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Updated: 07 सितम्बर, 2019 03:47 PM
अनुज मौर्या
अनुज मौर्या
  @anujkumarmaurya87
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Chandrayaan 2 का लैंडर चांद पर लैंड होने से करीब 2.1 किलोमीटर पहले ही कहीं गायब हो गया. ISRO के साथ उसका संपर्क टूट गया. फिर क्या था, एक निराशा हर किसी के चेहरे पर छा गई. भारत में लोग अपने वैज्ञानिकों का हौंसला और मनोबल बढ़ा रहे हैं और कह रहे हैं कि ISRO ने बहुत अच्छा काम किया. सभी देशवासी मान रहे हैं कि चंद्रयान 2 का मिशन फेल नहीं हुआ है, हां वो बात अलग है कि 90 फीसदी सफलता मिली है, 10 फीसदी नहीं मिल सकी. वहीं दूसरी ओर, पाकिस्तान भारत को नीचा दिखाने के लिए इसे इसरो की असफलता बता रहा है. आपको बता दें कि पाकिस्तान की खुद की स्पेस एजेंसी तो चीन की दया का पात्र बन चुकी है, जबकि वह भारत को नीचा दिखाने की कोशिश कर रहा है. भारत द्वारा चंद्रयान 2 को चांद पर भेजने के बाद पाकिस्तान ने फैसला किया था कि वो अपने पहले स्पेस यात्री को 2022 में चांद पर भेजेगा. इस मिशन को वो अपने दोस्त चीन की मदद से पूरा करने की सोच रहा है. यानी चीन की बैसाखी के भरोसे पाकिस्तान लगातार भारत को मुंह चिढ़ाने में लगा है, लेकिन अपने गिरेबां में नहीं झांक रहा. पाकिस्तान अगर इसरो का इतिहास भी पलट कर देख ले, तो समझ जाएगा कि जब-जब इसरो के सामने कोई चुनौती आई है, या किसी तरह की असफलता हाथ लगी है, तो वह दुगनी ताकत से दोबारा आया है और सफलता पाई है.

चंद्रयान 2, इसरो, चंद्रमाचंद्रयान 2 का लैंडर भले से चांद की सतह पर लैंड होने से पहले संपर्क से बाहर हो गया, लेकिन आने वाले समय में इसरो फिर कोशिश करेगा.

साइकिल से ढोया रॉकेट

डॉक्टर विक्रम साराभाई और डॉक्टर रामानाथन ने 16 फरवरी 1962 को Indian National Committee for Space Research (INCOSPAR) की स्थापना की, जो आगे चलकर 15 अगस्त 1969 को इसरो (ISRO) बन गया. उस समय जिस रॉकेट को प्रक्षेपित किया गया था, उसे साइकिल के पीछे लगे कैरियर पर लादकर प्रक्षेपण स्थल तक ले जाया गया था. यानी सुविधा नहीं थी, लेकिन कहते हैं ना कि इरादों में दम हो तो चट्टानों से भी पानी निकाला जा सकता है. साइकिल पर रॉकेट ले जाने की ये तस्वीर आज भी इसरो के दृढ़ संकल्प को दिखाती है.

चंद्रयान 2, इसरो, चंद्रमासाइकिल के पीछे लगे कैरियर पर लादकर भी रॉकेट को प्रक्षेपण स्थल तक ले जाया गया था.

रॉकेट भारी हुआ, तो बैलगाड़ी मंगा ली

इसरो के पहले ही मिशन का दूसरा रॉकेट भारी और काफी बड़ा था. इसे प्रक्षेपण स्थल तक ले जाने के लिए बैलगाड़ी का सहारा लिया गया. ये तस्वीर आपको गर्व महसूस कराएगी.

चंद्रयान 2, इसरो, चंद्रमाइसरो के मिशन का दूसरा रॉकेट भारी और काफी बड़ा था, जिसे प्रक्षेपण स्थल तक ले जाने के लिए बैलगाड़ी का सहारा लिया गया.

