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Updated: 01 जुलाई, 2016 07:37 PM
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यूपी की सियासत में अचानक बिहार के मांझी जैसा महसूस कर रहे स्वामी प्रसाद मौर्य को आरके चौधरी के इस्तीफे से काफी राहत मिली होगी. चौधरी ने भी मायावती पर वही आरोप लगाए हैं जो स्वामी प्रसाद ने लगाये थे - पैसे लेकर टिकट बेचना.

पैसे दो...

स्वामी प्रसाद और चौधरी की ही तरह मायावती पर पैसे लेकर टिकट देने का आरोप लगाने वाले नेताओं की फेहरिस्त भी छोटी नहीं है. इस लिस्ट अखिलेश दास और जुगल किशोर जैसे बड़े नेताओं के अलावा संगीता चौधरी जैसे नेताओं के नाम भी शामिल हैं.

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ये सारे नेता बीएसपी छोड़ने या फिर निकाले जाने के बाद मायावती पर एक ही तरह के आरोप लगाते हैं. संगीता का केस अपवाद का हिस्सा हो सकता है.

एक बात समझ में नहीं आती बीएसपी से अलग होने के बाद इन्हें मायावती के पैसे लेकर टिकट देने की बात बुरी क्यों लगती है. जब तक ये पार्टी में रहते हैं तब तक क्या इन्हें इससे कोई दिक्कत नहीं होती. मायावती के पैर छूते इन नेताओं की तस्वीरें नेट की दुनिया में भरी पड़ी हैं - लेकिन घुटन की बात ये तभी करते हैं जब बीएसपी से बाहर होते हैं. चौधरी भी जितने दिन बीएसपी से बाहर से रहे मायावती पर उनके इल्जाम कायम रहे, जैसे ही उन्हें दोबारा एंट्री मिली 'बहन जी' उनके आरोपों से मुक्त हो गईं. अब फिर से बाहर निकलते ही चौधरी के एवरग्रीन आरोप एक्टिव हो गये.

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सारे दरवाजे खुले हैं...

स्वामी प्रसाद के बीएसपी छोड़ने के बाद मायावती ने कहा था कि अच्छा किया उन्होंने खुद ही पार्टी छोड़ दी, नहीं तो वो बीएसपी से उन्हें निकालने ही वाली थीं.

नेताओं को बीएसपी से निकालने के मामले में मायावती फौरी फैसले लेती हैं. ऐसे मामलों में मायावती ये भी याद नहीं रखतीं कि जिसे वो बाहर कर रही हैं उसका बीएसपी के लिए कितना कंट्रीब्यूशन रहा है.

कितना फर्क पड़ता है

मायावती के बारे में बीएसपी में एक धारणा है वो न तो किसी को बख्शती हैं और न ही माफ करती हैं. हां, एक्शन लेने से पहले वो एक बार आगाह जरूर कर देती हैं.

खुद मायावती पर चाहे जितने भी हमले हों लेकिन बीएसपी के किसी नेता पर आरोप लगने पर वो ज्यादा देर बर्दाश्त नहीं कर पातीं. भला उमाकांत यादव से बेहतर इसे कौन जानता होगा - जब मायावती ने उन्हें मिलने के लिए मुख्यमंत्री आवास बुलाया और पुलिस को बुलाकर अरेस्ट करा दिया.

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बाबूलाल कुशवाहा मायावती के ही कारण फर्श से अर्श तक पहुंचे - लेकिन एनआरएचएम घोटाले में घसीटे जाते ही मायावती ने उन्हें एक ही झटके में कैबिनेट और पार्टी दोनों से बाहर कर दिया.

तो क्या मायावती को किसी भी नेता के आने जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता?

बीएसपी के संस्थापकों में से एक और कांशीराम के करीबी रहे आरके चौधरी जब बीएसपी से बाहर रहे तब भी और फिर वापसी के बाद तीन साल अंदर रहे तब भी - और अब जबकि एक बार फिर वो पार्टी छोड़ चुके हैं - मायावती को कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन ऐसा क्यों?

वन मैन शो

जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री रहीं तो कुछ लोग उन्हें मैडम नहीं बल्कि 'सर' ही बोलते थे. मायावती भी बीएसपी में तकरीबन वैसा ही 'वन मैन शो' का रुतबा मेंटेन करती हैं. जब से मायावती ने हाथ में चार्ज लिया बीएसपी में नेता मतलब है सिर्फ मायावती - दूसरा, तीसरा या चौथा कोई नहीं. माना जाता है कि मायावती के ज्यादा एक्टिव हो जाने के बाद कांशीराम भी अभिभावक कैटेगरी में हो गये थे.

