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Updated: 07 मार्च, 2017 09:22 PM
सीमा गुप्ता
सीमा गुप्ता
  @seema.gupta.9028
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उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के आखिरी और सातवें चरण के लिए भी प्रचार सोमवार को खत्म हो गया. करीब डेढ़ महीने तक पूरे प्रदेश में तमाम पार्टियों ने प्रचार में अपनी पूरी ताकत झोंकी. इस दौरान आरोप-प्रत्यारोप, पंचलाइन्स, चुटकियां और क्या-क्या नहीं, जिनके जरिए एक-दूसरे पर निशाना साधा गया. उत्तर प्रदेश चुनाव प्रचार से जुड़े ये अहम निष्कर्ष हैं जिन्होंने राजनीति को गर्माए रखा.

यूपी की जंगल बुक फिल्म के पॉपुलेरिटी चार्ट में टॉप पर गधा

ये चुनाव प्रचार कई बातों के लिए जाना जाएगा. इसमें जिस तरह की भाषा का इस्तेमाल किया गया वो 'जंगल बुक' की याद दिलाता है. गाय, भैंस, गधा, गैंडा, सांप, मेंढक, कबूतर...क्या नहीं जिसका विरोधियों पर निशाना साधने के लिए इस्तेमाल नहीं किया गया लेकिन लोकप्रियता के चार्ट पर गधे ने सभी को पीछे छोड़ दिया. गुजरात के छोटा रण में पाए जाने वाले गधे 'घुड़खर' को देश भर में जाना जाने लगा जब अखिलेश ने चुनावी सभा में इसका नाम लिया. इसका जवाब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गधे को मेहनती बता कर दिया. राजनीति में गधे पर पहले इस तरह कभी चर्चा नहीं हुई. इस तरह उत्तर प्रदेश प्रचार अभियान के चार्ट में गधा सबसे ऊपर रहा.

पॉवर का करंट या करंट के बिना राजनीति

इस चुनाव प्रचार में 440 वॉट का करंट था, या कम से कम अखिलेश ने तो यही साबित करना चाहा. अखिलेश ने मोदी को चुनौती दी थी कि वो बिजली के तार को छूकर देखें कि झटका लगता है या नहीं. मोदी और अमित शाह अपने सभी भाषणों में यूपी सरकार पर लगातार हमले किए कि राज्य में बिजली की आपूर्ति वैसे नहीं हो रही है जैसे कि अखिलेश दावे करते हैं. दावे और प्रतिदावे लगातार चलते रहे, राजनीति अपना काम करती रही. केंद्रीय ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल स्टेट्स रिपोर्ट तक के साथ सामने आए. आरोप-प्रत्यारोप के बीच उत्तर प्रदेश के लोग हैरान रहे कि कौन सही है और कौन गलत. लेकिन ये सच है कि बिजली उनके लिए अब भी बड़ा सपना बना हुआ है.  

गंगा मैया- 'खाओ गंगा मैया की कसम'    

ये डॉयलॉग भी चुनाव प्रचार के दौरान छाया रहा. अखिलेश अपनी सरकार के विकास कार्यों को लेकर जगह गंगा मैया की कसम का हवाला देते रहे. मोदी ने खुद को गंगा मैया का गोद लिया हुआ पुत्र बताया. लेकिन 'बेचारी मां' ने खुद अपने लिए किसी को गंभीरता से सफाई का काम करते नहीं देखा. बहुप्रचारित 2000 करोड़ रुपए के नमामि गंगा प्रोजेक्ट ने सफाई को लेकर अब भी धार पकड़नी है. कैबिनेट मंत्री उमा भारती राज्य सरकार को कटघरे में खड़ा करती हैं लेकिन हकीकत ये है कि अभी तक एक भी सीवेज अस्तित्व में नहीं आया है. गंगा अब भी पहले की तरह ही मैली होती आ रही है. और हां, गंगा की सफाई का वचन भी समान रूप से प्रदूषित हो चुका है.

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जाति का व्यूह

उत्तर प्रदेश का चुनाव प्रचार जातियों के गुणा-भाग के लिए भी जाना जाएगा. यादव, ब्राह्मण, कायस्थ, मुस्लिम, कुर्मी, दलित, ओबीसी आदि सभी को लुभाने के लिए पार्टियों का जोर रहा. बीजेपी हो या बीएसपी या फिर एसपी-कांग्रेस गठबंधन, सभी ने  जाति के अंकगणित पर मेहनत करते दिखे. अब ये तो वक्त ही बताएगा कि लोगों ने विकास के आधार पर वोट किया या फिर जातिगत राजनीति अब भी हावी रही. लगभग सभी पार्टियों ने जातीय आधार पर उम्मीदवार खड़े किए. मायावती ने दलितों के अलावा 100 मुस्लिम उम्मीदवारों तक को टिकट दिए. बीजेपी ने सवर्णों को अहमियत दी तो समाजवादी पार्टी ने यादवों, मुस्लिमों और अन्यों में संतुलन साधने की कोशिश की.

