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Updated: 18 अगस्त, 2019 05:25 PM
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हरियाणा कांग्रेस के नेता भूपिंदर सिंह हुड्डा बगावत पर उतर आये हैं. हुड्डा कांग्रेस नेतृत्व को अभी वैसे ही ताकत का एहसास करा रहे हैं जैसे कभी कैप्टन अमरिंदर सिंह धमकाया और आखिरकार अपने मिशन में कामयाब रहे. दोनों नेताओं और उनके तौर तरीके में कई बातें कॉमन हैं - लेकिन राजनीतिक फैसले के हिसाब से हालात अलग अलग नजर आते हैं.

पंजाब विधानसभा चुनाव से पहले कैप्टन अमरिंदर भी राहुल गांधी से नाराज हुआ करते थे, भूपिंदर सिंह हुड्डा के साथ भी वही हालत है. जो काम कैप्टन अमरिंदर सिंह ने विधानसभा चुनावों से पहले कांग्रेस नेतृत्व पर दबाव डाल कर हासिल किया था - भूपिंदर सिंह हुड्डा भी वही रास्ता अख्तियार कर रहे हैं.

हुड्डा और और कैप्टन के बागी रूख अपनाने में फर्क भी कई सारे हैं. हुड्डा की नाराजगी 23 मई तक कांग्रेस अध्यक्ष रहे राहुल गांधी से है, लेकिन वो बगावत के रास्ते पर आगे तब बढ़ रहे हैं जब सोनिया गांधी फिर से कांग्रेस की कमान संभाल चुकी हैं - साथ ही, हरियाणा के मौजूदा हालात भी पंजाब में चुनाव के हालात से मेल खाना तो दूर बिलकुल अलग अलग हैं.

कांग्रेस नेतृत्व के खिलाफ हुड्डा की बगावत

कांग्रेस में नेतृत्व बदल चुका है. बतौर अंतरिम कांग्रेस अध्यक्ष ही सही, सोनिया गांधी ने फिर से मोर्चा संभाल लिया है. ऐसे में संगठन में कई फेरबदल के भी संकेत मिले हैं - भूपिंदर सिंह हुड्डा ने इसी दौरान बगावत शुरू कर दी है. वैसे तो हरियाणा में हुड्डा कोई नया काम नहीं करने जा रहे, बल्कि पुराने नेताओं की तरह अपने बूते खड़े होने की कोशिश कर रहे हैं. हुड्डा का तरीका पंजाब के कैप्टन अमरिंदर से मिलता जुलता जरूर है, लेकिन हरियाणा के तीन पूर्व मुख्यमंत्री ऐसा कर चुके हैं और अपने दौर में राजनीतिक ताकत का एहसास भी करा चुके हैं - भजन लाल, चौधरी देवी लाल और बंसी लाल.

ये भी एक संयोग ही है कि हुड्डा की 'परिवर्तन रैली' रोहतक में हो रही है - 20 साल पहले रोहतक से ही सोनिया गांधी ने स्टार चुनाव प्रचारक के तौर पर राजनीति की शुरुआत की थी - और अब हुड्डा भी उसी धरती से सोनिया गांधी के खिलाफ बगावती तेवर का इजहार कर रहे हैं.

ये सोनिया गांधी ही हैं जिन्होंने भूपिंदर सिंह हुड्डा को 2005 से 2014 तक हरियाणा का मुख्यमंत्री बनाये रखा - और वो भी दूसरे नेताओं पर तरजीह देते हुए. 2014 की हार सोनिया की ही तरह हुड्डा के लिए भी बहुत भारी पड़ी. जब राहुल गांधी एक्टिव हुए तो अपने पसंदीदा अशोक तंवर को हरियाणा कांग्रेस की कमान सौंप दिये. हुड्डा ये पद अपने बेटे दीपेंद्र हुड्डा के लिए चाहते थे. सिर्फ यही नहीं राहुल गांधी ने रणदीप सुरजेवाला की पीठ पर हाथ रख दिया - नतीजा ये हुआ कि हुड्डा परिवार को मुख्यधारा की राजनीति में बने रहने के लिए लगातार संघर्ष करना पड़ा.

huda turns rebel in haryanaहुड्डा प्रेशर पॉलिटिक्स में कहां तक कामयाब होंगे?