बीएसपी में छोटे से छोटा फैसला भी खुद मायावती ही लेती हैं. कुछ मामले ऐसे हैं जिनकी जिम्मेदारी किसी को मिली हुई है तो वो भी फैसला पूछ कर ही लेता है. ये कोई रस्मअदायगी नहीं, स्टैंडर्ड प्रैक्टिस है. मायावती की तुलना में देखें तो जयललिता का भी यही हाल है, ममता बनर्जी इस मामले में थोड़ा अलग इसलिए हैं कि वो अपने भरोसेमंद सहयोगियों को इस बात की छूट दे रखी है.

मायावती को मालूम है कि उनका वोटर सिर्फ उन्हें जानता है. बाकी जो भी बतौर बीएसपी उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतरता है उसे वोट मायावती के नाम पर ही मिलता है. मायावती का वोट बैंक इतना सॉलिड है कि उम्मीदवार के गैर दलित होने की हालत में भले ही उसे उसकी बिरादरी वाले दगा दे जाएं, दलितों का वोट मिलना तो सौ फीसदी पक्का है.

तो क्या स्वामी प्रसाद और चौधरी के बीएसपी से अलग होने से पार्टी पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा? मामूली फर्क की बात और है, लेकिन कोई बड़ा फर्क शायद ही पड़े.

मौजूदा दौर में स्वामी प्रसाद की सियासी हैसियत क्या जीरो हो गई है? ऐसा तो नहीं कहा जा सकता क्योंकि वो यूपी के बड़े नेता हैं - कैबिनेट मंत्री से लेकर नेता विपक्ष रह चुके हैं. राजनीति का लंबा अनुभव है और जिस बिरादरी से वो आते हैं उसका वोट बैंक भी काफी अहमियत रखता है.

मगर, एक कड़वी सच्चाई तो ये है ही कि जो रुतबा मायावती की छत्रछाया में उनका रहा वही स्टेटस पाने के लिए उन्हें अभी काफी पापड़ बेलने पड़ेंगे. ये सब इस बात पर निर्भर करता है कि स्वामी प्रसाद किस दल का दामन थामते हैं और बारगेन कर कौन सी पोजीशन हासिल कर पाते हैं.

स्वामी प्रसाद के विकल्प

स्वामी प्रसाद ये शिगूफा तो छोड़ ही रखे हैं कि वो हर किसी को तौल रहे हैं. जब तक किसी पार्टी में उनके शामिल हो जाने की घोषणा नहीं हो जाती कयासों का खेल चलता रहेगा. तब तक ये भी मान कर चलना चाहिये कि कोई दरवाजा बंद नहीं है.

स्वामी प्रसाद यूपी में किसी भी पार्टी को वोट भले न दिला पाएं लेकिन वो ऐसे हथियार हैं जो इस्तेमाल किये जाने पर मायावती को मुश्किल में तो डालेगा ही. ठीक वैसे ही जैसे बिहार चुनाव में जीतन राम मांझी को हर पार्टी ने नीतीश के खिलाफ मोहरा बनाया. बीजेपी ही नहीं लालू ने भी मांझी का नीतीश के खिलाफ जितना संभव था उतना इस्तेमाल खुल कर किया.

स्वामी प्रसाद अगर समाजवादी पार्टी में जाते हैं तो मुलायम सिंह यादव चाहेंगे कि गैर-यादव ओबीसी वोटों में जितना बंटवारा संभव हो जाए. समाजवादी पार्टी भी मायावती को ही सबसे बड़ा दुश्मन मान कर चल रही होगी - और मायावती को स्वामी प्रसाद जितना भी नुकसान पहुंचा पाएं - फायदे का ही सौदा होगा.

स्वामी प्रसाद के कांग्रेस नेताओं से भी मिलने की खबरें आ रही हैं. कांग्रेस की भी कोशिश होगी कि स्वामी प्रसाद को जोड़ कर उसके हाथ से खिसक चुके ओबीसी वोटों में से कुछ हिस्सा ही सही जुटाया जा सके.

रही बात बीजेपी की तो वो स्वामी प्रसाद के साथ हिमंत बिस्वा सरमा जैसा एक्सपेरिमेंट कर सकती है. मायावती के चुनावी अभियान के एक्जीक्यूशन में स्वामी प्रसाद की अहम भूमिका हुआ करती थी. अगर बीजेपी के साथ स्वामी प्रसाद की डील फाइनल हो गई तो उसे फायदा तो निश्चित तौर पर होगा, इतना तो तय है.

स्वामी प्रसाद यूपी के हिमंत बिस्वा सरमा साबित होते हैं या फिर जीतनराम मांझी, ये तभी समझ में आएगा जब वो बता दें कि किसका दामन थाम रहे हैं?

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