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Updated: 07 जुलाई, 2020 04:18 PM
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ज्योतिरादित्य सिंधिया (Jyotiraditya Scindia) को बीजेपी (BJP) में अभी काफी अहमियत मिल रही है. बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा रैली में सिंधिया के जिगरा की मिसाल देते हैं. सिंधिया की वजह से कैबिनेट के लिए मध्य प्रदेश बीजेपी की सूची किनारे रख नयी लिस्ट बनायी जाती है - हालत ये होती है कि शिवराज सिंह चौहान सरकार में सिंधिया की पसंद से सबसे ज्यादा लोग मंत्री बनाये जाते हैं. ये रुतबा तो सिंधिया को राज्य में कांग्रेस की सरकार बनने पर भी कभी हासिल न हो पाया था.

हो सकता है सिंधिया के लिए बीजेपी की तरफ से ये वेलकम नोट हो, राजनीति में कोई चीज एकतरफा कभी नहीं हो सकती है - और अगर कभी हुई भी तो ये सब लंबा तो कतई नहीं चलने वाला. फिर भी सिंधिया इतना तो महसूस कर ही रहे होंगे कि जितनी मेहनत और अपने प्रभाव का जितना इस्तेमाल वो कांग्रेस में करत रहे उसके मुकाबले बीजेपी में ज्यादा ही मिल रहा है. 10 मार्च, 2020 को जब ज्योतिरादित्य ने अपने पिता माधवराव सिंधिया के जन्मदिन पर कांग्रेस छोड़ी और फिर बीजेपी ज्वाइन कर लिये - बार बार उनकी दादी विजयाराजे सिंधिया को याद किया जाता रहा कि अगर वो होतीं तो बहुत खुश होतीं.

सिंधिया के पिता माधवराव अपनी मां विजयाराजे सिंधिया (Vijayaraje Scindia) की इच्छा की परवाह न करते हुए जनसंघ छोड़ कर कांग्रेस में चले गये. कुछ दिन के लिए कांग्रेस छोड़ने के बाद फिर से लौट गये, लेकिन राजनीतिक विरोधियों की साजिश के चलते मुख्यमंत्री बनते बनते रह गये - क्या ज्योतिरादित्य सिंधिया दादी का नुस्खा आजमाते हुए कभी वो मुकाम हासिल कर पाएंगे जो दो दशक की कांग्रेस की राजनीति में नहीं मिला?

सिंधिया की अग्नि परीक्षा शुरू हो चुकी है

मध्य प्रदेश में कमलनाथ की कांग्रेस सरकार गिराकर ज्योतिरादित्य सिंधिया ने सिर्फ अपने साथ हुए बुरे व्यवहार का ही बदला नहीं लिया, बल्कि अपने पिता माधवराव सिंधिया का भी बदला ले चुके हैं. ये दिग्विजय सिंह और कमलनाथ की मिली भगत ही रही कि माधवराव सिंधिया दिल्ली में हेलीकॉप्टर में बैठने के लिए फोन का इंतजार करते रहे, लेकिन घंटी बजी ही नहीं. नवंबर, 1993 में जब मध्य प्रदेश विधानसभा के चुनाव हुए तो कांग्रेस जीत गयी और मुख्यमंत्री पद की रेस में श्यामा चरण शुक्ल और सुभाष यादव के साथ माधवराव सिंधिया का नाम भी शुमार रहा. तब दिग्विजय सिंह प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और सांसद थे लेकिन विधानसभा का चुनाव नहीं लड़े थे. तब तक कमलनाथ को सूबे की राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं थी क्योंकि वो दिल्ली में ही चीजें अपने मनमाफिक पाते थे. दिग्विजय सिंह के साथ साथ अर्जुन सिंह को भी श्यामा चरण शुक्ल या सुभाष यादव से ज्यादा दिक्कत तो नहीं थी, लेकिन दोनों कतई नहीं चाहते थे कि माधवराव सिंधिया मुख्यमंत्री बनें.

