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Updated: 17 अगस्त, 2019 06:43 PM
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कर्नाटक में बाढ़ से मौत का आंकड़ा 50 पार कर चुका है. दो दर्जन से ज्यादा लोग लापता बताये जा रहे हैं. बताते हैं कि बाढ़ से प्रभावित 7 लाख लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया जा चुका है. मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा का कहना है कि बाढ़ से 40 हजार करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है. येदियुरप्पा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बाढ़ और बारिश से प्रभावित कर्नाटक की मदद के लिए तत्काल फंड जारी करने की गुजारिश की है.

सबसे बुरी हालत तो येदियुरप्पा के गृह जनपद शिमोगा की है. कर्नाटक में शिमोगा सहित 11 जिले बुरी तरह बाढ़ से प्रभावित हैं. ऐसी मुश्किल घड़ी में कर्नाटक में सरकार का सारा कामकाज अकेले मुख्यमंत्री येदियुरप्पा को देखना पड़ रहा है - क्योंकि अभी तक सूबे में बीजेपी सरकार के मंत्रिमंडल का गठन ही नहीं हो पाया है. हैरानी की बात तो ये है कि कर्नाटक में विधानसभा चुनाव के बाद से सवा साल के अंतर पर दूसरी बार ऐसा हो रहा है - आखिर कर्नाटक के लोगों का कसूर क्या है?

कर्नाटक में जल्दी मंत्रिमंडल बनता क्यों नहीं?

किसी भी सरकार में कैबिनेट के फैसले बेहद महत्वपूर्ण होते हैं. मोदी कैबिनेट 2.0 के फैसले तो वैसे ही चौंकाते रहते हैं जैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के. जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा बलों की तैनाती हो या फिर कुछ और - ऐसे फैसले तो कैबिनेट की कोर कमेटी ही करती है.

फर्ज कीजिए किसी सरकार के पास महत्वपूर्ण मामलों में फैसलों और मीटिंग के लिए कैबिनेट ही न हो! बहुत दिमाग दौड़ाने की जरूरत नहीं है - बेंगलुरू में फिलहाल यही हाल है. हालांकि, मीडिया रिपोर्ट के अनुसार मुख्यमंत्री येदियुरप्पा अकेले ही अब तक कैबिनेट की चार मीटिंग कर चुके हैं.

कर्नाटक में जनता की चुनी हुई लोकप्रिय सरकार के नाम पर अभी सिर्फ एक मुख्यमंत्री है. अब उसे कर्नाटक के लोग 'पीर, बावर्ची...' वाले पैकेज में से कुछ भी समझें - कैबिनेट में सिर्फ एक ही मंत्री है - मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा.

ऐसे तमाम मामले हैं जिनमें येदियुरप्पा बार बार साबित कर चुके हैं कि वो हर तरीके से सक्षम 'वन मैन आर्मी' हैं - लेकिन अभी ऐसे सियासी स्किल्स को संवैधानिक मान्यता नहीं हासिल है. नतीजा ये हो रहा है कि हमला करते वक्त विपक्ष येदियुरप्पा की साल भर पुरानी स्क्रिप्ट पढ़ दे रहा है - लगे हाथ राज्यपाल वजूभाई वाला से बीजेपी सरकार को बर्खास्त करने की मांग भी होने लगी है.

ऐसा भी नहीं कि कर्नाटक में ऐसा कोई पहली बार हो रहा है. हां, ये जरूर है कि 2018 में जब से विधानसभा के चुनाव हुए हैं, नेता तो बदल गये हैं - हालात तो बिलकुल नहीं बदल सके हैं.

2018 में कुमारस्वामी सरकार में कैबिनेट गठन पर सवाल उठ रहे थे, 2019 में येदियुरप्पा सरकार भी उसी सवाल के जवाब तलाश रही है - और जवाब मिल नहीं रहा है. कुमारस्वामी सरकार को मंत्रिमंडल बनाने में करीब दो हफ्ते लगे थे - येदियुरप्पा को तो तीन हफ्ते बीत चुके हैं. अब भी साफ नहीं है कि मंत्रिमंडल का गठन कब हो पाएगा.

बीजेपी नेता ने येदियुरप्पा ने 26 जुलाई को मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी - और अब तक विधायकों को मंत्री पद की शपथ दिलाने के लिए दिल्ली से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह के ग्रीन सिग्नल का इंतजार है.

कांग्रेस के प्रदेश प्रवक्ता वीएस उगरप्पा का सवाल है, 'मैं राज्यपाल से पूछना चाहता हूं कि क्या संविधान के अनुसार राज्य में कोई सरकार है? राज्यपाल को इसे ध्यान में रखते हुए सरकार को बर्खास्त करना चाहिए.’

अब जरा कुमारस्वामी के मंत्रिमंडल गठन के बारे में याद कर लेते हैं. 12 मई को कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजे आये थे. येदियुरप्पा के मुख्यमंत्री पद पर काबिज होने और मजबूरन कुर्सी छोड़ने के बाद 23 मई को एचडी कुमारस्वामी ने जेडीएस-कांग्रेस गठबंधन सरकार के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ग्रहण किया था.

कुमारस्वामी के कुर्सी पर बैठने के 14 दिन बाद 6 जून को राज्यपाल वजूभाई वाला ने जेडीएस और कांग्रेस के विधायकों को मंत्री पद की शपथ दिलायी थी. येदियुरप्पा और कुमारस्वामी सरकार में एक फर्क ये भी था कि मुख्यमंत्री के अलावा कांग्रेस के जी. परमेश्वर डिप्टी CM बने थे. पहले वाली सरकार में 14 दिन तक दो मंत्री हुआ करते थे और मौजूदा सरकार में येदियुरप्पा अकेले जूझ रहे हैं.

