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Updated: 15 दिसम्बर, 2017 06:56 PM
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अभी सिर्फ एग्जिट पोल के नतीजे सामने आये हैं. असली रिजल्ट तो 18 दिसंबर को ही आएगा और उससे पहले राहुल गांधी के बारे में कोई भी राय बनाना ठीक नहीं माना जाएगा. फिर भी चूंकि वो उससे पहले आधिकारिक तौर पर तब तक बतौर अध्यक्ष कार्यभार संभाल चुके होंगे - मुद्दे पर बहस की गुंजाइश तो बनती ही है.

पहले के कयासों के हिसाब से देखें तो इतना तो लग ही रहा है कि कांग्रेस गुजरात में बीजेपी को चुनौती देने की स्थिति में हो गयी है, लेकिन इतना भी नहीं कि बीजेपी को सत्ता से बेदखल कर सके. गुजरात चुनाव के जरिये राहुल गांधी ने कई मामलों में रिहर्सल और कुछ एक्सपेरिमेंट भी किये हैं, साथ ही उनके हाव भाव भी पहले के मुकाबले बिलकुल अलग देखने को मिले. मगर, क्या चुनाव हार जाने की हालत में भी ये सब उतने ही उत्साह के साथ चर्चाओं का हिस्सा बने रहेंगे - कहीं ऐसा तो नहीं ये सब राहुल गांधी के कॅरिअर पर फुल स्टॉप ही लगा देंगे?

1. क्या होगा अगर सोनिया जैसा नेतृत्व नहीं दे पाये राहुल?

गुजरात चुनाव के दरम्यान ही 11 दिसंबर को राहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए निर्विरोध निर्वाचित बताया गया - और अब वो अपना कार्यभार संभालने वाले हैं. राहुल के अध्यक्ष बनने के बाद सोनिया गांधी से उनकी भूमिका के बारे में सवाल पूछा गया तो जवाब मिला - 'मैं रिटायर हो रही हूं.'

सोनिया गांधी सबसे लंबे समय - 19 साल तक कांग्रेस की अध्यक्ष रहीं. सोनिया की अगुवाई में कांग्रेस ने लगातार दो बार लोक सभा चुनाव जीता और सहयोगी दलों के साथ सरकार बनायी. राहुल गांधी के सामने तो पहली चुनौती यहीं से शुरू हो जाती है.

ये सही है कि जिस दौर में राहुल गांधी कांग्रेस की कमान संभाल रहे हैं, उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती पार्टी का जनाधार बढ़ाने की है. मगर, 1998 में जब सोनिया गांधी अध्यक्ष बनीं तो भी चुनौतियों का अंबार लगा था. सोनिया के मुकाबले देखें तो राहुल गांधी चांदी के चम्मच के साथ पैदा ही नहीं हुए, अध्यक्ष का सोने का सिंहासन भी पलक पांवड़े बिछाये अरसे उनका इंतजार करता रहा है. बीच में तो उनके प्रधानमंत्री तक बनने की सुविधाएं कुलांचे भर रही थीं, जब बात बात पर मनमोहन सिंह कुर्सी छोड़ने की बात कर देते रहे.

सोनिया के सामने कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचाने के साथ साथ खुद पर विदेशी मूल का होने की तोहमत के खिलाफ भी कदम कदम पर जूझने का चैलेंज रहा. सोनिया के चुनाव जीतने के बाद भी उनके प्रधानमंत्री बनने को लेकर कड़े विरोध हुए जिसके चलते उन्हें मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने का फैसला लेना पड़ा. सोनिया ने कार्यकाल के दस साल कांग्रेस को सत्ता में तो रखा ही, अगर बाद के तोहमतों के साये में गौर फरमायें तो रिमोट कंट्रोल से उन्होंने सरकार भी चलायी - और बुद्धिमानी से इसके लिए उन्हों एक 'एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर' चुन ही लिया था.

राहुल के सामने कदम कदम पर सोनिया के कदमों पर चलते रहने और कभी न भटकने की चुनौती होगी. कहीं भी कोई कसर दिखी तो सवाल उठेंगे ही - और कसौटी पर खरा भी उतरना होगा, वरना कॅरिअर फुल स्टॉप लगना तय ही समझा जाना चाहिये.

2. अब तो हार की जिम्मेदारी भी अकेले ही लेनी होगी

कांग्रेस नेता कहते रहे हैं कि काफी वक्त से राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष की हैसियत से ही काम करते रहे हैं, लेकिन गुजरात से पहले के सारे चुनावों में राहुल गांधी अपनेआप दूसरे नंबर पहुंच जाते रहे. इन चुनावों में 2014 के आम चुनाव से लेकर इस साल हुए राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति चुनाव भी शामिल हैं. यूपी चुनाव में भी प्रचार जोर पकड़ने पर न सही, लेकिन बनारस पहुंच कर सोनिया गांधी नींव तो पहले ही रख दी थी. इसलिए पार्टी की हार के लिए राहुल गांधी अकेले जिम्मेदार नहीं माने जाते रहे.

rahul gandhiअभी तो ये अंगड़ाई है...