scindia familyमाधवराव सिंधिया और विजयाराजे सिंधिया

कहा जाता है कि दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री बन गए और माधवराव सिंधिया दिल्ली में हेलीकॉप्टर तैयार कर फोन आने का इंतजार करते रहे. दरअसल, बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद मध्य प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा. दिग्विजय सिंह उस समय प्रदेश के कांग्रेस अध्यक्ष थे. 1993 नवंबर में विधानसभा चुनाव हुए तो कांग्रेस को अप्रत्याशित रूप से जीत हासिल हुई. इस जीत के बाद मुख्यमंत्री बनने की दौड़ में श्यामा चरण शुक्ल, माधवराव सिंधिया और सुभाष यादव जैसे नेता शामिल हो गए. दिग्विजय सिंह उस वक्त सांसद और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष थे. हालात ऐसे बने कि दिग्विजय सिंह मध्य प्रदेश में तो अपनी गोटी सेट कर चुके थे लेकिन दिल्ली में मैनेज करने के लिए कमलनाथ की जरूरत पड़ी. कमलनाथ ने दिल्ली में सारी चीजें ऐसे मैनेज कर दीं कि दिग्विजय का रास्ता साफ हो गया और वो मुख्यमंत्री बन गये. ऐसा लगा जैसे दिग्विजय ने अपने लिए भोपाल और कमलनाथ ने अपने लिए दिल्ली बांट ली हो - दोनों की राजनीति चलती रही.

बरसों बाद जब मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी तो फिर वही दिग्विजय सिंह और कमलनाथ की जोड़ी ने मिल कर सिंधिया घराने की राजनीति के आगे रोड़ा अटका दिया. ज्योतिरादित्य सिंधिया न तो डिप्टी सीएम बन सके न ही प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी ही मिल पा रही थी. 2019 में अपने गढ़ में ही लोक सभा चुनाव हारने के बाद जब सिंधिया ने देखा कि दिग्विजय सिंह और कमलनाथ की जोड़ी उनके राज्य सभा पहुंचने में भी रोड़े अटका रही है, तो ऐसा खेल खेला कि कमलनाथ की कुर्सी ही चली गयी. सिंधिया दिग्विजय को तो राज्य सभा जाने से नहीं रोक पाये लेकिन अपने रास्ते का कांटा कुचलते हुए संसद फिर से पहुंचने में कामयाब रहे.

मध्य प्रदेश में कमलनाथ की सरकार बनने से पहले तक ज्योतिरादित्य सिंधिया को कांग्रेस में भी काफी अहमियत मिलती रही. ज्योतिरादित्य सिंधिया भी कांग्रेस की युवा नेताओं की उस टोली का हिस्सा थे जो अपने पिता की विरासत के रूप में जगह बनाने में सफल रहे थे - सचिन पायलट, जितिन प्रसाद, मिलिंद देवरा, गौरव गोगोई जैसे युवा कांग्रेसियों की टोली राहुल गांधी की मंडली बन चुकी थी. राहुल गांधी के साथ कॉलेज में पढ़े होने के कारण ज्योतिरादित्य सिंधिया थोड़ा ज्यादा प्रभावी नजर आते थे. यही वजह रही कि राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी छोड़ने के साथ ही सिंधिया के बुरे दिन शुरू हो गये. कांग्रेस की कमान फिर से सोनिया गांधी के हाथ में आ गयी और कमलनाथ अपने कारनामे दिखाने लगे.

ज्योतिरादित्य सिंधिया के मुकाबले दिग्विजय सिंह और कमलनाथ एक बार फिर भिड़े हुए हैं. दरअसल, शिवराज सरकार के मंत्रिमंडल विस्तार के बाद राजभवन के बाहर ज्योतिरादित्य सिंधिया ने दिग्विजय सिंह और कमलनाथ को ललकारते हुए कहा था कि 'टाइगर अभी जिंदा है' और उसी पर रिएक्ट करते हुए दिग्विजय सिंह ने ट्वीट किया है कि शेर एक ही जंगल में रहता है, जंगल बदलता नहीं.

बीजेपी ज्वाइन करने के बाद ज्योतिरादित्य सिंधिया तीन महीने तक बिलकुल खामोश रहे, जबकि प्रदेश कांग्रेस के नेता उनको गद्दार के तौर पर पेश करते रहे - और आने वाले उपचुनावों के दौरान भी ऐसे ही संकेत हैं कि कांग्रेस स्टैंड नहीं बदलने वाला. कमलनाथ जहां कहीं भी जा रहे हैं और उपचुनावों के मद्देनजर कांग्रेस का पक्ष रख रहे हैं निशाने पर सिंधिया ही होते हैं और उनके बीजेपी ज्वाइन करने को वो जनता के साथ धोखा बताते हैं.

