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Updated: 15 मार्च, 2019 05:09 PM
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चीन ने एक बार फिर से आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद के मुखिया मसूद अजहर पर बैन नहीं लगने दिया. एक बार फिर चीन ने अपनी वीटो पावर का इस्तेमाल करते हुए उस आतंकी को बचा लिया, जिसकी वजह से पुलवामा हमले में सीआरपीएफ के 46 जवान शहीद हो गए. ऐसे में भारत के लोगों में चीन के लिए गुस्सा लाजमी है, लेकिन इन दिनों चुनावी माहौल है तो राजनीति भी तो होगी. मौके का फायदा उठाने के लिए बिना कोई देरी किए सबसे पहले राहुल गांधी ने भाजपा पर निशाना साधते हुए ट्वीट कर डाला. उन्होंने लिखा- 'कमजोर मोदी शी जिनपिंग से डरे हुए हैं. चीन ने भारत के खिलाफ कदम उठाया तो मोदी के मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला.'

राहुल गांधी का ये हमला अब कांग्रेस पर ही भारी पड़ने वाला है, क्योंकि भाजपा ने इतिहास के पन्ने उलटना शुरू कर दिया है और वहां से जो तथ्य सामने आ रहे हैं वो कांग्रेस के खिलाफ जाएंगे. राहुल गांधी के आरोप पर रविशंकर प्रसाद ने कहा- 'चीन की बात राहुल करेंगे तो बात दूर तलक जाएगी.' उन्होंने अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में द हिंदू की एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा कि देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की वजह से ही आज चीन को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सीट मिली है. उन्होंने ही इस बात की वकालत की थी कि चीन को वह सीट दी जानी चाहिए, जबकि वो सीट भारत को ऑफर हुई थी.

अब सवाल ये है कि आखिर नेहरू ने ऐसा क्यों किया? उन्होंने भारत के हिस्से की इतनी अहम सीट चीन को क्यों दे दी? क्या वाकई ये उनकी गलती थी या कोई डर या ये सब किसी रणनीति का हिस्सा था? यानी सीधे-सीधे कहें तो आखिर उस समय नेहरू के मन में चल क्या रहा था कि उन्होंने चीन को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनवा दिया? चीन ने तो उनका अहसान भी नहीं माना, उल्टा भारत को ही आंखें दिखा रहा है.

जवाहरलाल नेहरू, चीन, कांग्रेस, मसूद अजहरआखिर 1950 के दशक में नेहरू के मन में चल क्या रहा था?

नेहरू ने ऐसा क्यों किया?

1950 के दशक में भारत पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना यानी PRC को संयुक्त राष्ट्र में शामिल करने की वकालत कर रहा था. या कहें कि नेहरू की जिद के कारण ही आज चीन को सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट मिली है, जो उस समय रिपब्लिक ऑफ चाइना (ताइवान) के पास थी. 1949 में एक कम्‍युनिस्‍ट देश के रूप में PRC के बनने तक यूएन में चीन का प्रतिनिधित्व च्यांग काई-शेक के रिपब्लिक ऑफ चाइना से ही होता था. अमेरिका इस बात के खिलाफ था कि PRC को संयुक्त राष्ट्र में जगह मिले, क्योंकि अमेरिका को एक तानाशाह देश को शामिल करने की स्थिति में कोल्ड वॉर का डर सता रहा था. लेकिन ये जवाहरलाल नेहरू का इस बारे में खयाल कुछ और थे.

अब सवाल ये है कि आखिर नेहरू ने PRC को संयुक्त राष्ट्र में स्थानीय सदस्यता दिलाने की वकालत की क्यों? कुछ मानते हैं कि 1950 के दशक में भारत और चीन के बीच बढ़ रही तल्खी को सुलझाने की कोशिश में कम्युनिस्टों को खुश करने के लिए नेहरू ने ऐसा किया था. वहीं कुछ अन्य लोगों का तर्क है कि नेहरू के भीतर एशियाई देशों की एकता कायम करने का ख्‍वाब था, और वे खुद को इस संगठन के नेता के रूप में देखना चाहते थे. उन्होंने दोनों देशों के इतिहास से ये अंदाजा लगाया कि भारत और चीन तो साथी रहे हैं और इसी के चलते उन्होंने PRC को संयुक्त राष्ट्र में स्थायी सदस्य बनाने की वकालत की.

मोटे तौर पर, अधिकतर लोग इसे नेहरू का आदर्शवाद और अंतरराष्ट्रीय संबंधों के सच्‍चाई के उनके कमजोर मूल्यांकन के तौर पर देखते हैं. इन लोगों का मानना है कि ताकत बहुत मायने रखती है, इसके लिए समझदारी से काम लेना जरूरी होता है.

