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Updated: 03 दिसम्बर, 2021 12:57 PM
श्रीधर भारद्वाज
श्रीधर भारद्वाज
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जब युवा सरकारी नौकरी की मांग लेकर सड़क पर बैठ जाएं तो क्या होगा? सभी लोग एक तय उम्र तक सैलरी और फिर उसके बाद पेंशन की गारंटी देने की मांग करें तो क्या होगा? हर तरह के सामान का उत्पादन करने वाले अपना उत्पाद न बिकने पर सरकार से उसे खरीदने की गारंटी मांगे तो क्या होगा? ये सवाल मेरे मन में एमएसपी की मांग को लेकर चल रहे किसान आंदोलन को लेकर उठ रहे हैं. दरअसल, मोदी सरकार ने किसान आंदोलन की वजह से तीन कृषि कानूनों को वापस ले लिया है. इसे आंदोलकारी किसानों की जीत बताई जा रही है. और अब वे न्यूनतम समर्थन मूल्य (एएमएसपी) पर कानून बनाने के मुद्दे को जोर-शोर उठा रहे हैं. ऐसे में आइए समझते हैं कि ये एमएसपी का चक्कर क्या है? बहस इस बात को लेकर हो रही है कि मौजूदा समय में एमएसपी कानून लाना संभव भी है या नहीं? क्या सरकार की जेब इतनी बड़ी है कि वो इतना बड़ा फैसला ले सके? क्या एमएसपी कानून लाने से सच में किसानों का भला होगा और उनकी स्थिति सुधरेगी? अगर नहीं तो ऐसा क्या किया जाना चाहिए जिससे किसानों की स्थिति में बड़ा बदलाव आए? इन मुद्दों को लेकर हमने अनिल घनवट से भी बात की है. वे सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित उस कमेटी के सदस्य थे, जिसे नए कृषि कानूनों की समीक्षा करनी थी.

MSP कानून कैसे लागू होगा? किसान और सरकार की ये सच्चाई जानकर आप माथा पीट लेंगेकिसानों द्वारा कृषि बिल पर विरोध की एक बड़ी वजह एमएसपी को भी माना जा रहा है

सबसे पहले तो समझिए कि ये एमएसपी नीति है क्या?

एमएसपी यानी मिनिमम सपोर्ट प्राइस. हिंदी में न्यूनतम सर्मथन मूल्य. सरकार की तरफ से 23 फसलों की एक लिस्ट बनाई गई है. इन फसलों की खरीद के लिए सरकार एक न्यूनतम कीमत तय करती है. मसलन साधारण धान के लिए सरकार ने वर्ष 2020-21 के लिए 1940 रुपए प्रति क्विंटल की एमएसपी तय की है. अब किसान चाहे तो इस कीमत पर सरकार को अपनी फसल को बेच सकते हैं.

तकनीकी तौर पर एमएसपी फसल की लागत से ऊपर 50 फीसदी रिटर्न के तौर पर होनी चाहिए. किसान को यदि बाजार में एमएसपी से ज्यादा कीमत मिल रही होती है, तो उन्हें ये आजादी भी है कि वे अपना अनाज कहीं और बेच सकते हैं.

अनिल घनवट ने डबरा मंडी का उदाहरण दिया. आपको बता दें कि डबरा, मध्य प्रदेश के ग्वालियर जिले में हैं. और ये मध्य प्रदेश की सबसे बड़ी मंडी है. अनिल ने बताया कि वे डबरा मंडी से गुजर रहे थे. तभी उन्होंने वहां जबरदस्त भीड़ देखी. वहां धान बिक रहा था. किसानों से पता चला कि धान के लिए उन्हें 3200 से 3400 रुपए प्रति क्विंटल की कीमत मिल रही है.

जो कि एमएसपी से काफी ऊपर है. इसलिए वो अपनी फसल यहां लाए हैं. हालांकि कई जगहों पर एमएसपी पर भी फसल नहीं बिकती है. दैनिक जागरण की एक रिपोर्ट के मुताबिक धान का समर्थन मूल्य 1940 रुपए है. लेकिन बिहार की राजधानी पटना के बाजारों में धान की कीमत 1200-1400 रुपए प्रति क्विंटल है.

यहां किसान अपनी उपज एमएसपी से काफी कम कीमत पर बेचते हैं. कारण ये है कि एमएसपी पर फसल बेचने के लिए रजिस्ट्रेशन करवाने में किसानों को दिक्कत होती है. और इसी का फायदा बिचौलिए उठाते हैं. वे कम कीमत पर किसानों से फसल खरीद लेते हैं. और फिर बड़े किसान बनकर एमएसपी पर सरकार को फसल बेच देते हैं.

एमएसपी कानून लाना संभव है या नहीं?

एमएसपी का कानून बन जाने से सरकार किसानों की फसल खरीदने के लिए बाध्य हो जाएगी. अभी तक वो इस दबाव से मुक्त है क्योंकि एमएसपी सिर्फ एक नीति है कानून नहीं. अगर कानून आने के बाद भी किसानों को उनकी फसलों की कीमत नहीं मिलती है तो वो कोर्ट जा सकते हैं. ऐसे में एमएसपी उनका हक होगा और सरकार को उसे मानना ही होगा.

व्यापारी भी इस बात के लिए बाध्य हो जाएंगे कि अगर वो किसानों की फसल खरीदते हैं, तो कम से कम उन्हें एमएसपी तो देनी ही होगी. यहां तक तो सारा मामला दुरुस्त लग रहा है और किसान संगठनों की मांग भी.