गुजरात (और साथ में हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव भी) चुनाव में तो राहुल गांधी पूरी तरह अकेले ही मैदान में उतरे थे, ये बात अलग है कि सोनिया गांधी ने बेटे के लिए हर तरीके से मजबूत टीम पहली ही बना दी थी. एक ऐसी टीम जिसमें सारा रणनीतिक ताना बाना पर्दे के पीछे सैम पित्रोदा तैयार कर रहे थे तो कदम कदम पर साये की तरह अशोक गहलोत और अहमद पटेल डटे रहते थे. आर्थिक मुद्दों पर जवाब देने के लिए मनमोहन सिंह और पी चिदंबरम आगे आ जाते थे तो कानूनी और पेंचीदगी भरे मसलों के लिए कपिल सिब्बल मोर्चा संभाल लेते रहे. रणदीप सूरजेवाला तो हरदम फील्ड में मौजूद रहे ही. वैसे भी राहुल के विरोधी तो उन्हें पनौती की ही तरह पेश करते रहे हैं - 'जहां भी वो प्रचार करने जाते हैं कांग्रेस चुनाव हार जाती है.'

अब इतने भारी भरकम इंतजामात के बावजूद गुजरात चुनाव में शिकस्त मिली तो सवाल तो उठेंगे ही - और उसके जवाब नहीं मिले तो परफॉर्मेंस के कारण कॅरिअर पर फुल स्टॉप लगना तय ही मान कर चलना चाहिये.

3. फिर तो छवि बदलने की बातें बेमानी ही लगेंगी

गुजरात चुनाव में राहुल गांधी की बदली छवि, बदले बॉडी लैंग्वेज और बदले तमाम तौर तरीकों के अंदाज की जोरदार चर्चा रही. इस दौरान राहुल गांधी जो मुद्दे उठाते उन पर फोकस रहते. राहुल के हर तंज ह्यूमर की भी भरपूर मात्रा होती और विरोधियों के किसी भी हमले पर उन्होंने धैर्य बनाये रखा. राहुल गांधी ने प्रदानमंत्री पद के मर्यादा की बात की तो उस पर आखिर तक कायम भी रहे. जब कांग्रेस का सोशल मीडिया कैंपेन 'विकास गांडो थयो छे' को काउंटर करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा - 'हूं छू गुजरात, हूं छू विकास' तो बड़ी ही शालीनता से राहुल गांधी ने कैंपेन वापस ले लिया. नेताओं को कांग्रेस कार्यकर्ताओं को मोदी पर निजी हमले बिलकुल न करने की साफ तौर पर हिदायत दी. देखा कि एक कार्यकर्ता नहीं समझ रहा तो फटकार भी लगायी, और सलाह दी कि मीठा बोल कर उन्हें हराओ.

rahul gandhiफिर तो ये भी मजाक का कारण बनेगा...

मणिशंकर अय्यर के केस में तो राहुल गांधी ने नजीर ही पेश की. मणिशंकर से माफी मंगवाने और उन्हें सस्पेंड करने के साथ ही स्पष्ट संकेत देने की कोशिश की की उनके नेतृत्व में कांग्रेस की कार्यप्रणाली कैसी होगी.

जाहिर है राहुल की छवि जरूर बदली, लेकिन उसका फायदा तभी होता है जब वो चुनाव भी जीतें. वरना, कमीज के आस्तीन चढ़ाने और प्रधानमंत्री पद की मर्यादा ढोने की बातें ढकोसले से ज्यादा नहीं लगेंगी. ऐसे में राहुल के कॅरिअर का क्या हाल हो सकता है, अंदाजा ही लगाया जा सकता है.

4. सही नेतृत्व का मतलब हार नहीं, सिर्फ और सिर्फ जीत होती है

ऐसे में जबकि राहुल गांधी आधिकारिक तौर पर कमान संभाल चुके होंगे, कार्यकर्ताओं पर दो तरह के दबाव हो सकते हैं - एक गांधी खानदान का होने के नाते और दूसरा अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठे होने के चलते, फिर भी नेतृत्व की काबिलियत तब तक नहीं साबित होगी जब तक की उनके खाते में जीत न दर्ज हो. चुनावों में जीत-हार को एक जैसा समझने वाले नेता नहीं सिर्फ आंदोलनकारी होते हैं - नेता की पहचान सिर्फ जीत से होती है. मोदी-शाह की जोड़ी इस बात की सबसे बड़ी मिसाल है.

rahul gandhiजीत और सिर्फ जीत...

जब तक राहुल गांधी की काबिलियत एक जिताऊ नेता के रूप में सामने नहीं आएगी कार्यकर्ताओं पर दबाव नहीं पड़ेगा, लिहाजा पार्टी में गुटबाजी बढ़ेगी. ऐसा होने पर हर मामले में सोनिया की मिसाल दी जाएगी और उनके फैसलों से तुलना होगी. राहुल के विरोधी या तो फिर से सोनिया के दरबार में हाजिरी लगाने लगेंगे या फिर प्रियंका के नाम पर गदर मचाएंगे. राहुल गांधी के कॅरिअर के लिए ये बड़ी मुश्किल हो सकती है - और कोई कामा नहीं बल्कि फुल स्टॉप लगाने की कोशिश होती रहेगी.

5. मोदी के मुकाबले विकल्प के तौर पर पेश करने की चुनौती होगी

जब कांग्रेस के अंदर राहुल की पूछ नहीं रहेगी तो, सोचने वाली बात है - बाहर क्या हाल होगा? फिर क्यों ममता बनर्जी, मायावती और अखिलेश यादव जैसे नेता राहुल गांधी को मोदी के मुकाबले खड़े करने की बात पर तैयार होंगे. ऐसे में लालू और पवार जैसों की आवाजें भी बेदम ही साबित हो जाएंगी.

ये सब नहीं हो पाया तो राहुल गांधी कैसे मोदी के मुकाबले मैदान में खड़े होकर चुनौती दे पाएंगे? और अगर ये सब नहीं हो पाया तो क्या राहुल गांधी का कॅरिअर एक कदम भी आगे बढ़ पाएगा?

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