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Updated: 17 जनवरी, 2022 04:39 PM
अनुज शुक्ला
अनुज शुक्ला
  @anuj4media
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दो दशक पहले तक उत्तर प्रदेश की सियासत में जामा मस्जिद के शाही इमाम अब्दुल्ला बुखारी की हनक साफ़ दिखती थी. तब शाही इमाम धार्मिक आधार पर वोट के लिए फतवा जारी किया करते थे. शाही इमाम का समर्थन पाने के लिए मुलायम सिंह यादव समेत तमाम नेता अब्दुल्ला बुखारी के दर पर नजर आ चुके हैं. अब्दुल्ला बुखारी अब इस दुनिया में नहीं हैं और वक्त के साथ फतवों के लगातार बेअसर होने से शाही इमाम की राजनीतिक अहमियत भी लगभग ख़त्म हो चुकी है. पिछले कई चुनावों से जामा मस्जिद के शाही इमाम राजनीतिक फतवा देते तो नजर नहीं आए. हालांकि भाजपा विरोधी राजनीति में शाही इमाम के परिवार और रिश्तेदारों की हनक अभी भी बरकार दिखती है. खासकर पश्चिम की राजनीति में.

यूपी के आगामी विधानसभा चुनाव में एक तरह से इस बार भी शाही इमाम का साया पड़ चुका है और यह समाजवादी पार्टी पर ही है. शाही इमाम मुसलमानों के बड़े धार्मिक गुरु हैं. निश्चित ही किसी पार्टी के प्रति उनके परिवार के झुकाव के मायने निकलते हैं. खासकर पश्चिम उत्तर प्रदेश में जहां मुसलमान मतदाता 30 से 50 प्रतिशत तक की तादाद में हैं. हालांकि यह झुकाव फिलहाल समाजवादी पार्टी के लिए सिरदर्द बनता नजर आ रहा है. पश्चिम के मुसलमानों को बड़ा संदेश देने के लिए इस बार चुनाव से पहले अखिलेश ने कांग्रेस से काजी इमरान मसूद को तोड़ लिया था. मसूद के साथ उनके दो समर्थक विधायक भी साथ थे.

शाही इमाम के दामाद रास्ते में आ गए

चर्चा थी कि मसूद सपा के टिकट पर विधानसभा के उम्मीदवार होंगे. लेकिन स्वामी प्रसाद मौर्य और उनके समर्थक विधायकों के सपा में आने की वजह से अखिलेश का मुस्लिम समीकरण गड़बड़ होता नजर आ रहा है. मसूद 2017 के विधानसभा चुनाव में सहारनपुर की नकुड सीट पर सिर्फ चार हजार वोट से बीजेपी के धर्म सिंह सैनी के हाथों हार गए थे. इस बार सपा की ओर से धर्म सिंह अपनी सीट पर ही चुनाव लड़ेंगे. इमरान मसूद सपा से बेहट की सीट चाहते थे. चर्चा है कि बेहट की सीट शाही इमाम के दामाद उमर अली खान को दे दी गई है. मसूद को सपा से दूसरे ऑफर मिले हैं लेकिन वे इससे सहमत नहीं. वैसे सपा सूत्रों का दावा है कि उमर को टिकट शाही इमाम का दामाद होने की वजह से नहीं बल्कि उनके काम और लोकप्रियता की वजह से मिला है.

imran-masood-650_011622075158.jpgइमरान मसूद सपा को बहुत बड़ा नुकसान पहुंचाते दिख रहे.

क्या सपा में शामिल ही नहीं हुए हैं मसूद ?

सपा सूत्रों का यह भी कहना है कि इमरान मसूद भले ही अखिलेश से मिले मगर वे कांग्रेस छोड़ने के बाद अभी तक समाजवादी पार्टी में शामिल ही नहीं हुए हैं. सपा ने उन्हें एमएलसी बनाने का भरोसा दे रही है जिस पर मसूद तैयार होते नहीं दिख रहे. मसूद हर हाल में चुनाव लड़ना चाहते हैं और इसके लिए बसपा और दूसरे विकल्पों पर भी विचार कर रहे हैं. मसूद के साथ एक और सीटिंग विधायक मसूद अख्तर भी सपा में आए थे. उनका टिकट भी कन्फर्म नहीं है. मसूद अख्तर की सहारनपुर देहात सीट मुलायम सिंह यादव के करीबी आशु मलिक को देने की बात सामने आ रही है.

मसूद के सपा से अलग होने के क्या राजनीतिक मायने हैं ?

