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Updated: 19 अप्रिल, 2016 10:13 PM
मृगांक शेखर
मृगांक शेखर
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प्रधानमंत्री पद की रेस में नरेंद्र मोदी से पिछड़ने के बाद नीतीश कुमार फिर से जोर लगा रहे हैं. लोक सभा की हार का बदला वो बिहार चुनाव में तो ले ही चुके हैं - अब बाकी हिसाब भी बराबर करना चाहते हैं.

साल 2014 में मोदी का स्लोगन था - 'कांग्रेस मुक्त भारत'. नीतीश ने 2019 के लिए 'संघ मुक्त भारत' का नारा दिया है. पर, बड़ा सवाल यही है कि क्या 2019 में नीतीश ‘नसीबवाला’ बन पाएंगे?

किसी के सामने कुछ मुश्किल तो कइयों के सामने कई मुश्किलें होती हैं - नीतीश के सामने तो मुश्किलों का अंबार लगा हुआ है.

मुश्किल नं. 1

नीतीश के सामने सबसे बड़ी मुश्किल बन कर खड़े हैं उनकी सरकार में साझीदार लालू प्रसाद. चुनाव जीतने के साथ ही लालू ने नीतीश के लिए बिहार और खुद के लिए खुला मैदान चुना था. लालू ने कहा था कि नीतीश के जिम्मे बहुत काम है इसलिए बिहार उनके हवाले करके वो पूरे देश का दौरा करेंगे - मोदी सरकार की पोल खोलने के लिए, शुरुआत वाराणसी करने को कहा था. बाद के दिनों में देखा भी गया कि नीतीश यूपी में रैली तो किये लेकिन वाराणसी को लालू के लिए छोड़े रखा. वाराणसी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र है.

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हाल फिलहाल नीतीश ज्यादा एक्टिव नजर आ रहे हैं. वो चुनाव वाले राज्यों में गठबंधन की कोशिश करते हैं. असम में तो बात नहीं बनी लेकिन यूपी के लिए बड़ी तैयारियां हैं.

लालू को तो ये सब फूटी आंख भी नहीं सुहानेवाला. उन्हें तो बस मौके की तलाश होगी. बात अब तक सामने इसलिए भी नहीं आई है क्योंकि दोनों राजनीतिक दावपेंच के माहिर खिलाड़ी हैं.

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बुझे! बुझ गये कि नहीं?

पहले तो लालू पूरी कोशिश करेंगे कि नीतीश आगे बढ़ ही न पाएं - हो सकता है कहीं आगे चल कर वो शर्त रखें कि बिहार को उनके बेटे और डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव के हवाले कीजिए और उसके बाद जो मर्जी हो कीजिए. अभी ये सिर्फ कयासों का हिस्सा है. ये बात अलग है कि जिस तरह की राजनीति अब तक देखने को मिली है उसमें ऐसे कयासों के हकीकत बनते देर नहीं लगती.

मुश्किल नं. 2

नीतीश कुमार कदम कदम पर कांग्रेस (विशेष रूप से राहुल गांधी) के मददगार बने हुए हैं. असम में बदरूद्दीन अजमल के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन के लिए उन्होंने आखिरी दम तक कोशिश की. इसके लिए अपने सबसे भरोसेमंद और चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर को कई बार गुवाहाटी भेजा. प्रशांत फिलहाल पंजाब और यूपी के लिए कांग्रेस के चुनाव प्रचार का काम देख रहे हैं. यूपी में महागठबंधन की कोशिशें भी जारी हैं.

लेकिन, नीतीश का 'संघ मुक्त भारत' के लिए विपक्षी दलों से अपील कांग्रेस को बहुत रास नहीं आया है. आये भी कैसे? आखिर कांग्रेस अपने पीएम मैटीरियल राहुल गांधी के आगे भाल किसी और को बर्दाश्त कैसे कर सकती है?

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कांग्रेस ने नीतीश के प्रस्ताव को पूरा सम्मान देते हुए सिरे से खारिज कर दिया है. जैसे ही नीतीश का बयान आया कांग्रेस की ओर से चैनलों पर 'साउंडबाइट' आ गई.