नेहरू मानते थे कि प्रथम विश्व युद्ध के बाद जर्मनी के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार किया गया था. अपमान की भावना और अलग-थलग होने के चलते वह एक असंतुष्ट देश बन गया. उन्हें ये भी डर था कि अगर चीन के साथ कोई भेदभाव हुआ तो वह भविष्य में खतरनाक बनकर सामने आ सकता है. और यही वजह थी कि नेहरू चाहते थे कि चीन संयुक्त राष्ट्र से जुड़ जाए. उन्होंने तो ये भी कहा था कि चीन को संयुक्त राष्ट्र में सम्मिलित नहीं करना सिर्फ गलती नहीं, बल्कि खतरनाक होगा. 1950 में उन्होंने संसद में कहा भी था कि क्या कोई आज के दौर में ताकत के मामले में चीन को नजरअंदाज कैसे किया जा सकता है?

नेहरू ने दुनिया के सामने दलील रखी थी कि चीन एक ताकतवर देश है, जो अजीबोगरीब मानसिकता से गुजर रहा है. 1960 में दिल्ली में उन्‍होंने पांच साल पुरानी माओ की उनसे हुई बातचीत का हवाला देते हुए कहा था कि यदि उनके देश में कुछ लाख लोग मर जाएंगे, तो उन्‍हें फर्क नहीं पड़ेगा. उन्होंने इतिहास का हवाला देते हुए कहा कि चीन पहले भी अपना गुस्सा दिखा चुका है, वैसा भविष्य में हुआ तो खतरनाक हो सकता है. नेहरू मानते थे कि चीन को नजरअंदाज करते हुए उसके साथ मिलकर नहीं चला सकता है. अगर उसके बारे में नहीं सोचा गया तो वो भी किसी की नहीं सुनेगा.

नयनतारा सहगल ने अपनी किताब Jawaharlal Nehru: Civilizing a Savage World में लिखा है एक बनी बनाई सत्‍ता को सिर्फ इसलिए नजरअंदाज करना, क्योंकि वह कम्युनिस्ट हैं, नेहरू के हिसाब से ये एक बहुत बड़ी गलती होगी. कुछ ऐसा ही सोवियत यूनियन के साथ भी किया गया था. दुनिया से अलग-थलग होता हुआ चीन भी सोवियत यूनियन की तरह बर्ताव करने लगा था.

उस समय नेहरू को ये बहुत खतरनाक लग रहा था कि भारत का पड़ोसी बुरी तरह से असंतुष्ट हो और दुनिया के कोई नियम-कायदे उस पर लागू ना हों. खैर, 1950 के दशक में तो चीन से भारत पर कोई खास खतरा नहीं था, लेकिन आने वाले समय को देखते हुए नेहरू ने ये कदम उठाया. कोरियन वॉर ने नेहरू को ये महसूस करा दिया कि चीन किसी दिन खतरा बन सकता है. जिस दौर में सेनाएं एकजुट हो रही थीं और देशों के पास परमाणु हथियार होने का संदेह सामने आ रहा था, ऐसे में मुमकिन था कि भारत बड़े ताकतवर देशों के बीच घिर कर रह जाता. 1949 में नेहरू को यही सही लगा कि चीन को संयुक्त राष्ट्र का हिस्सा बनाया जाए, ताकि तनाव की संभावनाएं कम हो सकें.

नेहरू ने चीन को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य बनाकर भारत के लिए खतरा नहीं बनने दिया. उस दौरान तो ये सब सही रहा, लेकिन आने वाले सालों में चीन ने अपना जो रंग दिखाया है, वह भी बेहद खतरनाक है. नेहरू के शासनकाल में ही उसने 1962 में भारत पर भयंकर हमला किया. और अक्‍साई-चिन और अरुणाचल प्रदेश के बड़े हिस्‍से पर कब्‍जा कर लिया. भारत-चीन सीमा विवाद नेहरू की उदारता के बावजूद अनसुलझा ही रहा. और आज भी कायम है. 2017 में डोकलाम में चीन की सेना भारत से युद्ध तक की तैयारी कर चुकी थी. एक लोकतांत्रिक देश (भारत) का प्रधानमंत्री होने के बावजूद नेहरू ने एक तानशाह देश की पैरवी की. वह भविष्य को सही से आंक नहीं पाए. एक ओर तो नेहरू से बड़ी गलती हुई और दूसरी ओर चीन ने नेहरू के इस कदम को कभी अहसान नहीं समझा. हो सकता है कि चीन उसे भारत का डर ही समझ रहा हो, जैसा कि नेहरू ने अंदाजा भी लगाया था. चीन की अहसान फरामोशी अब दुश्मनी में बदलती जा रही है. वो ऐसे काम कर रहा है, जिससे भारत को नुकसान हो रहा है. आंतकी मसूद पर लगने वाले बैन पर रोक लगाने वाला वह पाकिस्‍तान के अलावा दुनिया का इकलौता देश है.

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