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Updated: 25 दिसम्बर, 2017 05:07 PM
सत्यम सिंह
सत्यम सिंह
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वर्तमान समय में यदि हम विश्व पटल पर अपनी नजर फेरते हैं, तो यह देखने में आता है कि आज विश्व में ऐसे बहुत ही कम देश हैं जो मार्क्स और उनके द्वारा दिए गए सिद्धांतों अर्थात् मार्क्सवाद या साम्यवाद की राह पर चलते हुए प्रतीत होते हैं. क्यूबा, अर्जेंटीना और पोलैंड सरीखे कुछ देश ही इस कतार में खड़े दिखाई दे सकते हैं. मार्क्सवाद 20वीं शताब्दी में दुनिया के बड़े हिस्से को प्रभावित करने वाली विचारधारा रही है. एक समय तक मार्क्सवादी क्रांति के अगुआ रहे देश रूस और चीन की भी इस मसले पर स्थिति कुछ खास अच्छी नहीं है, जबसे 1991 में सोवियत संघ का विघटन हुआ और चीन धीरे-धीरे पूंजीवादी तानाशाही के रूप में तब्दील होता गया. आखिर ऐसे क्या कारण रहे जो मार्क्सवाद की इस स्थिति के लिए उत्तरदायी रहे और क्या मार्क्स और उनके द्वारा दिए गए विचार आज की 21वीं सदी में अप्रासंगिक हो गए हैं या अब भी उनमें यह क्षमता है जिसके दम पर वह आज के विश्व को भी आगे लेकर जा सकते हैं.

मार्क्सवाद, भारत, विचारधारा, चीन   वर्तमान में कम ही लोग हैं जो वाम की सही विचारधारा का पालन कर रहे हैं

प्रारंभ करते हैं मार्क्सवाद के उद्भव से. 16वीं सदी में प्रारंभ हुए औद्योगिकीकरण की रफ्तार 19वीं सदी तक आते-आते अत्यधिक तीव्र हो चुकी थी. परंपरागत शिल्पकारों पर मशीनीकरण की मार तथा उनके संरक्षण के लिए सरकार की ओर से कोई योजना ना होने के कारण उस समय की महाशक्ति ब्रिटेन सहित सभी यूरोपीय देशों में बेरोजगारी का संकट बढ़ा था. शहरों की अपेक्षा गांवों की स्थिति और भी खराब थी. कारखानों में बने अपेक्षाकृत सस्ते माल की वजह से स्थानीय उद्योग-धंधे पूरी तरह से चौपट होते जा रहे थे. अत्यधिक गरीबी के कारण माता-पिता अपने बच्चों को उन अत्यधिक खराब परिस्थितियों में भी काम करने के लिए भेज देते थे.

जहां सामान्य परिस्थितियों में काम करने की उनकी हिम्मत जवाब दे जाती थी. बाकी मजदूरों, कामगारों यहां तक कि साधारण नौकरीपेशा लोगों की हालत भी कोई संतोषजनक नहीं थी. उन पर काम का अत्यधिक बोझ रहता था जिसके कारण वह हमेशा तनाव में भी रहते थे और इसका नकारात्मक प्रभाव उनकी कार्य क्षमता पर भी पड़ता था. वहां की सरकारें और उनका प्रशासन भी बड़े-बड़े पूंजीपतियों के दवाब रहता था. पूंजी का आसमान वितरण, बढ़ती बेरोजगारी और घोर औद्योगिकीकरण की वजह से शहरों में पर्यावरण संबंधी बढ़ती समस्याएं आदि ऐसे अनेक कारण थे जिन्होंने विचारकों के बड़े वर्ग को उद्वेलित किया.

पूंजीवादी शोषण से उबरने के लिए विद्वानों के अलग-अलग सुझाव थे. विचारकों का एक दल सहकारिता के माध्यम से पूंजीवादी उत्पीड़न से उबरने का सपना देख रहा था. इस वर्ग में विलियिम किंग, राबर्ट ओवेन फ्यूरियर जैसे विचारक थे. इस वर्ग के दूसरे धड़े के विचारक मानते थे कि पूंजीवाद से मुक्ति के लिए पूंजीपतियों को कमजोर करना जरूरी है. यह केवल संगठित ताकत के बल पर संभव है. इसके लिए हिंसा का सहारा लेने में भी उन्हें संकोच नहीं था.