चर्च में हुई प्लानिंग, नारियल के पेड़ बने लॉन्चिंग पैड

उस दौर में हमारे वैज्ञानिकों के पास कोई दफ्तर नहीं था. ऐसे में उन्होंने एक कैथोलिक चर्च सेंट मैरी के मुख्य कार्यालय में ही बैठकर पूरी प्लानिंग की कि कैसे रॉकेट को लॉन्च किया जाएगा. अब जहां वैज्ञानिकों के पास दफ्तर नहीं था, वहां लॉन्चिंग पैड कैसे होगा. ऐसे में नारियल के पेड़ों को लॉन्चिंग पैड की तरह इस्तेमाल किया गया. यानी ये कहना गलत नहीं होगा कि सुविधा के नाम पर भले ही तब इसरो के पास कुछ नहीं था, लेकिन इरादों की मजबूती बरकरार रही. यही वजह है कि आज पूरे देश में इसरो के 13 सेंटर हैं.

चंद्रयान 2, इसरो, चंद्रमाएक कैथोलिक चर्च सेंट मैरी के मुख्य कार्यालय में ही बैठकर पूरी प्लानिंग की कि कैसे रॉकेट को लॉन्च किया जाएगा.

रूस नहीं दे पाया चंद्रयान-2 के लिए लैंडर, तो खुद बना लिया

2007 में रूसी अंतरिक्ष एजेंसी रॉसकॉसमॉस ने कहा था कि वह चंद्रयान 2 मिशन के लिए इसरो को लैंडर देगा. 2008 में इस प्रोजेक्ट को सरकार की मंजूरी मिल गई और 2009 में चंद्रयान-2 का डिजाइन तैयार कर लिया गया. तय हुआ कि जनवरी 2013 में लॉन्चिंग की जाएगी, लेकिन रूसी अंतरिक्ष एजेंसी ने हाथ खड़े कर दिया. कह दिया कि वह लैंडर नहीं दे पाएगी. यानी इसरो के हाथ लगी निराशा. मिशन की सफलता या असफलता तो तब होगी ना जब मिशन को अंजाम दिया जा सकेगा. खैर, अब इसरो के सामने लैंडर चुनौती बन गया, तो इसरो ने खुद की तकनीक विकसित की और लैंडर और रोवर बनाया. इसमें कोई दोराय नहीं है कि भारत का बना लैंडर चांद की सतह पर लैंड नहीं कर पाया है, लेकिन हर चुनौती का मुंहतोड़ जवाब देने वाला इसरो हमेशा की तरह अपनी पूरी ताकत से दोबारा जरूर आएगा और चांद पर हमारा लैंडर भी लैंड करेगा.

मंगल मिशन को ना भूलें

5 नवंबर 2013, ये वो तारीख है, जब इसरो ने मंगलयान लॉन्च किया था. 24 सितंबर 2014 को मंगलयान मंगल की कक्षा में जा पहुंचा और इसी के साथ भारत का नाम इतिहास के पन्नों में सुनहरे अक्षरों में दर्ज हो गया. भारत दुनिया का इकलौता देश बन गया, जिसने पहली ही बार में मंगल पर विजय हासिल कर ली. भारत ने यह भी रिकॉर्ड बनाया कि उसके इस मिशन की लागत सिर्फ 450 करोड़ रुपए थी, जो दुनिया की अब तक की सबसे कम लागत है. भारत से अपने अमेरिका, चीन और सोवियत संघ मंगल पर पहुंचने में कामयाब हुए थे, लेकिन अब इस लिस्ट में बारत का भी नाम जुड़ चुका है.

