निबटा दिया, लेकिन तभी मौसम ने रंग बदला और बाग में ममता बनर्जी से लेकर अरविंद केजरीवाल जैसे फूल खिल आये. मोदी-शाह की जोड़ी को विपक्ष में ऐसी ही बहार तो चाहिये थी.

मगर, देश में तीसरे मोर्चे से बड़ी चुनौती मोदी-शाह के सामने मायावती-अखिलेश यादव की नई-नई बनी जोड़ी है. ये जोड़ी इतनी हिट है कि गोरखपुर, फूलपुर और कैराना तो टी-ट्वेंटी की तरह फटाफट निपटाती आई है. ये जोड़ी ऐसी जुड़ी है कि बीजेपी की अंबेडकर थ्योरी बेबस साबित हो रही है. मुमकिन है ऐसे में कबीर कुछ काम कर जायें.

अंबेडकर दलित समुदाय के बीच बेशक सबसे असरदार हैं, लेकिन कबीर तो सोशल इंजीनियरिंग के कम्प्लीट पैकेज हैं - वो भी टेट्रा पैक में. ऐसा पैकेज जो टिकाऊ भी है - और बिकाऊ भी.

narendra modiसाधो, अब तो कबीर को ही साधो!

जुलाहा परिवार में पले बढ़े कबीर से मुसलमान तो जुड़ा महसूस करता ही है, दलित और पिछड़े समुदाय के साथ साथ प्रबुद्ध वर्ग संतोष और सुकून भी महसूस करता है. कबीर की लाइन ऐसी है कि 'सबका साथ सबका विकास' को और ऊंचाई देती है. देखना होगा, बीजेपी कैसे उसके तार 'साफ नीयत, सही विकास' से जोड़ पाती है.

एक और खास बात है. जिन राज्यों में इस साल विधानसभा चुनाव होने हैं वहां भी कबीरपंथियों की ठीक ठाक आबादी है. राजस्थान के नागौर और छत्तीसगढ़ी या कबीरपंथ की धर्मदासी शाखा काबिले गौर है.

कबीर ऐसी कड़ी हैं जो बनारस और गुजरात के बीच भी राम-सेतु की भूमिका में नजर आते हैं. बनारस तो कबीर की कर्मस्थली ही है, उन्हें मानने वाले जुलाहों की भी खासी जमात है. गुजरात के ग्रामीण इलाकों के बारे में तो कहना ही क्या. कहते हैं गुजरात के हर गांव में कम से कम एक परिवार कबीरपंथी जरूर है. फिर तो 'संपर्क फॉर समर्थन' के लिए कबीर बेहतरीन और कारगर सियासी टूल हैं. है कि नहीं?

मगहर के मंच से

मगहर के मंच से सियासत की शव साधन में कबीर विमर्श रफ्तार पकड़ता उससे बहुत पहले ही योगी आदित्यनाथ ने मजबूती से अपनी मौजूदगी दर्ज करा दी थी. प्रधानमंत्री मोदी के दौरे से पहले तैयारियों का जायजा लेने यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ मगहर पहुंचे थे. जब योगी कबीर की मजार पर पहुंचे तो वहां के संरक्षक ने कबीर टोपी पहनाने की कोशिश की. योगी ने मोदी स्टाइल में न तो टोपी ली, न लेकर अपने पास रखी और न ही पहनी. कोई नफा नुकसान हो न हो अदा ऐसी की खबरों की सुर्खियां तो बनी ही.

अब योगी को कौन समझाये कि सिर्फ कॉपी करने किसी को कुछ नहीं मिलने वाला. योगी ने टोपी पहनने से तब इंकार किया जब मोदी मस्जिदों में भी जाने लगे हैं.

मगहर में प्रधानमंत्री मोदी का मंच भी बहुत सोच समझ कर सजाया गया था. मंच पर शिव प्रताप शुक्ल भी मौजूद थे जिन्हें योगी कभी फूटी आंख भी देखना पसंद नहीं करते. मजबूरी ऐसी कि योगी को मंच शेयर करना पड़ा.

मगहर के मंच से मोदी ने विरोधियों को तीन तलाक पर तो घेरा ही, परिवारवाद पर भी जम कर हमला बोला. इमरजेंसी के बहाने विपक्ष को कठघरे में भी खड़ा करने की कोशिश की, "समाजवाद और बहुजन की बातें करने वालों का हम लालच देख रहे हैं. दो दिन पहले ही देश में आपातकाल के 43 साल हुए हैं. सत्ता का लालच ऐसा है कि आपातकाल लगाने और उसका विरोध करने वाले आज कंधे से कंधा मिलाकर कुर्सी लेने की फिराक में घूम रहे है. ये देश और समाज नहीं बल्कि अपने परिवार को लेकर चिंतित हैं... गरीब, वंचित, शोषित सबको धोखा देकर अपने लिए करोड़ों का बंगला बनाने वाले लोग हैं."

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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