मोर्चा संभाला शकील अहमद ने, "नीतीश कुमार और लालू प्रसाद के साथ हमारा गठबंधन बिहार में है. केरल में वहां की पार्टियों के साथ हमारा गठबंधन है. इसलिए गठबंधन तो हर जगह हो रहा है, लेकिन यह खास राज्य की परिस्थिति के अनुसार होता है.

कांग्रेस ये तो चाहती है कि बीजेपी के खिलाफ सारे विपक्षी दल लामबंद हों, लेकिन उसकी अगुवाई में. जैसे सोनिया गांधी की अगुवाई में मोदी सरकार के खिलाफ तमाम विपक्षी नेताओं ने राष्ट्रपति भवन तक मार्च किया था.

नीतीश किसी मुगालते में न रहें, शकील ने मैसेज कनवे करने की पूरी कोशिश की, "2019 के आम चुनाव के लिए केंद्र की तस्वीर अभी सामने आनी बाकी है."

यानी नीतीश ने जो कुछ भी कहा उससे कांग्रेस कतई इत्तेफाक नहीं रखती - बशर्ते, उसमें कांग्रेस की अपनी शर्तें लागू हों.

मुश्किल नं. 3

हर लोक सभा चुनाव से पहले एक अलग मोर्चे पर चर्चा और मीटिंग होती है. अब तक ये बयाना मुलायम सिंह के जिम्मे हुआ करता था - इस बार उनसे पहले नीतीश ने लपक लिया है.

नीतीश कुमार के मन में ये बात बिहार चुनाव में मिली कामयाबी से आ रही होगी - लेकिन मोर्चे का टूट कर बिखरना बड़े करीब से उन्होंने खुद ही देखा है. अब अगर यूपी से नीतीश बीजेपी के खिलाफ तगड़ी मोर्चेबंदी चाहते हैं तो क्या संभव है कि मायावती और मुलायम सिंह साथ आ पाएं. वैसे भी नीतीश शायद ही मुलायम को साथ लेना चाहें. ये तो उत्तर की बात है - दक्षिण में क्या डीएमके और एआईडीएमके कभी मिल कर किसी का विरोध कर पाएंगी. मौजूदा चुनाव में डीएमके और कांग्रेस साथ हैं - बाद में जो होगा वो भी बहुत अलग होगा ऐसा तो नहीं लगता.

आमतौर पर होता ये है कि किसी एक बड़े दल के विरोध के नाम पर क्षेत्रीय दल इकट्ठा तो हो जाते हैं लेकिन जब नेता बनने की बात आती है तो उनके अपने स्वार्थ टकराने लगते हैं.

अब ताजा मामला ही देखिए. शरद यादव ने भले ही नीतीश के लिए रास्ता खाली कर दिया, लेकिन अब वहां अजीत सिंह आकर खड़े हो गये हैं. जेडीयू और आरएलडी के विलय में सबसे बड़ी बाधा अब नेतृत्व को लेकर खड़ी हो गई है. अजीत सिंह चाहते हैं कि नई पार्टी (प्रस्तावित, जेवीपी - जन विकास पार्टी) का अध्यक्ष वो खुद बनें - यूपी में मुख्यमंत्री का चेहरा उनके बेटे जयंत चौधरी बनें. अगर सीएम कैंडिडेड नहीं तो जयंत को कम से कम डिप्टी सीएम कैंडिडेट जरूर बनाया जाए. बनना.

अजीत पुराने और जनाधार वाले नेता है और इस मामले में नीतीश की स्थिति अब भी कोई खास नहीं बदली है. हां, बिहार की जीत के बाद वो हीरो बने हुए हैं - खास कर खुली चुनौती में मोदी को शिकस्त देकर. फिर भी, यूं नहीं बन सकता हर कोई नसीबवाला... है कि नहीं!

लेखक

मृगांक शेखर मृगांक शेखर @mstalkieshindi

जीने के लिए खुशी - और जीने देने के लिए पत्रकारिता बेमिसाल लगे, सो - अपना लिया - एक रोटी तो दूसरा रोजी बन गया. तभी से शब्दों को महसूस कर सकूं और सही मायने में तरतीबवार रख पाऊं - बस, इतनी सी कोशिश रहती है.

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