वोटों का ध्रुवीकरण

उत्तर प्रदेश चुनाव प्रचार अभियान को वोटों के ध्रुवीकरण के लिए भी जाना जाएगा. बीजेपी ने जो मुद्दे उठाए उनमें कब्रिस्तानों के लिए जमीन आवंटन, पशु वध केंद्रों को बंद करने, ईद के दौरान बिजली की आपूर्ति और दीवाली पर किल्लत, जाति और धर्म के आधार पर लैपटॉप वितरण आदि शामिल रहे. इनसे चुनाव का माहौल गर्म हुआ और कई मौकों पर अखिलेश सरकार को सफाई देनी पड़ी. बीजेपी, बीएसपी और एसपी ने समर्थन जुटाने के अपने हिसाब से मुद्दों को हवा दी. पश्चिमी और पूर्वी हिस्सों में इसका अधिकतम असर दिखा.

शिखर पर रहा वंशवाद

बेटा, मां, पिता, भाई, बेटी, बहू सभी चुनाव लड़ते देखे गए. इस मामले में समाजवादी पार्टी सबसे ऊपर रही. हालांकि बीजेपी और कांग्रेस भी ज्यादा पीछे नहीं रहीं. सबसे लोकप्रिय बहू अपर्णा यादव, नरेश अग्रवाल और आजम खान के बेटे, अखिलेश सिंह की बेटी अदिति सिंह, सभी राजनीतिक विरासत के दम पर ताल ठोंकते दिखे. इनके परिवारों के सदस्यों ने इनके लिए प्रचार में कोई कसर नहीं छोड़ी.

विकास ठंडे बस्ते में

अखिलेश, राहुल, मायावती और अन्य नेताओं में हर कोई एक दूसरे को राज्य में विकास में ना होने के लिए कटघरे में खड़ा करते दिखा. लैपटॉप, कानपुर-लखनऊ एक्सप्रेस वे, लखनऊ मेट्रो और अन्य कई मु्ददे बहस के मंच पर आए लेकिन जातिगत राजनीति के बीच विकास के मुद्दे दावों-प्रतिदावों तक ही सीमित रहे. मोदी ने लैपटॉप को झुनझुना बताया और मेट्रो को ऐसा बताया जो अभी तक दौड़ी ही नहीं.

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राहुल मोदी पर हमलावर, माया पर नर्म

एसपी-कांग्रेस गठबंधन के मजबूत नारे 'यूपी को ये साथ पसंद है' के साथ ही अखिलेश और राहुल की साझा रैलियों और प्रेस कॉन्फ्रेंस ने उनके प्रचार को ताकत दी. लोगों में 'अगली पीढ़ी के युवा लड़कों' को साथ देखने की उत्सुकता दिखी. अखिलेश जहां मोदी और मायावती, दोनों को निशाना बनाते रहे वहीं राहुल ने हमले की बंदूक सिर्फ मोदी तक ही मोड़े रखी, मायावती के खिलाफ वो एक शब्द नहीं बोले. जाहिर है कि राहुल ने कांग्रेस और बीएसपी में भविष्य में किसी गठजोड़ की संभावना बनाए रखी.

प्रचार से दूर रहीं सोनिया, इक्का दुक्का ही दिखीं प्रियंका

चुनाव तारीखों की घोषणा से पहले प्रियंका के यूपी में बड़े पैमाने पर चुनाव प्रचार करने की अटकलें थीं लेकिन प्रियंका सिर्फ एक बार ही रायबरेली में ही अपने भाई के साथ प्रचार करते नजर आईं. 1998 के बाद ये पहला मौका रहा जब सोनिया गांधी ने चुनाव के दौरान रायबरेली और अमेठी में खराब सेहत की वजह से प्रचार नहीं किया. इसमें कोई संदेह नहीं कि राहुल ने इस चुनाव में अपनी भाषण-कला का स्तर का ऊंचा किया लेकिन लोग प्रियंका गांधी को ज्यादा सुनना चाहते थे. राजनीतिक पंडितों के मुताबिक प्रियंका की क्षमताओं की परख अब भी पर्दे के पीछे ही रही.

