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Updated: 02 अगस्त, 2016 04:45 PM
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आजाद होना, आजाद कहलाना और आजादी को महसूस करना - क्या ये तीनों अलग अलग बातें हैं?

देश आजादी के 70वें साल में प्रवेश कर रहा है - फिर भी, ये सवाल इतना प्रासंगिक क्यों बना हुआ है?

क्या आजादी की जश्न के बीच - मोदी सरकार की 70 उपलब्धियां इस सवाल को अप्रासंगिक बना पाएंगी?

देश में आजादी

'देश में आजादी!' आजादी को इस रूप में पेश किया है जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार ने.

देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तारी के बाद जेल से छूटने पर कन्हैया कुमार ने कहा था - 'मैं देश से आजादी नहीं, देश में आजादी चाहता हूं.'

क्या सिर्फ कन्हैया कुमार ऐसा महसूस करते हैं? या ऐसे और भी लोग हैं?

आज पूरा दलित समुदाय देश में आजादी जैसा क्यों नहीं महसूस कर रहा है? क्या इसकी वजह सिर्फ ऊना की घटना है?

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ऊना की घटना को बर्बर कैटेगरी में रखा जाएगा - और उसके बाद के हालात और भी चिंतित करने वाले हैं.

लेकिन मध्य प्रदेश में भी एक दलित महिला को पीटे जाने की खबर आई है, तो एक इलाके में किसी दलित युवक के मुहं में पेशाब डालने की खबर सुनी गई. कहीं से उन्हें सिगरेट से जलाये जाने तो कई बार उनके हाथ काट लेने की भी खबरें आती हैं.

फिर तो ये सवाल रोहित वेमुला के मन में भी उठा होगा!

क्या मायावती ने ऐसा महसूस किया है? क्या रामविलास पासवान ने ऐसा महसूस किया है? क्या चिराग पासवान ने ऐसा महूसस किया है?

ऊना मार्च

11 जुलाई को ऊना में खुद को गोरक्षक होने का दावा करने वाले लोगों ने चार दलित युवकों को नंगा करके पिटाई की थी - और गाड़ी में बांध कर बाजार में घुमाया था. हमलावरों ने दलित युवकों पर गायों का चमड़ा उतारने का आरोप लगाये थे. हालांकि, बाद में खबर ये भी आई कि एक शेर ने गाय का शिकार किया था. पुलिस के सामने एक चश्मदीद का ये दावा था.

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कितना फायदेमंद होगा ऊना मार्च...

ऊना की घटना के विरोध में अहमदाबाद में दलितों की एक रैली हुई - और प्रस्ताव लाया गया कि 5 अगस्त से दलित समुदाय के लोग ऊना कूच करें. 15 अगस्त को जब प्रधानमंत्री लाल किले की प्राचीर से देश को संबोधित कर रहे होंगे तो दलित समुदाय के ये लोग दिल्ली से दूर ऊना में अपने तरीके से आजादी का जश्न मना रहे होंगे.

ये दलितों के विरोध प्रदर्शन का अपना तरीका है. इस दौरान आजादी को महसूस करने की बात की जा रही है.

हर तरफ सियासत

मायावती खुद को दलितों का सबसे बड़ा खैरख्वाह बताती हैं. मोदी सरकार में मंत्री बनने के बाद आरपीआई के रामदास अठावले ने मायावती को चैलेंज किया है. इस पर मायावती ने उन्हें बीजेपी का गुलाम करार दिया है.

बीजेपी के सपोर्ट से धम्म चेतना यात्रा निकाली गई है. आगरा में 31 जुलाई को इस यात्रा में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह का भी कार्यक्रम रखा गया था. ऊना की घटना का इतना असर हुआ कि दलित समुदाय के विरोध के डर से अमित शाह का प्रोग्राम रद्द कर दिया गया.

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बीजेपी में भी दलित सांसदों का एक ग्रुप भी ऊना की घटना के बाद एक्टिव है. इस ग्रुप ने प्रधानमंत्री से एक्शन लेकर कड़ा संदेश देने की मांग की है. प्रधानमंत्री की ओर से अभी तक कोई बात सामने नहीं आई है.

अहमदाबाद की रैली में दलित नेता काफी गुस्से में दिखे. नेताओं ने सरकार के सामने मांग रखी कि उन्हें खेती के लिए जमीन मुहैया कराई जाए ताकि वे भी अपने तरीके से जिंदगी गुजार सकें.

सम्मेलन में दलित समुदाय के लोगों को सलाह दी गई कि वो पशुओं के शव उठाने का काम छोड़ दें. साथ ही, दलित समुदाय के लोग सीवर की सफाई का काम भी बंद कर दें.

दलित नेताओं की ओर से चेतावनी भी दी गई - अगर दलितों पर अत्याचार नहीं रुका तो वे 2017 के चुनाव में अपनी ताकत दिखा देंगे. निश्चित रूप से 2017 का चुनाव उन्हें अपनी ताकत दिखाने का बड़ा मौका होगा. वैसे इससे देश के सारे दलितों का कल्याण तो नहीं होने वाला. थोड़ा ही सही, बदलाव की एक चिंगारी निकलेगी तो दूर तक जाएगी ही, ऐसी उम्मीद तो जरूर की जानी चाहिए.

ऊना में आजादी का जश्न मनाने का ये आइडिया तो अच्छा है लेकिन क्या ये दलितों के हितों पर ही फोकस होगा. कहीं इस मुद्दे को 2017 के हिसाब से ही हवा तो नहीं दी जा रही हैय़ सत्ताधारी पार्टी के विरोध की राजनीति लोकतंत्र को मजबूत करता है लेकिन कई बार इसमें असल मुद्दे पीछे छूट जाते हैं. दलितों को अब तक वोट बैंक के तौर पर ही इस्तेमाल किया जाता रहा है. कहीं ऊना पहुंच कर आजादी मनाने के बाद भी दलित छलें न जाएं, डर सिर्फ इसी बात का है.

चुनावों से पहले होने वाले जातीय सम्मेलनों में दलित सम्मेलन भी प्रमुख होते हैं - लेकिन चुनाव बाद बगैर बताए ही वे जुमला साबित हो जाते हैं.

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