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Updated: 11 फरवरी, 2023 01:58 PM
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कार्ल मार्क्स ने कहा था कि इतिहास खुद को दोहराता है, पहले त्रासदी और फिर प्रहसन के रूप में. भारतीय राजनीति की त्रासद सच्चाई यह है कि यहां इतिहास बार-बार दोहराया जा रहा है. हिन्दुस्तान का पहला वित्तीय घोटाला हरिदास मुंधड़ा कांड या घोटाला था जिसे 1957 में सत्तारूढ़ कांग्रेस के ही फिरोज गांधी ने उठाया था. संयोग ही है कि तब के मूंधड़ा घोटाले के केंद्र में एलआईसी थी और मौजूदा अडानी प्रकरण में भी एलआईसी एक विक्टिम कार्ड है. तब इस पूरे मामले के बारे में फिरोज गांधी ने इसके खिलाफ संसद में आवाज उठाई, अब राहुल गांधी इसके खिलाफ बोल रहे हैं. उन्होंने कहा कि एलआईसी ने हरिदास मूंदड़ा की कंपनियों के शेयर्स उसे फ़ायदा पहुंचाने के लिहाज़ से खरीदे हैं. उन्होंने इस बात पर भी सवाल उठाए की सरकार और एलआईसी ने इसका विरोध क्यों नहीं किया? जब इसका जवाब वित्त मंत्री टीटी कृष्णामाचारी से मांगा गया तो उन्होंने इसका गोलमोल जवाब दिया.

बहस तेज हुई, जबकि फिरोज गांधी पीएम नेहरू के दामाद भी थे, ने अकाट्य तथ्य रखे. उनका पॉइंट वाजिब था कि एलआईसी सरकार के हाथों बनाया गया सबसे बड़ा संस्थान है और सरकार को इसके निवेश पर निगरानी रखनी चाहिए. उन्होंने बोल बचन नहीं बोले थे जैसे आज के अडानी प्रकरण में फीरोज के पोते बोल रहे हैं. तब भी सरकार ने भरसक कोशिश की थी कि मामला ठंडे बस्ते में चला जाए लेकिन कुछ समय तक टालने के बाद बम्बई उच्च न्यायालय के रिटायर्ड जज एमसी छागला की अध्यक्षता में जांच आयोग बिठा दिया गया था. आरोप सिद्ध हुए, वित्त मंत्री और सचिव को जाना पड़ा और मूंधड़ा को जेल हुई. विश राहुल ने सरनेम के साथ साथ दादा जी को फ़ॉलो किया होता और वैसा ही डिस्कोर्स रखा होता. शायद मूंधड़ा घोटाला ही एकमात्र घोटाला था जो सिद्ध हो पाया था. बाद में तो तमाम घोटालों ने सरकारें ज़रूर गिराईं लेकिन सिद्ध कभी नहीं हुए.

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हां, बीजेपी के साथ एक अच्छी बात यही हुई कि इन घोटालों के हश्र ने जनता को समझदार बना दिया. तभी तो आरोपों के बोल वचनों को तवज्जो नहीं मिली और मोदी गर्व से कह रहे हैं कि जितना कीचड़ उछालोगे, कमल उतना ही खिलेगा. यदि बात करें भाषणों को लेकर एक तरफ राहुल गांधी लोकसभा में और खड़गे जी राजयसभा में और दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी की तो सबसे बड़ा फर्क है तत्परता का. एक तरफ मोदी की तत्परता निरंतर है, वहीं दूसरी तरफ दोनों की तुलना उस एस्पिरैंट से की जा सकती है जिसके हाथ कोई क्रैश कोर्स या पेपर लीक मिल गया हो. ठीक है लुक तपस्वी का है तो डिस्कोर्स भी गंभीर होना चाहिए ना. खड़गे जी जेपीसी की रट लगाते रहे लेकिन तभी तक जब बहुत देर से जब्त कर बैठे पीयूष गोयल ने कह ही दिया कि क्या उनके "स्कार्फ़" पर जेपीसी बैठा दी जाए. ऐसे प्रहसन की कल्पना ही शायद कार्ल मार्क्स ने की थी. पब्लिक अवाक है कि किस पब्लिक मनी के गायब होने की बात हो रही है जब एलआईसी और तमाम बैंक कह रहे हैं कि अडानी समूह में ना केवल उनका इन्वेस्टमेंट बल्कि उनका दिया हुआ ऋण भी सेफ है, सिक्योर्ड हैं. जहां तक रिटेल निवेशकों की बात है तो वैसे भी अडानी ग्रुप में एक्सपोज़र लेने वाले बहुत कम ही हैं, शायद एक फीसदी से कुछ ज्यादा ही हो. आम जनता के लिए तो स्टॉक मार्केट की घटत बढ़त के कोई मायने ही नहीं होते.