हरियाणा की ये कहानी भी बिलकुल वैसी है ही जैसे पंजाब विधानसभा चुनाव में लगातार दो बार की हार के बाद राहुल गांधी ने राज्य कांग्रेस की कमान कैप्टन अमरिंदर के कट्टर विरोधी नेता को सौंप दिया. प्रताप सिंह बाजवा और कैप्टन अमरिंदर की लड़ाई तो अब भी चल रही है - और कई मुद्दों पर दोनों फिलहाल एक दूसरे के आमने सामने हो गये हैं, लेकिन कैप्टन ने वक्त रहते ही अपनी बात मनवा ली. जैसे ही कांग्रेस नेतृत्व को भनक लगी कि कैप्टन अमरिंदर पंजाब में कांग्रेस को तोड़ कर अपनी अलग पार्टी बना सकते हैं, बाजवा को हटाकर कर कमान कैप्टन को दे दी गयी.

लगता है हुड्डा भी कांग्रेस नेतृत्व पर फिलहाल वैसा ही दबाव बनाने की कोशिश कर रहे हैं.

हुड्डा की परिवर्तन रैली से पहले से ही वैसी ही चर्चाएं चल पड़ीं जैसे कैप्टन के संभावित राजनीतिक कदम को लेकर किस्से शुरू हो गये थे. हुड्डा के मामले में तो पार्टी का नाम भी बताया जाने लगा - स्वाभिमान कांग्रेस या स्वराज कांग्रेस.

हरियाणा में कांग्रेस के प्रभारी महासचिव गुलाम नबी आजाद ने भरसक समझाने की कोशिश की है - लेकिन उसका कोई असर हुआ हो ऐसा नहीं लगता. अगर नयी पार्टी नहीं तो हुड्डा के शरद पवार की पार्टी कांग्रेस में जाने की भी चर्चा है. हरियाणा से आने वाले बीजेपी नेता चौधरी बिरेंद्र सिंह ने तो भगवा धारण करने का भी न्योता दे दिया है.

हुड्डा का आइडिया नहीं, वक्त का चयन गलत है

सवाल ये है कि अगर भूपिंदर सिंह हुड्डा भी हरियाणा के वैसे ही कद्दावर नेता हैं जैसे पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह तो उनके असफलता की संभावना क्यों है?

ऐसा होने की वजह दोनों मामलों में अलग अलग राजनीतिक हालात का होना है - और हुड्डा फिलहाल वे फायदे उठाने की स्थिति में नहीं हैं जिन हालात में कैप्टन चुनाव भी जीते और मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज भी हो गये.

ये कहना ज्यादा सही होगा कि हुड्डा का आइडिया नहीं वक्त का चयन गलत है. पंजाब की बात और थी, हरियाणा में हालात बीजेपी के पक्ष में हैं और कांग्रेस बार बार शिकस्त झेल रही है.

कांग्रेस के ले देकर कर जींद विधानसभा उपचुनाव से बहुत बड़ी उम्मीद थी. राहुल गांधी ने अपने सबसे करीबी रणदीप सुरजेवाला को मैदान में उतारा, लेकिन हार का ही मुहं देखना पड़ा. राहुल गांधी ने सुरजेवाला पर यूं ही दांव नहीं खेला था. अगर सुरजेवाला चुनाव जीत गये होते तो शायद अब तक हरियाणा में कांग्रेस के मुख्यमंत्री का चेहरा भी सामने आ चुका होता और वो भूपिंदर हुड्डा तो बिलकुल नहीं होते.

जींद उपचुनाव में भी बीजेपी ने कांग्रेस को उसी दांव से चित्त किया जिसके तहत रणनीतिक सोच के साथ मनोहर लाल खट्टर को मुख्यमंत्री बनाया है - गैर जाट नेता को कमान देकर. जींद उपचुनाव में बीजेपी के कृष्णा मिड्ढा जीते और सुरजेवाला तीसरे स्थान पर रहे.

1. अकेले पड़े हुड्डा : हरियाणा विधानसभा में कांग्रेस के 16 सदस्य हैं. 12 विधायकों समर्थन हुड्डा को हासिल बताया जा रहा है, फिर भी हुड्डा परिवार एक छोर पर अकेले खड़ा है. हरियाणा में कांग्रेस विधायक दल की नेता किरन चौधरी का समर्थन अशोक तंवर के साथ है जो PCC अध्यक्ष हैं. कांग्रेस नेताओं का एक तबका रणदीप सुरजेवाला के सपोर्ट में खड़ा माना जाता है.