आखिर ऐसी क्या वजह है कि येदियुरप्पा को कैबिनेट गठन में कुमारस्वामी से भी ज्यादा वक्त लग रहा है? कुमारस्वामी के सामने तो गठबंधन सरकार की चुनौती थी, येदियुरप्पा तो सिर्फ बीजेपी सरकार के CM हैं?

येदियुरप्पा की प्रॉब्लम क्या है?

ऊपरी तौर पर येदियुरप्पा की मुश्किल कुमारस्वामी के मुकाबले भले आसान लग रही हो, लेकिन व्यावहारिक पहलू बिलकुल अलग है. पहली बात तो येदियुरप्पा को हर बात आलाकमान से पूछ कर करनी है, दूसरे - निर्दलीय विधायकों को हैंडल करना उससे भी बड़ी मुश्किल है.

येदियुरप्पा ने जैसे भी राजनीतिक हालात में मुख्यमंत्री पद की शपथ ली हो, बीजेपी नेतृत्व बागी विधायकों को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से पहले कोई फैसला नहीं लेना चाहता. साथ ही, येदियुरप्पा को एक मैसेज भी देना है कि कद्दावर और लोकप्रिय नेता होने मुगालते में तो कतई न रहें - ऊपरवाला सब देख रहा है और वो हर चीज बड़े गौर से देखेगा तभी कोई फैसला करेगा.

अब इसे क्या कहें कि मोदी-शाह से येदियुरप्पा के मुलाकात की तीन कोशिशें हाल फिलहाल नाकाम हो चुकी हैं. मीडिया रिपोर्ट से मालूम होता है कि सबसे पहले येदियुरप्पा ने बीजेपी नेतृत्व से मिलने की कोशिश 25 जुलाई को की थी, लेकिन मुमकिन नहीं हो पायी. ये येदियुरप्पा के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने से ठीक एक दिन पहले की बात है. सूत्रों के हवाले से खबर आ रही है कि उसके बाद कम से कम दो बार येदियुरप्पा बीजेपी नेतृत्व से मुलाकात की कोशिश कर चुके हैं, लेकिन बात नहीं बन पायी. दरअसल, प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह बहुत सारे संसदीय कामों में व्यस्त रहे जिनमें सबसे महत्वपूर्ण तो जम्मू-कश्मीर को लेकर धारा 370 हटाया जाना और उससे उपजे हालात पर काबू पाना रहा.

आखिरकार, 16 अगस्त को येदियुरप्पा की प्रधानमंत्री मोदी से मुलाकात हो पायी. इससे पहले अमित शाह ने तो ये कह कर वापस भेज दिया था कि पहले राज्य में बाढ़ की स्थिति में लोगों के राहत और बचाव के कार्यों पर ध्यान दें, फिर आगे की देखी जाएगी. माना जा रहा है कि ये तब की बात है जब येदियुरप्पा 6 अगस्त को दिल्ली पहुंचे थे.

कर्नाटक की जनता को किस बात की सजा मिल रही है?

बाकी बातें अपनी जगह हैं. कर्नाटक के लोगों ने, जाहिर है, किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं दिया था, लेकिन क्या उनका हक नहीं है कि सूबे में सरकार की ओर से कल्याणकारी काम कराये जा सकें. आखिर जम्मू-कश्मीर में भी तो सरकार की ओर से वेलफेयर प्रोग्राम चल ही रहे हैं. जहां तक स्पष्ट जनादेश की बात है तो गोवा और मणिपुर के लोगों ने भी ऐसा नहीं किया था - फिर भी कम से कम दोनों ही राज्यों में सरकारें तो हैं जो संवैधानिक मानदंडों के हिसाब से काम कर रही हैं. राजनीतिक हिसाब से सरकार कैसे बनी ये अलग मुद्दा है, लेकिन जैसे बीजेपी ने गोवा और मणिपुर में सरकार बनायी, थोड़ी देर से ही सही, कर्नाटक में भी अब उसी पार्टी की सरकार है जो केंद्र की सत्ता पर काबिज है. चुनावी राजनीति के हिसाब से किसी भी सूबे में विकास के लिए दोनों जगह एक ही पार्टी की सरकारों का होना विकास की जरूरी शर्त बन चुकी है - आखिर चुनावों के दौरान तो लोगों को यही समझाने की कोशिश होती है.

सवाल ये है कि अगर कर्नाटक में शासन-प्रशासन के कामकाज पर अगर असर पड़ रहा है तो कौन जिम्मेदार है? कर्नाटक की एचडी कुमारस्वामी सरकार के कार्यकाल का लेखा-जोखा तैयार हो तो पता चलेगा कि लोकहित के कार्यदिवस तो गिनती के रहे - बाकी वक्त सरकार बनाने की जंग, मंत्रिमंडल के गठन और सरकार को चलाने और फिर बचाने का जुगाड़ ही चलता रहा - कर्नाटक के लोगों की सबसे बड़ी मुश्किल तो यही है कि सूबे में मुख्यमंत्री का नाम और सत्ता पर काबिज पार्टी का झंडा भले बदल गया हो - लेकिन दूसरी सारी चीजें जस की तस बनी हुई हैं. कुछ महीने कुमारस्वामी ने कांग्रेस के साथ मिल कर एक्सपेरिमेंट किये - अब येदियुरप्पा सरकार कांग्रेस और जेडीएस से आये विधायकों को लेकर राजनीतिक प्रयोक कर रही है - जनता के पास तो विकल्प के नाम पर किस्मत को कोसने से ज्यादा कुछ बचा भी नहीं है.

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