जहां तक अदाणी के 2014 में 605 वें स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचने की बात है तो इसकी वजह ग्लोबल इकोनॉमिक इकोसिस्टम की एक कमी है जिसका फायदा उठाकर अडानी ने इसे अवसर बना लिया. हां, निश्चित ही अडानी की ग्रोथ जर्नी मोदी काल में शानदार रही लेकिन ग्रोथ की एकमेव वजह मोदी काल ही नहीं है. कहावत है एक हद के बाद पैसा ही पैसे को खींचता है और अडानी ने वो हद 2014 के पूर्व यूपीए काल में ही प्राप्त कर ली थी. अडानी ने तौर तरीक़े ग़लत अपनाये, अनियमितता की, मेनीप्युलेट भी किया लेकिन ये सब तब तक क़यास ही रहेंगे जब तक जांच होकर सिद्ध नहीं हो जाते और जांच कराने के लिए आरोप नहीं प्रमाण प्रस्तुत करने होंगे, ख़ास और ठोस नहीं तो परिस्थितिजन्य साक्ष्य हों. सिर्फ़ सनसनी नहीं चलती कि नियम बदले गये, मोदी ने कहा और अडानी का काम बन गया, अंबानी के प्लेन में जाते थे, एवज़ में अडानी ने पीएम केयर में पैसे दिये या इलेक्टोरल बांड्स दिये आदि आदि. अब ये तो वाइल्ड एलिगेशन ही कहलाएगा ना कि एलआईसी और एसबीआई से पीएमओ ने स्टेटमेंट जारी करवा दिए. आप बताएं ना क्या गलत कहा दोनों ने.

सच्चाई तो यही है कि एलआईसी का अडानी में अच्छा इन्वेस्टमेंट हैं, एसबीआई का ऋण भी गुड है. कांग्रेस कहे ना कि दोनों अपने एक्सपोज़र्स डाइल्यूट कर लें. वे ऐसा नहीं कहेंगे. 2019 के पूर्व भी राफेल प्रकरण खूब उछला था, फेल हुआ क्योंकि प्रामाणिकता नहीं थी और साथ ही उछालने की वजहें ग़लत थी. एक बार फिर ग़लत वजहों की वजह से ही अडानी प्रकरण भी 2024 के लिए राफेल ही सिद्ध होने जा रहा है. फिर कांग्रेस संपूर्ण विपक्ष को एकमत नहीं करवा पा रही है. ऐसा नहीं है कि सत्ता पक्ष दूध का धोया है. कब तक कांग्रेस की नाकामियों को सुनाते और भुनाते रहेंगे? ठीक है उपलब्धियां अच्छी खासी रही हैं आपकी तो उसका फल भी तो मिल रहा है. लेकिन कमियां भी हैं, कुछ नाकामियां भी हैं जिन्हें दुरुस्त करने पर आपका फोकस होना चाहिए न कि आप लगे रहें या तो वे उजागर ही नहीं हो या फिर विपक्ष को उसके स्याह अतीत में उलझा कर रखो ताकि वह मज़बूती से उजागर ही ना कर पाये. आख़िर विपक्ष की उन्हीं कमियों और नाकामियों ने आपको सत्ता दिलाई. सो अपने रिकॉर्ड को दुरुस्त कीजिए बजाय रिकॉर्ड ही गायब करने के, वरना परमानेंट ना वे रह पाये और ना ही आप रह पायेंगे. जनता जब भरोसा करती है, खूब करती है. कांग्रेस पर भरोसा बनाए रखा बावजूद तमाम नाकामियों के जिन्हें आज आप गिना रहे हैं.

कब कैसे और क्यों भरोसा टूटेगा, भविष्य के गर्त में है, क्या मालूम 2024 ही भारी पड़ जाये और उसके बाद वे, जो आज विपक्ष में हैं, यूं ही आपकी कमियां बताने में समय जाया करेंगे. यही राजनीति है जिसके कुचक्र में जनता पिस रही है, राष्ट्रहित इग्नोर हो रहा है. विडंबना ही है जब आप कतिपय दुरूपयोगों का, मसलन धारा 356 का या कोई और, हवाला देकर स्कोर करने की कोशिश करते हैं. यदि न्यायालय ने ग़लत नहीं ठहराये या फिर वे मामले न्याय की कसौटी पर रखे ही नहीं गए तो वे संविधान के अनुरूप नियमानुसार ही थे ना. आपने भी वही किया भले ही कम किया तो प्रामाणिकता कहां रह गई? उल्टे बेवजह ही एक नयी परंपरा शुरू कर दी एक्सपंज करने की कि तो एकरूपता रखें ना. विवेकाधिकार की आड़ लेना कितना उचित है? कितना अच्छा लगता है कहना कि संसद लोकतंत्र का मंदिर है. एक ऐसा मंदिर जहां 140 करोड़ जनता के प्रतिनिधि पुजारी हैं देश के वर्तमान और भविष्य को गढ़ते हैं. लेकिन यह मानने में किंचित भी संकोच नहीं होना चाहिए कि लोकतंत्र का पावन मंदिर धीरे-धीरे राजनीतिक आरोप प्रत्यारोप के मंच में तब्दील होता जा रहा है.

