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Updated: 21 अप्रिल, 2016 05:10 PM
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बिहार चुनाव के खत्म होते ही यूपी में भी महागठबंधन की चर्चा शुरू हो गई थी. कभी मुलायम सिंह तो कभी मायावती और कभी अखिलेश यादव के बयानों से इसे हवा मिलती रही तो कभी इसकी हवा निकालती भी रही. जिस तरह मुलायम सिंह कभी बिहार में महागठबंधन को लेकर एक्टिव थे उसी तरह यूपी में नीतीश कुमार सूत्रधार बने हुए हैं.

यूपी में महागठबंधन की इमारत खड़ी करने में नीतीश को कांग्रेस का साथ मिल रहा है तो प्रशांत किशोर की मदद - लेकिन इस पूरी कवायद का रिजल्ट क्या होगा ये अभी किसी को नहीं मालूम. बिहार में महागठबंधन के सामने सैकड़ों चुनौतियां थीं तो यूपी में हजार हैं.

महागठबंधन - 2017

मिशन 2017 के लिए यूपी में भी बिहार जैसे महागठबंधन के आसार साफ नजर आने लगे हैं. इसकी सबसे बड़ी वजह है कि मोदी से नीतीश होते हुए अब कांग्रेस के चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर भी इस मिशन में जुट गये हैं. कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने भी ऐसे प्रस्तावित महागठबंधन को तार्किक बता कर संभावनाओं पर एक तरह से मुहर लगाने की कोशिश की है.

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इकोनॉमिक टाइम्स से एक इंटरव्यू में दिग्विजय कहते हैं, "अगर, जेडीयू और आरएलडी का विलय होता है तो उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के लिए उनकी पार्टी और कांग्रेस का गठजोड़ मुझे तार्किक लगता है."

पहले ही फंसा पेंच

महागठबंधन की निर्माण प्रक्रिया में एक बड़ा इवेंट है अजीत सिंह की पार्टी आरएलडी का जेडीयू के साथ विलय. यूपी में हुए उपचुनाव से पहले इसे लेकर दोनों पक्ष काफी सक्रिय रहे. उपचुनाव में आरएलडी को न तो कोई सीट मिली और न ही फैजाबाद सीट को छोड़ कहीं उसका प्रदर्शन ही संतोषजनक रहा.

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जिस तरह विलय को लेकर लगातार मुलाकातें और बैठकें हो रही थीं, इन दिनों उसमें सुस्ती देखी जाने लगी है. शायद इसकी वजह प्रस्तावित पार्टी का नेता कौन हो इस बात को लेकर टकराव भी है.

चर्चा है कि अजीत सिंह ने विलय को लेकर नीतीश के सामने तीन शर्तें रखी थीं जिन्होंने नीतीश को मुश्किल में डाल दिया है.

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धीरे धीरे रे मना...

खबरों के मुताबिक अजीत सिंह की पहली शर्त ये है कि उन्हें नई पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया जाए. दूसरी शर्त, उनके बेटे जयंत चौधरी को प्रस्तावित पार्टी की यूपी यूनिट की कमान थमाई जाए - और मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाना संभव न हो तो कम से कम डिप्टी सीएम के रूप में तो पेश किया ही जाए. तीसरी शर्त ये है कि खुद अजीत सिंह को जेडीयू के बिहार कोटे से राज्य सभा भेजा जाए. जेडीयू में भी राज्य सभा सीट के कई दावेदार हैं. नीतीश अगर ऐसी कोई शर्त मानते हैं तो किसी न किसी सीट को बलि चढ़ानी होगी.

लोक सभा और यूपी विधानसभा उपचुनावों में हार के बावजूद पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अजीत सिंह के जनाधार को नकारा नहीं जा सकता. विलय के बाद अजीत सिंह की पार्टी का वजूद खत्म हो जाएगा, ऐसे में खुद के साथ साथ समर्थकों को भी उन्हें समझाना होगा कि बदले में क्या मिला.

महागठबंधन की चुनौती

बिहार में महागठबंधन के सामने जितनी चुनौतियां थीं - यूपी में कहीं उससे दस गुणा ज्यादा हैं. बिहार में बड़ी चुनौती के रूप में एनडीए था - और उसके बाद वाम दलों का मोर्चा. कहने को तो मुलायम और मायावती भी मैदान में थे - लेकिन उनका होना न होना बराबर ही था, लेकिन यूपी में इनकी हैसियत बड़ी है.

वेशभूषा, रहन सहन और खान पान को छोड़ दें तो यूपी की राजनीतिक स्थिति बिहार से बिलकुल अलग है. अगर नीतीश बिहार जैसा महागठबंधन खड़ा कर भी लेते हैं तो उन्हें एक साथ कई कद्दावर दावेदारों से रूबरू होना पड़ेगा.सबसे बड़ी चुनौती तो मायावती होंगी - जिन्हें सत्ता में वापसी की पूरी उम्मीद है. वैसे भी पंचायत चुनावों में उन्होंने वोटरों में अपनी पैठ का प्रदर्शन किया ही है. उसके बाद नीतीश वाले महागठबंधन के सामने सत्ताधारी समाजवादी पार्टी होगी - जिससे अब उनका छत्तीस का रिश्ता हो चुका है. इसके साथ ही महागठबंधन के सामने सबसे बड़ी दुश्मन बीजेपी होगी - जो अपने नये नवेले अध्यक्ष केशव मौर्या के साथ मैदान में कड़ी टक्कर देने के लिए हुंकार भर रही है.

बिहार में कांग्रेस महागठबंधन का हिस्सा बन कर ही खुश रही होगी, मगर यूपी में तो महागठबंधन उसे एक हिस्से से ज्यादा मंजूर न होगा. प्रशांत किशोर इस मामले में चाह कर भी कुछ ज्यादा नहीं कर सकते - वैसे भी मोदी और नीतीश कैंपेन के उलट प्रशांत के हाथ बंधे हुए बताए जाते हैं.

यूपी के दर्जन भर क्षेत्रीय दल भी नीतीश के नेतृत्व में आस्था जता चुके हैं. झारखंड की बाबूलाल मरांडी की पार्टी तो नीतीश के साथ पहले ही हो ली है. महागठबंधन खड़ा कर लेने के बाद बी नीतीश लाख चाहकर भी चेहरा तो बन नहीं सकते - क्योंकि नीतीश का ही 'बाहरी' फॉर्मूला यूपी में उन पर भारी पड़ेगा.

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