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Updated: 15 मई, 2018 08:47 PM
अनुज मौर्या
अनुज मौर्या
  @anujkumarmaurya87
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राजनीति में कोई एक्टर सिर्फ एक्टर नहीं होता, बल्कि डायरेक्टर भी होता है. सिर्फ एक्टिंग कर के राजनीति की नैय्या पार नहीं लगती. राहुल गांधी एक एक्टर की तरह भूमिका निभाते दिख रहे हैं या यूं कहें कि कम से कम कोशिश तो कर ही रहे हैं, लेकिन उनमें डायरेक्टर वाली कोई बात नहीं है. कर्नाटक चुनाव प्रचार में हर दिन राहुल गांधी ने पूरे राज्य में रैलियां कीं. राहुल गांधी के नेतृत्व में ही कांग्रेस ने कर्नाटक चुनाव लड़ा. लेकिन अब जब नतीजे की बारी आई, तो सुबह से ही राहुल गांधी का अता-पता नहीं है. ना तो उनका कोई ट्वीट दिख रहा है, ना ही वो खुद दिख रहे हैं. यहां तक कि कर्नाटक में सरकार बनाने के लिए जेडीएस को ऑफर भी कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी ने दिया, ना कि मौजूदा अध्यक्ष राहुल गांधी ने. इस मौके पर राहुल गांधी को जो कदम उठाना चाहिए था, वह उनकी मां और कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी ने उठाया. यहां सोनिया गांधी ने डायरेक्टर की भूमिका बखूबी अदा की है.

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राहुल गांधी के नेत्तृत्व में कमी है क्या?

अगर इस सवाल का जवाब एक शब्द में दिया जाए तो हां, कमी तो है. अगर नेतृत्व में कमी नहीं होती तो जेडीएस के बात करने के लिए फोन सोनिया गांधी नहीं करतीं, बल्कि राहुल गांधी करते. ये फोन सोनिया गांधी के कहने पर भी राहुल कर सकते थे, लेकिन कहीं न कहीं सोनिया को शायद ये लगा होगा कि राहुल इस स्थिति से निपट नहीं पाएंगे. कर्नाटक चुनाव सोनिया गांधी नहीं, बल्कि राहुल गांधी के चहरे पर लड़ा गया था. ऐसे में राहुल गांधी की जगह सोनिया गांधी का सामने आकर जेडीएस को प्रस्ताव भेजना नेतृत्व में कमी ही दिखाता है. अपनी पार्टी को हर स्थिति में मजबूत बनाए रखना और किसी मुसीबत की स्थिति में पार्टी के लिए सब कुछ करना अभी राहुल गांधी को सीखना बाकी है, जिसमें सोनिया गांधी को महारत हासिल है.

अति उत्साहित हो जाते हैं राहुल

इसे अति उत्साहित होना ही कहेंगे. कर्नाटक चुनाव को लेकर राहुल गांधी ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में खुद को प्रधानमंत्री पद पर देखने की बात कही थी. जब उनसे पूछा गया कि अगर 2019 में कांग्रेस की जीत होती है तो क्या वह प्रधानमंत्री बनेंगे तो राहुल ने कहा कि क्यों नहीं. सत्ता की चाहत तो हर नेता को होती है, ये सभी जानते हैं, लेकिन कई बार अपनी चाहत को दबा कर रखना फायदेमंद साबित होता है. राहुल गांधी ने अपनी चाहत जाहिर कर दी, लेकिन वहीं दूसरी ओर अगर भाजपा की बात करें तो हर नेता यही कहता मिलता है कि पार्टी जो जिम्मेदारी सौंपेगी, उसे निभाएंगे. ये बात किसी से छुपी नहीं है कि सबके अंदर कुर्सी का मोह होता है, लेकिन उसे जताने का कई बार उल्टा असर भी हो जाता है.

यहां राहुल गांधी को सोनिया गांधी से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है. जब उनसे इंडिया टुडे कॉन्क्लेव के 17वें संस्करण में पूछा गया था कि वह 2019 में रायबरेली से चुनाव लड़ेंगी या नहीं तो उन्होंने साफ कहा था कि यह पार्टी तय करेगी. यहां वो हां भी कह सकती थीं, लेकिन उन्होंने यह फैसला पार्टी पर छोड़ा, जो उनकी समझदारी का सबूत देता है. सभी विपक्षी पार्टियों को एक साथ लाने का सोनिया गांधी का कदम भी उनकी समझदारी दिखाता है.

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