सत्र बजट हो या शीतकालीन, या फिर मानसून, संसद में विधायी कामकाज महज खानापूर्ति ही है. राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद चर्चा के दौरान पक्ष और विपक्ष के रवैये, भाषणों को देखकर लगा ही नहीं कि जान प्रतिनिधि देश के भविष्य को और सुनहरा बनाने के बारे में सामूहिक सोच रखते हों. चार दिन चली चर्चा में एक दूसरे को घेरने की राजनीति के अलावा कुछ ख़ास नजर नहीं आया. राहुल गांधी के पास स्वर्णिम अवसर था स्वयं को धीर, गंभीर और तेजस्वी सिद्ध करने का लेकिन वे राजनीति का ही शिकार हो गए. एक हिंडनबर्ग रिपोर्ट को उन्होंने गॉस्पेल ट्रुथ मानते हुए केंद्र सरकार को घेरा. उनकी रणनीति ज्यादा कारगर होती यदि वे व्यक्तिगत नहीं होते. तब टिट फॉर टैट नहीं होता निशिकांत का जिसने आपकी पूरी पार्टी को शर्मसार कर दिया, निरुत्तर कर दिया. जवाब अगले दिन मोदी ने भी दिया. अडानी का नाम नहीं लिया तो बैलेंस करने के लिए राहुल का भी नाम नहीं लिया लेकिन कसर कोई बाकी नहीं छोड़ी और रही सही कसर राज्य सभा में पूरी कर दी. लेकिन क्या अच्छा नहीं होता कि चर्चा को राष्ट्रपति के अभिभाषण तक ही सीमित रखा जाता?

अडानी समूह के बारे में आई रिपोर्ट और शेयर बाजार में हुई उठापटक पर अलग से चर्चा कर ली जाती तो क्या बेहतर नहीं होता? बीते दो दशकों के दौरान देखा जाए तो सार्थक बहस बंद सी हो गई है. न सांसद तैयारी कर आते हैं और न ही मंत्री अपने दायित्व को बखूबी निभाते हैं. फिर चूंकि संसद में विपक्ष बिखर जाता है या कहें कि बिखरा दिया जाता है, सरकार को एस्केप रूट मिल ही जाता है. कहने को कह दिया जाता है सीबीआई, ईडी के डर से ऐसा हो जाता है तो फिर जनता क्यों ना समझें कि हमाम में सब नंगे हैं और चोर चोर मौसेरे भाई. कहावत कही है, किसी की अवमानना का कोई मकसद नहीं है. जनता ने भी मान लिया है कि नेताओं से ईमानदारी की अपेक्षा हो ही नहीं सकती, चुनने के लिए चुनना है तो बेहतर ऑप्शन को चुन लिया जाता है. ऑन ए लाइटर नोट बेहतर का मतलब अच्छा चोर नहीं बल्कि कमतर चोर और नेता भी अब इसी "कमतर" दिखने और दिखाने की लड़ाई लड़ रहे हैं. बीच में आता है अहंकार जिसके सर चढ़कर बोलने में समय लगता है.

यही अहंकार जब चरम पर पहुंचा कांग्रेसी नेताओं में तब परिणाम 2014 हुआ. उदाहरण के लिए एक वाकया मनीष तिवारी का याद आता है, जब उन्होंने कहा था, "किशन बाबूराव हजारे उर्फ अन्ना तुम किस मुंह से भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन की बात करते हो, तुम खुद ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार में डूबे हुए हो..." सत्ता के अहंकार का सबसे भौंडा प्रदर्शन था ये. रही सही कसर जनवरी 2014 में मणिशंकर अय्यर ने पूरी कर दी थी जब कहा था, "मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि 21वीं सदी में नरेंद्र मोदी भारत के कभी प्रधानमंत्री नहीं बन सकते, लेकिन यदि वह यहां चाय बेचना चाहेंगे, तो हम उन्हें यहां जगह दे सकते हैं." ऐसे ही कथानकों ने यूपीए का पराभव सुनिश्चित कर दिया. क्या बीजेपी भी अहंकार का शिकार होती जा रही है? गर्व और अहंकार के मध्य महीन फर्क होता है. देखिये हम फिर भटक गए. वापस लौट आएं खत्म करने के लिए कि पूरा सेशन ही वोटों की राजनीति के इर्द-गिर्द घूमता नजर आता है. संसद को तुच्छ और दलगत राजनीति से निकाल कर गंभीर चर्चा का मंच बनाने की जिम्मेदारी जितनी विपक्ष की है, उतनी ही सत्ता पक्ष की भी है.

लेखक

prakash kumar jain prakash kumar jain @prakash.jain.5688

Once a work alcoholic starting career from a cost accountant turned marketeer finally turned novice writer. Gradually, I gained expertise and now ever ready to express myself about daily happenings be it politics or social or legal or even films/web series for which I do imbibe various  conversations and ideas surfing online or viewing all sorts of contents including live sessions as well .

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