मार्क्सवाद, भारत, विचारधारा, चीन   हमें वजह तलाशनी होगी कि मार्क्सवाद की ये स्थिति क्यों हुई

प्रूधों, मार्क्स, ब्लेंक, बकुनाइन, ऐंगल्स आदि विद्वान पूंजीवाद के उग्र विरोधियों में आते थे. मार्क्स के अपने सिद्धांत देने से पहले हीगेल ने द्वंद्ववाद का सिद्धांत प्रस्तुत कर दिया था और विचारक उनके सिद्धांतो की भलीभांति व्याख्या करने में लगे हुए थे. लगभग उसी समय मार्क्स ने द्वंद्ववाद की भौतिकवादी व्याख्या प्रस्तुत की. मार्क्स ने अपना सिद्धांत मूल रूप से एडम स्मिथ के उस सिद्धांत के विरोध में दिया था जिसमें उसने कहा था कि "औद्योगिक समृद्धि द्वारा गरीबी से लड़ा जा सकता है. सरकार को चाहिए कि उत्पादन और विपणन से जुड़े मामले पूंजीपतियों और उद्यमियों के हवाले कर दे, ताकि वे परिस्थितियों के अनुकूल निर्णय लेने में सक्षम हों. एडम स्मिथ द्वारा दिया गया यह सिद्धांत पूंजीवाद का आधार भी बना.

मार्क्स का यह मानना था कि स्वार्थी पूंजीपतियों को नैतिक जीवन के लिए प्रेरित करना आसान नहीं है. इन पूंजीपतियों के शोषण से मुक्ति पाने का एकमात्र तरीका यह है कि दुनिया के सारे श्रमिकों, मजदूरों और कामगारों को सशक्त होकर संघर्ष करना होगा और क्रांति का बिगुल फूंकना होगा और तभी उन्होंने "दुनिया के सारे मजदूर एक हों" का नारा भी दिया. मार्क्स और उनके विचारों का प्रभाव धर्म, दर्शन और अर्थव्यवस्था सभी क्षेत्रों पर पड़ता दिखाई देता है. परंतु मार्क्स मूल रूप से अर्थशास्त्री कहे जा सकते हैं. उनकी ख्याति एक दार्शनिक के रूप में भी रही है. हालांकि उनका दर्शन के क्षेत्र में विशेष योगदान बहुत कम है. धर्म को लेकर उनकी आलोचना फायरबाख और बायर से प्रभावित है.

मार्क्सवाद, भारत, विचारधारा, चीन   बड़ा सवाल ये भी है कि क्या भारतीय परिपेक्ष में मार्क्सवाद संभव है

द्वंद्ववाद पर हीगेल उनसे पहले ही गंभीर चिंतन कर चुके थे. निष्कर्षतः मार्क्स को अर्थशास्त्री ही कहा जा सकता है जिन्होंने एडम स्मिथ के बाद एक ऐसा विचार प्रस्तुत किया जिसका प्रभाव सम्पूर्ण विश्व पर पड़ा. मार्क्स ने खुली अर्थव्यवस्था की आलोचना करते हुए कहा कि औद्योगिक उदारता श्रमशोषण के दम पर ही संभव है. इसके फलस्वरूप श्रमिक वर्ग का शोषण और वर्गों के मध्य ( पूंजीपति और श्रमिक वर्ग ) अंतर का बढ़ना तय ही है.

साम्यवाद के स्वप्न का सबसे बड़ा पक्ष है बराबरी पर आधारित सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक व्यवस्था की स्थापना. आज अपने प्रचंड प्रभाव के बावजूद पूंजीवाद जो एक चीज कभी नहीं दे सकता वह है समानता. इसके विकास के मूल में ही गैर बराबरी की अवधारणा अंतर्निहित है. लाभ की लगातार वृद्धि के उद्देश्य से संचालित इसका कार्य व्यापार मुनाफे की एक ऐसी हवस को जन्म देता है जो एक तरफ नए-नए और उन्नत उत्पादों की भीड़ लगाता जाता है तो दूसरी तरफ उन्हें खरीदने की ताकत को लगातार कुछ हाथों में सीमित कर बाकी बहुसंख्या को उत्तरोत्तर वंचितों के खांचे में डालता चला जाता है. दुनिया के पैमाने पर अमीर-गरीब देश बनते जाते हैं, देशों के पैमाने पर अमीर-गरीब लोग. सत्ता इन्हीं प्रभावशाली वर्गों के व्यापारिक और सामाजिक हितों की रक्षा का काम करती है.

