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Updated: 25 मई, 2018 10:03 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
  @msTalkiesHindi
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आधी रात को सबसे बड़ी अदालत लगने के बाद से कई बातें साफ हो चुकी हैं. कर्नाटक केस की सुनवाई के बाद अब किसी को शक नहीं कि ऐसे मामले भी होते हैं जिनके लिए इमरजेंसी सुनवाई की जरूरत पड़ सकती है.

कर्नाटक का मामला संवैधानिक व्यवस्था से जुड़ा था, तो याकूब मेमन का एक अपराधी के संविधान से मिले अधिकारों का. दोनों ही मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने गंभीरता समझते हुए तत्परता दिखायी - और नैसर्गिक न्याय पाने का हक मुहैया कराया.

जब रात भर चली अदालतें

कर्नाटक विधानसभा चुनाव में बीजेपी के सीएम कैंडिडेट बीएस येदियुरप्पा ने 17 मई को शपथग्रहण की घोषणा कर दी थी - और राज्यपाल वजुभाई वाला ने भी उन्हें मनमर्जी का न्योता दे दिया. कांग्रेस और जेडीएस इसके खिलाफ देर रात सुप्रीम कोर्ट पहुंचे. चीफ जस्टिस ने मामले की गंभीरता को देखते हुए सुनवाई के लिए तीन जजों की बेंच गठित कर दी - और भोर तक सुनवाई चली. यही हाल तब भी हुआ था जब याकूब मेमन की फांसी रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट में दरख्वास्त दाखिल हुई - और फांसी के लिए नियत वक्त से कुछ ही देर पहले सुनवाई खत्म हुई.

supreme courtकानून तो सभी के लिए बराबर है...

ये तो हुई आपातकालीन स्थिति में अदालत लगने और सुनवाई होने की बात. हाल की ही बात है - बॉम्बे हाई कोर्ट से भी साढ़े तीन बजे भोर तक अदालतकी की कार्यवाही की खबर आयी थी. पता चला बॉम्बे हाईकोर्ट के जज जस्टिस शाहरुख जे कथावाला छुट्‌टी पर जाने से पहले ज्यादा से ज्यादा केस निबटाना चाहते थे. अमूमन हाई कोर्ट में सुनवाई 11 बजे तक शुरू होती है, लेकिन जस्टिस कथावाला 10 बजे ही कोर्ट पहुंच जाते हैं. जिस दिन का वाकया है उस दिन जस्टिस कथावाला साथी जजों से 10 घंटे बाद तक बैठे रहे और 135 मामलों की सुनवाई की. 58 साल के जस्टिस कथावाला ने इस दौरान महज 20 मिनट का ब्रेक लिया था.

ये मामले भले ही जानने सुनने में रेयरेस्ट ऑफ रेयर लगें, लेकिन वस्तुस्थिति यही है कि इसे जल्द से जल्द सामान्य कार्य व्यवहार का हिस्सा बना दिया जाये. पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस टीएस ठाकुर ने भी छुट्टियों में सुनवाई को लेकर कहा था, "मेरी सलाह है कि अगर दोनों पक्षों के वकील सहमत हों तो मैं हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों से इसकी इजाजत देने को कहना चाहूंगा - और जजों के लिए भी मेरी यही सलाह होगी."

सुप्रीम कोर्ट के वकील और बीजेपी नेता अश्विनी कुमार उपाध्याय ने अदालतों की लंबी छुट्टियों को लेकर सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर की है.

क्या कहती है PIL

अंग्रेजी अखबार मेल टुडे की रिपोर्ट के अनुसार याचिका में अदालतों में होने वाली लंबी छुट्टियों की ओर ध्यान दिलाया गया है. ऐसे में जब देश में 3.3 करोड़ मामले लंबित पड़ें हों, याचिका कहती है, अदालतों में सर्दी, गर्मी और त्योहारों के नाम पर लंबी छुट्टियों का क्या तुक है?

ashwini upadhyayत्वरित न्याय का अधिकार

फिलहाल साल के 365 दिनों में सुप्रीम कोर्ट में 193 कार्य दिवस होते हैं, बाकी छुट्टियां होती हैं - गर्मी की छुट्टियां 45 दिन, सर्दी की छुट्टियां 15 दिन, होली की छुट्टियां 7 दिन और दशहरे-दीपावली की 5-5 दिन. कुल 77 दिन की लंबी छुट्टियां जो वीकेंड से इतर हैं.

सुप्रीम कोर्ट के मुकाबले हाई कोर्ट में काम के 210 दिन होते हैं जबकि बाकी अदालतों में साल के 245 दिन. सुप्रीम कोर्ट में कुल 13 अदालते हैं और एक कोर्ट छुट्टियों में भी अर्जेंट सुनवाई के लिए खुला होता है. ऐसे में जबकि सुप्रीम कोर्ट में करीब 60 हजार मामले सुनवाई के इंतजार में हैं, पांच लंबी छुट्टियों का कोई तुक नहीं बनता और याचिका में यही मसला उठाया गया है.

कोर्ट में लंबित मामले

याचिका के मुताबिक पूरे देश भर में कुल 3.3 करोड़ मामले लंबित हैं. याचिका में सलाह दी गयी है कि सुप्रीम कोर्ट सहित सभी अदालतों में साल में 225 दिन और हर रोज कम से कम छह घंटे काम होने चाहिये.

फिलहाल देश भर की अदालतों में लंबित मामले हैं -

1. निचली अदालत - 2.65 करोड़

2. हाई कोर्ट - 64 लाख

3. सुप्रीम कोर्ट - 59, 458

4. लंबित मामलों में 40 फीसदी ऐसे हैं जो पांच साल से ज्यादा पुराने हैं.

5. इनमें 60 फीसदी ऐसे केस हैं जो कम से कम एक साल पुराने हैं.

छुट्टियां ही नहीं बल्कि आबादी के अनुपात में जजों की उपलब्धता भी मामलों के लंबित होने में बड़ा फैक्टर हैं. इस मामले में भारत और अमेरिका में दस गुणा अंतर है. भारत में जहां 10 लाख की आबादी पर 13.05 जज हैं वहीं अमेरिका ये संख्या 130 है. ब्रिटेन में दस लाख की आबादी पर 100 जज तो कनाडा में 75 और ऑस्ट्रेलिया में 58 है.

इस मामले में याचिकाकर्ता की सबसे बड़ी दलील है, "त्वरित न्याय का अधिकार भी मूल भूत अधिकार है जो संविधान के आर्टिकल 21 के तहत मिला हुआ है."

अब तो ये भी समझने या समझाने की जरूरत नहीं कि ज्यूडिशियरी इमरजेंसी सेवाओं के दायरे से बाहर की चीज है. जब ज्यूडिशियरी में भी इमरजेंसी सिचुएशन पैदा हो सकती है, फिर क्यों न ज्यूडिशियरी को भी कानून व्यवस्था लागू करने वाली पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों की तरह 24x7 सेवाओं में शामिल किया जाना चाहिये.

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लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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