2. हालात अनुकूल नहीं : पंजाब में अकाली दल और बीजेपी गठबंधन सरकार के खिलाफ जबरदस्त सत्ता विरोधी लहर रही. बीजेपी नेतृत्व ने तो वैसे भी चुनाव प्रचार के नाम पर रस्म अदायगी ही की. सत्ता विरोधी लहर का कैप्टन अमरिंदर ने पूरा फायदा उठाया.

3. आप फैक्टर का क्या : पंजाब में कैप्टन अमरिंदर के का बड़े मददगार अरविंद केजरीवाल भी साबित हुए. आप ने पंजाब विधानसभा चुनाव में वैसा ही प्रदर्शन किया जैसे 2013 में दिल्ली में. सत्ताधारी गठबंधन के खिलाफ लहर बना दिया, लेकिन उसे अपने पक्ष में नहीं ला पाए. दरअसल, पंजाब में अरविंद केजरीवाल को बाहरी के तौर पर प्रचारित कर दिया गया. केजरीवाल ने हरियाणा में भी चुनाव लड़ने की घोषणा की है - और मुमकिन है, आप पंजाब से बेहतर प्रदर्शन करे.

आप के प्रदर्शन से बीजेपी को भले ही थोड़ा बहुत घाटा हो, लेकिन कांग्रेस को कोई फायदा मिल पाएगा ऐसा तो नहीं लगता.

4. पीके का भी रोल : पंजाब में कैप्टन की छवि तो अच्छी है ही, अपना आखिरी चुनाव बोल कर उन्होंने इमोशनल कार्ड खेल दिया. कैप्टन की चुनावी मुहिम को गाइड कर रहे प्रशांत किशोर ने हर बात का पूरा फायदा उठाया और दोनों कामयाब रहे.

हुड्डा की छवि भी कैप्टन जैसी तो नहीं ही है, साथ ही बीजेपी ने जो गैर जाट नेता का प्रयोग आगे बढ़ा दिया है, विरोधियों के लिए मुश्किल खड़ी हो गयी है. जहां तक पीके की सेवाओं का सवाल है तो वो भी हुड्डा को मिलने से रहा क्योंकि वो पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की पार्टी TMC के साथ कॉन्ट्रैक्ट कर चुके हैं.

5. जो मिजाज और मूड है : जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाने के बाद बीजेपी के पक्ष में माहौल वैसा ही हो चुका है जैसा आम चुनाव से पहले बालाकोट एयर स्ट्राइक के बाद हुआ था.

खास बात ये है कि भूपिंदर सिंह हुड्डा ने कांग्रेस में बगावत भी धारा 370 पर कांग्रेस के स्टैंड से नाराज होकर उठाया है. धारा 370 पर तो कांग्रेस पहले से ही दो गुटों में बंटी हुई है - हुड्डा दो कदम आगे बढ़ कर परिवर्तन रैली करने लगे हैं. रोहतक की 'परिवर्तन रैली' में दीपेंद्र हुड्डा ने तो साफ तौर पर कह भी दिया कि धारा 370 हटाने का वक्त आ गया था. मतलब साफ है, सोनिया गांधी को ये साफ साफ चेतावनी है. हालांकि, ये दबाव बनाने वाली राजनीति का भी हिस्सा लगता है जिसमें हुड्डा कांग्रेस नेतृत्व को मजबूर कर इस बात के लिए राजी करना चाहते हों कि आलाकमान उनके नेतृत्व में विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए तैयार हो जाये.

वैसे हुड्डा को मालूम होना चाहिये कि बीजेपी हरियाणा में भी मनोहर लाल खट्टर के नाम पर नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अब तो गृह मंत्री अमित शाह के नाम पर भी बीजेपी वोट मांगने जा रही है. जब आम चुनाव में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी मोदी लहर के आगे नहीं टिक पाये तो अभी क्या उम्मीद की जा सकती है? चुनावी मुद्दा तो एक बार फिर पाकिस्तान, जम्मू-कश्मीर और राष्ट्रवाद ही है - भला कैसे टिकेंगे हुड्डा परिवार और उनकी कांग्रेस पार्टी?

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