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क्या मायावती बीजेपी के साथ गठबंधन करेंगी?

चुनाव के तीसरे चरण के दौरान अखिलेश ने वोटरों को आगाह किया था कि मायावती और बीजेपी में चुनाव उपरांत गठबंधन हो सकता है. हालांकि मायावती ने जोर देकर त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति आने पर ऐसे किसी गठबंधन की संभावना से इनकार कर दिया था. ऐसे में कई तरह के कयास लगाए जा रहे हैं कि मायावती ने 80 या अधिक सीटें जीतीं तो क्या सरकार बनाने की कुंजी उनके हाथ में आ जाएगी. यानि ऐसी स्थिति में यूपी में किंगमेकर क्या बीएसपी होगी?

मुलायम का प्रचार भाई शिवपाल और बहू अपर्णा तक सीमित रहा

अखिलेश के लिए ये चुनाव अग्नि परीक्षा से कम नहीं. आखिरकार उन्हें अपने परिवार को दिखाना है कि वो राजनीतिक विरासत को अपने मजबूत कंधों पर आगे ले जा सकते हैं. वहीं पार्टी के चुनाव चिह्न साइकिल पर दावे की लड़ाई हारने के बाद मुलायम ने खुद को इटावा में भाई शिवपाल यादव और लखनऊ में बहू अपर्णा यादव के चुनाव प्रचार तक ही सीमित रखा. इसके अलावा वो पूर्वी उत्तर प्रदेश में सातवें चरण में एक और यादव उम्मीदवार के लिए प्रचार करते दिखे.

एसपी के लिए दिक्कत बने रहे गायत्री प्रजापति

अखिलेश कैबिनेट के चर्चित मंत्री गायत्री प्रजापति सुर्खियों में बने रहे लेकिन गलत कारणों से. चुनाव से पहले अखिलेश को दबाव की वजह से गायत्री प्रजापति को कैबिनेट में वापस लेना पड़ा. बाद में अमेठी में गायत्री की उम्मीदवारी को लेकर कांग्रेस-एसपी गठबधंन दांव पर लगता दिखा. और सबसे अहम रेप का आरोप जिसकी वजह से अमेठी में चुनाव खत्म होने के बाद से ही गायत्री भूमिगत है. अखिलेश के लिए गायत्री ने हमेशा ही दिक्कत पेश की. हालांकि अखिलेश ने अमेठी में गायत्री के लिए प्रचार किया लेकिन ये सिर्फ अपने पिता मुलायम के साथ शांति बनाए रखने को ध्यान में रखकर.

300 सीट जीतने का हर कोई कर रहा है दावा

लगता है सभी पार्टियों का 300 के आंकड़े से खास मोह है. अमित शाह, मायावती, अखिलेश सभी अपने चुनावी भाषणों में 300 सीट जीतने का दावा कर रहे थे. लेकिन आखिरी तीन चरणों का मतदान आते-आते ऐसे दावों की आवाज कमजोर पड़ती गई. 300 सीट या इससे पार जाना किसी भी पार्टी के लिए बड़ी उपलब्धि होगी. लेकिन राजनीतिक पंडित सभी दलों के लिए इस आंकडे को छूना दूर की कौड़ी मान रहे हैं.

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बीजेपी के लिए वाराणसी नाक का सवाल

बनारस इस वक्त छोटे युद्ध क्षेत्र से कम नहीं. नरेंद्र मोदी का तीन दिन वाराणसी मे रहकर मेगा रोड शो के जरिए बनारस वालों से जुड़ने की कोशिश करना अपने आप में ही सब कुछ कह देता है. प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र में अखिलेश-राहुल के साझा रोड शो ने भी माहौल को चार्ज किया. अगर यहां बीजेपी हारती है तो विरोधियों को कई निहितार्थ निकालने का मौका मिलेगा. 15 से ज्यादा केंद्रीय मंत्री बनारस का चप्पा चप्पा छान कर बीजेपी की संभावनाओं को उठाने की कोशिश कर रहे हैं. पिछले विधानसभा चुनाव में बनारस में बीजेपी को 3 सीट मिली थी, इस बार पार्टी का पूरा लाव-लश्कर इस कोशिश में लगा रहा कि बनारस में पार्टी को कम से कम 6 सीटों पर जीत मिले. गंगा सफाई के मुद्दे पर बैकफुट पर आई बीजेपी अब 'परिवर्तन' का नारा देकर बनारस में वोट मांग रही है.

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लेखक

सीमा गुप्ता सीमा गुप्ता @seema.gupta.9028

लेखक आजतक में न्यूज एडिटर हैं

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