चंद्रयान-1 ने पता लगाया था चांद पर पानी का

22 अक्टूबर 2008 को इसरो ने चंद्रयान-1 की लॉन्चिंग की थी. इसी ने पता लगाया था कि चांद पर पानी मौजूद है. वो तो आपने सुना ही होगा कि जल ही जीवन है. यानी चंद्रमा पर भी जीवन की संभावना की एक कड़ी हाथ लग गई थी. चंद्रयान-1 ने 312 दिनों तक इसरो को चांद से डेटा और तस्वीरें भेजीं, जिनसे चांद के बारे में काफी कुछ पता चला. तो क्या जिस इसरो के चंद्रयान-1 ने पूरी दुनिया को चांद के बारे में इतनी अहम जानकारी दी, उसका चंद्रयान-2 कुछ नहीं करेगा? अभी सिर्फ लैंडर के चांद की सतह पर लैंड होने से पहले इसरो का उससे संपर्क टूटा है, ऑर्बिटर अभी भी चांद की कक्षा में घूम रहा है, जिसके हाई रिजॉल्यूशन कैमरै साल भर तक इतनी जानकारियां देंगे, जो आने वाले समय में मानवता के बेहद काम की हो सकती है.

स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन विकसित किया

क्रायोजेनिक इंजन की मदद से रॉकेट को अंतरिक्ष में भेजा जाता है. भारत को कई दशकों पर इस तकनीक से दूर रखने की कोशिश की गई. धीरे-धीरे वो वक्त आ गया जब देशों पर इसे किसी दूसरे देश को बेचने पर तमान प्रतिबंध लगाए गए. उस समय भारत ने स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन बनाया. इसमें सफलता पाने में इसरो को 20 साल लग गए, लेकिन इसरो तब तक रुका नहीं, जब तक वह सफल नहीं हो गया. यहां दिलचस्प है कि इसरो की ओर से क्रायोजेनिक इंजन 3 बार नाकाम रहा और टेस्ट पास नहीं कर पाया, लेकिन इसरो ने तब तक हार नहीं मानी, जब तक कि ये उसने इसमें सफलता नहीं पा ली. पहली बार क्रायोजेनिक इंजन का एक बूस्टर पंप जाम हो गया, दूसरी बार रॉकेट के कुछ कनेक्टर फेल हो गए, जिसकी वजह से रॉकेट में हवा में ही नष्ट करना पड़ा. तीसरी बार 2013 में रॉकेट में कुछ लीकेज का पता चला. आखिरकार 2014 में इस तकनीक को भारत ने सफलतापूर्व हासिल कर लिया. जीएसएलवी रॉकेट में क्रायोजेनिक इंजन ही लगते हैं.

चंद्रयान 2, इसरो, चंद्रमाइसरो को क्रायोजेनिक इंजन बनाने में 20 साल लग गए, लेकिन सफलता पा ली.

इंतजार कीजिए, चांद की सतह पर लैंड करेगा लैंडर !

इसरो की वेबसाइट से मिले आंकड़ों के अनुसार इसरो ने लॉन्चर्स के जरिए कुल 75 मिशन अंजाम दिए हैं, जिनमें से 8 असफल रहे हैं. वहीं दूसरी ओर, स्पेसक्राफ्ट्स से हुए 115 मिशनों में से 8 लॉन्च असफल रहे और 3 ऑर्बिट में फेल हो गए. यानी इसरो फेल जरूर हुआ है, लेकिन उसकी सफलता के किस्से अधिक हैं, बजाय फेल होने के. जब सुविधाएं नहीं थी तो साइकिल, बैलगाड़ी, नारियल के पेड़ और चर्च की मदद से रॉकेट प्रक्षेपित किए. जब दुनिया ने कोई तकनीक देने से मना किया तो खुद ही स्वदेशी तकनीक विकसित कर ली. यानी जब-जब इसरो ने किसी नाकामयाबी का सामना किया है तो वह दोगुनी ताकत से दोबारा, तिबारा, बार-बार आया. तब तक आया, जब तक सफलता हासिल नहीं कर ली. भले ही बात क्रायोजेनिक इंजन बनाने की हो. यानी भले ही इस बार चांद की सतह पर सफल लैंडिंग नहीं हो पाई. या यूं कहें कि लैंडिंग के दौरान संपर्क टूट गया, लेकिन इसरो फिर कोशिश करेगा, एक बार, दो बार, बार-बार, जब तक कामयाबी हासिल नहीं हो जाती. आज नहीं तो कल सही, लेकिन चांद की सतह पर लैंडर तो लैंड करेगा ही. बस थोड़ा इंतजार कीजिए...

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