मार्क्स द्वारा दिए गए इन सिद्धांतों के परिणामस्वरूप सबसे पहले क्रांति रूस में हुई जहां पर श्रमिक, मजदूर और कामगार वर्ग ने एकजुट होकर सत्ता पर काबिज जार निकोलस द्वितीय और सदियों से जारी जारशाही तानाशाही के विरुद्ध क्रांति का बिगुल फूंक दिया और अंततः जार को अपना पद छोड़ने पर मजबूर कर दिया और उसके पश्चात श्रमिक वर्ग ने व्लादिमीर लेनिन के नेतृत्व में सत्ता हासिल की, इस क्रांति को पहली सफल साम्यवादी क्रांति के रूप में देखा जाता है. इसके पश्चात वह दौर भी आया जब पूंजीवाद और साम्यवाद के मध्य संघर्ष की शुरुआत हुई. इस प्रकार सम्पूर्ण विश्व दो गुटों में बंट गया, पहला गुट अमरीका के नेतृत्व में पूंजीवादी देशों का और दूसरा गुट रूस के नेतृत्व में साम्यवादी देशों का.

मार्क्सवाद, भारत, विचारधारा, चीन   कहा जा सकता है कि आज मार्क्सवाद एक गुज़रे जमाने की बात बन रहा है

साम्यवादी रूस जो कि बाद में सोवियत संघ बना, के साथ पूर्वी यूरोप के देश आए और इन देशों में भी एक के बाद एक क्रांतियां हुईं और श्रमिक वर्ग ने सत्ता हासिल की. जिसके पश्चात लैटिन अमरीकी देशों में भी साम्यवाद का प्रभाव पड़ा और चे ग्वेरा के नेतृत्व में वहां पर भी चिली और अर्जेंटीना जैसे देशों में सफल क्रांतियां हुईं. मार्क्सवाद को बड़े पैमाने पर जमीन पर उतारने का दूसरा बड़ा प्रयास चीन में हुआ, जहां पर माओ-त्से-तुंग के नेतृत्व में 1949 ईसवी में क्रांति हुई और चीनी गणराज्य ( रिपब्लिक ऑफ चाइना ) बना. चीन में यह क्रांति पड़ोसी सोवियत रूस की सहायता से हुई और क्रांति के बाद भी आर्थिक और समस्त सहायता उसे प्राप्त हुई.

विश्व मानचित्र पर यदि हम उस समय देखते हैं तो पाते हैं कि सोवियत रूस और चीन विश्व के बहुत बड़े क्षेत्रफल पर और बहुत बड़ी आबादी पर प्रभुत्व रखते थे. ऐसे में यह उम्मीद की जा रही थी कि दोनों देश मिलकर साम्यवाद का प्रसार करेंगे. परंतु ऐसा नहीं हो सका, साठ के दशक में ही सोवियत रूस और चीन के मध्य मतभेद उभरने लगे. इसका कारण दोनों देशों का अलग-अलग राष्ट्रीय हित होना और मार्क्सवाद की अलग-अलग व्याख्याएं थीं. इसके साथ एक प्रमुख कारण यह था कि निकिता ख्रुश्चेव के नेतृत्व में सोवियत संघ पूंजीवाद के साथ "शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व" की नीति अपनाना चाहता था जबकि माओ पूंजीवादी देशों के प्रति युद्धरत रहने पर बल दे रहे थे.

इसके पश्चात ही मार्क्सवाद का विभाजन हो गया और यह दो भागों में बंट गया, पहला लेनिनवादी और दूसरा माओवादी. तो क्या इस प्रकार मार्क्सवाद का अंत हो गया और मार्क्सवाद 21वीं सदी में अप्रासंगिक सा हो गया है ? बाजारवाद के इस दौर में जब पूंजीवाद बेलगाम और अराजक सा हो गया है, मार्क्स के विचार कितनी दूर तक हमारा साथ दे सकते हैं ? पूंजीवाद और इसके समर्थकों ने 20वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ही साम्यवाद का अंत मान लिया था, सोवियत संघ का विघटन उन्हें इस पर मुहर सरीखा लगा. उन्होंने बार-बार कहा था, बल्कि आज भी यही दावा करते हैं कि मार्क्सवाद के दिन लद चुके हैं.