लेकिन, इस मामले की पेंचीदगी से वाकिफ अनिल घनवट कहते हैं कि अगर ये कानून लाया गया तो देश दिवालिया हो जाएगा.

सवाल उठता है कि वो कैसे? आइए, समझते हैं-

अनिल घनवट ने बताया कि एमएसपी कानून आने के बाद व्यापारी एमएसपी पर फसल खरीदने के लिए बाध्य हो जाएंगे. लेकिन तब क्या होगा जब मांग से ज्यादा कोई फसल बाजार में आ जाएगी? व्यापारियों को यदि अपना फायदा नहीं दिखेगा तो वो फसल नहीं खरीदेंगे. ऐसे में सारी फसल सरकार को ही खरीदनी पडे़गी. इसके लिए सरकार को पैसा चाहिए.

साथ ही उस खरीदी गई फसल को स्टोर करने के लिए अच्छे इंतजाम की जरूरत होगी. जो कि फिलहाल हमारे पास है नहीं. तो सरकार इन फसलों को रखेगी कहां? वो बेचेगी कहां? सरकार उसका क्या करेगी? हमने सरकारी खरीद वाला गेहूं मंडियों में सड़ते हुए देखा है. पैसा तो अंतत: टैक्सपेयर्स का ही जाएगा.

खास बात ये भी है कि ये मांग सिर्फ चावल या गेंहू के लिए नहीं है. किसान अपनी हर फसल के लिए एमएसपी मांग रहे हैं. चाहे वो टमाटर हो, आलू हो या कोई और फसल हो. सब्जी उगाने वाले भी. किसानों की नजर से देखें तो उनकी मांग जायज भी है.

अन्नदाता तो यही चाहेगा कि उसकी उपज की उचित खरीद की उसे गारंटी मिले. लेकिन, सरकार की नजर से देखें तो ऐसा कर पाना अव्यावहारिक है. या कम से कम पेंचीदा तो है ही. फिर देश दिवालिया होगा नहीं तो और क्या होगा?

अनिल घनवट ने कहा कि सरकार ने खेती के ऊपर जो पाबंदियां लगाई हुई है. अगर उसको हटा देती है तो फिर वो एमएसपी का कानून बना सकती है.

क्या एमएसपी कानून लाने से सच में किसानों की स्थिति सुधरेगी?

एमएसपी कानून बस ला देने से किसानों की स्थिति में सुधार की गुंजाइश बहुत कम है. जैसा मैंने पहले बताया कि तकनीकी तौर पर एमएसपी कुल फसल की लागत के बाद 50 फीसदी रिटर्न के तौर पर होनी चाहिए. लेकिन असलियत में ऐसा नहीं है. अनिल घनवट कहते हैं कि सरकार चाहे कुछ भी कहे कि हम लागत से 50 फीसदी और दे रहे हैं लेकिन वो तो हमारे उत्पादन की लागत से भी कम होती है.

बिचौलिए भी एक बड़ी समस्या हैं. बिहार की बात तो मैंने आपको पहले बताया ही. ऐसे में किसानों को एमएसपी से खास फायदा हो पाएगा.

किसानों की स्थिति में सुधार के लिए क्या करना चाहिए?

अनिल घनवट बताते हैं कि सरकार की पाबंदियों की वजह से किसानों को नुकसान हो रहा है. सरकार मनचाहे ढंग से स्टॉक लिमिट लगा देती है, एक्सपोर्ट बैन कर देती है, बाहर से फसल महंगे में खरीदकर देश में सस्ता बेचती है, इंटर स्टेट ट्रेड बैन कर देती है. काफी तरह की पाबंदियां है. कृषि क्षेत्र में ईज ऑफ डूइंग बिजनेस नहीं है.

एक सरकारी तलवार लटकती रहती है किसानों के ऊपर, व्यापारियों के ऊपर, सभी के ऊपर. मान लीजिए किसी ने हजार टन की क्षमता का एक गोदाम बना लिया. और कल को सरकार कहती है कि गोदाम में 10 टन से ज्यादा फसल नहीं रखना है. फिर क्या होगा? अगर सरकार के पास इस तरह की पाबंदिया लगाने की ताकत होगी तो कोई भी इस क्षेत्र में निवेश नहीं करेगा. एक्सपोर्ट में अनिश्चिताओं के कारण कृषि क्षेत्र में सुधार संभव नहीं है.

अनिल घनवट ने कहा कि सरकार को एक रुपया भी खर्च करने की जरूरत नहीं है. बस किसानों को तकनीक की आजादी और मार्केट की आजादी देने की जरूरत है. जिस दिन प्रधानमंत्री ये ऐलान कर देंगे कि कम से कम अगले 25 साल तक कोई पाबंदियां नहीं लगाएंगे. तो शेयर बाजार में जबरदस्त उछाल आएगा. बड़ी-बड़ी कंपनियां इस क्षेत्र में निवेश के लिए आ जाएगी.

अनिल घनवट ने कपास का उदाहरण भी दिया. उन्होंने बताया कि जब तक बीटी कॉटन (BT Cotton) को मान्यता नहीं मिली थी, तब तक हम कॉटन इंपोर्ट करते थे. लेकिन जैसे ही हमें परमीशन मिली.

हम 2 साल में एक्सपोर्टर बन गए. और अब हम कॉटन के सबसे बड़े उत्पादक हैं. और दुनिया के दूसरे सबसे बड़े एक्सपोर्ट भी. इसलिए किसानों की स्थिति सुधारनी है तो उन्हें ग्लोबल बनाने की जरूरत है. खेती करने के तौर तरीकों से लेकर अपनी फसल बेचने के लिए मार्केट देने तक.

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