कुल मिलाकर इमरान मसूद की वजह से सहारनपुर और आसपास की विधानसभा सीटों पर समाजवादी पार्टी की चुनावी गणित गड़बड़ होती दिख रही है. मुसलमान मतदाताओं में मसूद का जबरदस्त असर है. इस बात को ऐसे भी समझा जा सकता है कि पिछली बार मोदी-योगी की आंधी में मसूद भले कम वोटों से अपनी सीट नहीं बचा पाए मगर पश्चिम में बेहट और देहात से कांग्रेस के दो विधायक जितवाने में कामयाब हुए थे. वह भी उस हालत में जब सपा और बसपा की हालत पश्चिम में पतली नजर आ रही थी. तब कांग्रेस के साथ सपा का गठबंधन था. सहारनपुर के कुछ लोगों का दावा है कि मसूद बसपा से टिकट पाने की कोशिशों में जुटे हैं. कांग्रेस ने भी उन्हें ऑफर दिया है. अगर उन्हें और उनके लोगों को टिकट मिला तो सहारनपुर में समाजवादी पार्टी को बहुत बड़ा नुकसान उठाना होगा. मसूद के सपा से अलग जाने का मतलब यह भी निकाला जा तरह है कि सहारनपुर और आसपास की आधा दर्जन सीटे सीधे-सीधे प्रभावित होंगी.

akhilesh-yadav-650_011622075235.jpgअखिलेश यादव.

मुसलमानों को लेकर सपा की योजनाओं पर भी असर

सहारनपुर समेत पश्चिम उत्तर प्रदेश की तमाम सीटों पर पहले और दूसरे चरण के तहत वोट डाले जाएंगे. पश्चिम पर ही सबकी नजरें हैं. इस हिस्से में ही मुसलमान मतदाताओं की तादाद सबसे ज्यादा है. यहां तक कि दर्जनों सीटों पर उनकी संख्या 30 से 50 प्रतिशत तक भी है. पिछली बार मुजफ्फरनगर दंगों के बाद यहां भाजपा ने अपने इतिहास में सबसे ज्यादा सीटें हासिल करते हुए रिकॉर्ड बहुमत से सत्ता हासिल की थी. सपा, बसपा, कांग्रेस कोई उसे रोक नहीं पाई थी. यहां तक कि लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा साथ भी आईं लेकिन लोकसभा चुनाव में मोदी की विजय रथ के सामने कोई रोड़ा नहीं बना पाईं.

उम्मीदवारों की लिस्ट जारी करने से डर रही समाजवादी पार्टी

पश्चिम में समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल और महान दल का गठबंधन है. पहले चरण के लिए सपा और रालोद के उम्मीदवारों की जो लिस्ट आई है उसमें से सपा के 70 प्रतिशत से ज्यादा उम्मीदवार मुसलमान हैं. बाकी सीटों के लिए सपा अपने उम्मीदरों की लिस्ट जारी नहीं कर रही. बल्कि सीधे कैंडिडेट को अधिकार पत्र दे रही है ताकि मीडिया में उम्मीदवारों की धार्मिक जातीय पहचान को लेकर बहस ना हो जो प्रदेश के दूसरे हिस्सों में भाजपा के पक्ष में ध्रुवीकरण के काम आए. सपा की पहली लिस्ट में ज्यादातर मुस्लिम उम्मीदवारों के नाम आने के बाद इसे भाजपा के पक्ष में बताया जाने लगा.

भाजपा को पश्चिम में हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण का ही भरोसा है. और माना जा रहा है कि विपरीत हालत के बावजूद सिर्फ इसी वजह से चुनाव को पश्चिम से पूरब की ओर हो रहा है. यहां किसान आंदोलन की वजह से जाट और दूसरी किसान बिरादरी भाजपा से खासी नाराज बताई जा रही है. नागरिकता क़ानून, तीन तलाक, राममंदिर, और काशी-मथुरा जैसे मुद्दों की वजह से नाराज मुसलमान भाजपा को हर हाल में हराना चाहते हैं. उनके समाजवादी पार्टी में जाने की चर्चाएं हैं मगर मसूद जैसे नेताओं का सपा से बिदक जाना और पश्चिम में बसपा उम्मीदवारों की जातीय गणित अखिलेश की योजनाओं पर पानी फेर सकती है.

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लेखक

अनुज शुक्ला अनुज शुक्ला @anuj4media

ना कनिष्ठ ना वरिष्ठ. अवस्थाएं ज्ञान का भ्रम हैं और पत्रकार ज्ञानी नहीं होता. केवल पत्रकार हूं और कहानियां लिखता हूं. ट्विटर हैंडल ये रहा- @AnujKIdunia

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