मार्क्सवाद, भारत, विचारधारा, चीन   ये कहना बिल्कुल भी गलत नहीं है कि मार्क्सवाद अपने मूल से हट चुका है

समाजवाद का सपना बीते जमाने की बात हुई. उनके अनुसार यह जानकर भी जो उससे उम्मीद लगाए बैठे हैं, वे स्वप्नदृष्टा, कल्पनाजीवी हैं. दरअसल सोवियत संघ का विघटन और पेरिस कम्यून की असफलता जिन्हें साम्यवाद का अंत लगता है और पूंजीवाद की सर्वकालिक विजय सरीखी लगती है, यह उनकी नादानी ही कही जाएगी. क्यूंकि साम्यवाद नैतिकता और आदर्शवाद से युक्त एक अवस्था है.

दरअसल साम्यवाद के पिछड़ने और उसकी ऐसी स्थिति का बड़ा कारण साम्यवादी खुद भी हैं. जोश में आके उन्होंने क्रांतियां तो कर दीं और सफल भी हुए लेकिन आपसी मेलजोल और सहयोग से ऐसी व्यवस्था बनाने में कामयाब नहीं हो सके जो लंबे समय तक शासन करने में सक्षम हो सके. आज के समय में जब पूंजीवाद लगभग सम्पूर्ण विश्व भर में फैल चुका है और इसके दुष्परिणाम भी औद्योगिक मंदी, बढ़ती बेरोजगारी और श्रमिक वर्ग के शोषण के रुप में सामने आ रहे हैं.

पूंजीवाद के अंतरराष्ट्रीय फैलाव के कारण विभिन्न देशों के आंतरिक और बाह्यः तनावों में भी वृद्धि हुई है. राज्यों के विरोधाभास और भी खुलकर सामने आए हैं. पूंजी का खिंचाव अतिविकसित देशों की ओर बढ़ता ही जा रहा है.  तब आवश्यकता है मार्क्स और उनके विचारों को पुनः परिभाषित करने की, वह भी उसके मूल उद्देश्य से छेड़छाड़ किए बगैर. बेरोजगारी का जिक्र हुआ है तो मार्क्स को एक बार पुनः याद करना पड़ेगा. कम्यूनिस्ट मेनीफेस्टो में उन्होंने कहा था कि बुर्जुआ वर्ग लंबे समय तक सत्ता पर काबिज नहीं रह पाएगा. इसलिए कि वह गरीब और विपन्न वर्गों को अपने दम पर अपने राज्य में सहने की सहूलियत नहीं देता, बल्कि उनके बल पर अपने लिए सुविधाओं का अंबार लगा लेता है.

मार्क्सवाद, भारत, विचारधारा, चीन   आज हमें मार्क्स की बताई बातों पर पुनर्विचार करने की ज़रूरत है

इससे श्रमिक वर्ग के मन में आक्रोश पैदा होता है, जो लगातार बढ़ता जाता है, जो एक दिन बुर्जुआ वर्ग के सत्ता से हटने का कारण बनता है. अंततः आवश्यकता यही है कि मार्क्सवाद के समर्थक और चाहने वाले इसे एक नए संसोधित रुप में सामने लेके आएं और यह काम बिना किसी मतभेद के करना होगा. नहीं तो पूर्व की असफलताओं की भांति एक बार फिर इसमें दरार पड़ जाएगी. दुनिया के सारे मजदूर, श्रमिक और कामगार एक हों और शोषण के विरुद्ध आवाज उठाएं.

मार्क्स और उनके विचार कभी अप्रासंगिक हो ही नहीं सकते, और आज के समय में तो बिल्कुल भी नहीं. पूंजीवाद से एक समय के बाद उकता जाने और इससे उजागर समस्याओं का मुकाबला ना कर पाने के बाद दुनिया एक बार फिर मार्क्स और उनके विचारों के शरण में ही आएगी. उस समय के लिए मार्क्सवाद को पहले से सुनियोजित और संगठित तरीके से तैयार रहना होगा क्यूंकि दुनिया में जब तक कहीं भी शोषण का नामोंनिशान भी है, मार्क्स और उनके विचार अप्रासंगिक नहीं हो सकते.

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लेखक

सत्यम सिंह सत्यम सिंह @100012920896944

लेखक दिल्ली विश्व विद्यालय में राजनीति विज्ञान के छात्र हैं

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