अब सिंधिया ने जो कुछ भी किया है और बीजेपी की तरफ से मिल रहा है वो पार्टी ज्वाइन करते वक्त हुई आपसी डील पर अमल होने जैसा ही है - आगे कदम कदम पर अग्नि परीक्षा है. अब तक जो भी हुआ वो बातचीत में तय हुई बातें रहीं, लेकिन अब मैदान में उतरना है - जनता के बीच. सिंधिया की चुनौती है कि उपचुनाव में सबसे ज्यादा सीटें उनके ग्वालियर-चंबल इलाके से आती हैं.

हालात जो भी हों सिंधिया को हर हाल में उपचुनाव में ज्यादा से ज्याद सीटों पर जीत हासिल करनी ही होगी. उपचुनाव के नतीजे ही बीजेपी में सिंधिया के भविष्य की नींव की ईंट हैं. ये तो साफ है कि जिन परिस्थितियों में सिंधिया गुना से लोक सभा चुनाव हारे वे अब नहीं हैं. बिलकुल अलग हैं. अब तो आमने सामने का मुकाबला है.

बीजेपी में दादी जैसा रुतबा सिंधिया हासिल कर पाएंगे क्या?

ज्योतिरादित्य सिंधिया की दादी विजयाराजे सिंधिया भी कांग्रेस में 10 साल बिताने के बाद ही जनसंघ का रुख किया था. वो 1957 से 1967 तक कांग्रेस की ही सांसद रहीं. ये वो दौर रहा जब विजयाराजे सिंधिया और इंदिरा गांधी में गहरी दोस्ती भी रही, लेकिन तत्कालीन मुख्यमंत्री डीपी मिश्रा के साथ अनबन होने पर इंदिरा गांधी को चैलेंज करते हुए उन्होंने पार्टी छोड़ दी - असर इतना जोरदार हुआ कि डीपी मिश्रा की सरकार भी गिर गयी. दूसरे मुख्यमंत्री भी बने लेकिन 19 महीने बाद वो सरकार भी चलती बनी.

कांग्रेस छोड़ कर सिंधिया की दादी ने जनसंघ ज्वाइन किया था - और बाद में बीजेपी की संस्थापक सदस्यों में से एक रहीं. बीजेपी में ताउम्र उनकी हैसियत अटल बिहारी वाजपेयी, कुशाभाऊ ठाकरे और लालकृष्ण आडवाणी के बराबर ही कायम रही.

ज्योतिरादित्य सिंधिया के लिए 2001 का साल सबसे बुरा रहा. जनवरी में बीमारी के बाद दादी विजयाराजे सिंधिया चल बसीं और सिंतबर आते आते पिता माधवराव सिंधिया हवाई हादसे में मारे गये - फिर सिंधिया घराने की जिम्मेदारी ज्योतिरादित्य पर आ गयी.

माधवराव सिंधिया ने 1971 में राजनीति तो जनसंघ से ही शुरू की थी, लेकिन इमरजेंसी के बाद 1976 में कांग्रेस में चले गये. विजयाराजे सिंधिया को ये कभी ठीक नहीं लगा, लेकिन माधवराव सिंधिया कभी नहीं माने और यहां तक कि अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ भी चुनाव लड़े. चुनाव में मां और बेटे दोनों आमने सामने रहे, लेकिन बेटा जीत गया.

बीजेपी में ही ज्योतिरादित्य की दो बुआ भी हैं - वसुंधरा राजे और यशोधरा राजे. यशोधरा राजे मंत्रिमंडल विस्तार में फिर से शिवराज सिंह चौहान सरकार में कैबिनेट में शामिल की गयी हैं. वसुंधरा राजे की स्थिति 2018 का विधानसभा चुनाव हारने के बाद से अच्छी नहीं चल रही है. वसुंधरा राजे को फिर से अच्छे दिनों का इंतजार है.

सिंधिया कोई पहले नेता नहीं हैं जिन्हें बीजेपी में आने पर ऐसा जोरदार स्वागत हो रहा हो. ऐसे कई नेता आये और कांग्रेस में लौट भी गये. जो लौटने लायक नहीं रहे वे गुमनामी की जिंदगी जी रहे हैं. ज्योतिरादित्य सिंधिया जिस तरीके से मौजूदा बीजेपी नेतृत्व की उम्मीदों के मुताबिक प्रदर्शन कर रहे हैं, उनके लिए भी बीजेपी में दादी जैसा मुकाम हासिल हो सकता है - और इसके लिए उपचुनाव पहला इम्तिहान है.

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