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बड़ा आर्टिकल  |  
Updated: 15 जून, 2022 05:19 PM
अनुज शुक्ला
अनुज शुक्ला
  @anuj4media
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उत्तर प्रदेश में रामपुर और आजमगढ़ लोकसभा सीटों पर उपचुनाव हो रहे हैं. इसमें भी आजम खान की वजह से रामपुर लोकसभा सीट पर समूचे देश की नजर है. विचार जैसी चीजों में तटस्थता की कोई गुंजाइश नहीं होती. चूंकि यहां तटस्थता की गुंजाइश है भी नहीं तो किसी को बात बुरी लगे या भली- आगे बातें तो दो टूक और साफ़ लहजे में होंगी. आप को पसंद आए तो बढ़ें, वरना "साम्प्रदायिक" चीजों में अपने कीमती वक्त को एवे ही बर्बाद ना करें. तो साहिबान सीधी सपाट बात यह है कि रामपुर में सिर्फ हिंदू-मुस्लिम मुद्दाभर नहीं है. रामपुर उपचुनाव में हिंदू-मुस्लिम मुद्दा सिर्फ इसलिए नहीं बन सकता कि यहां सबसे ज्यादा करीब 55 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता हैं. 42 प्रतिशत के आसपास हिंदू और शेष सिख और बौद्ध-ईसाई मतदाता आदि.

रामपुर उपचुनाव असल में हिंदू-मुस्लिम मुद्दे से कहीं ज्यादा भारत और दूसरे पाकिस्तान का भी मुद्दा है. सोशल मीडिया और सड़कों पर हर रोज भारत विरोधी भावना में दिख रहा है यह. दूसरा पाकिस्तान कहने का मतलब है कि मुस्लिम राजनीति जिस तरह से धार्मिक एकाकीपने और अहं की श्रेष्ठता की तरफ बढ़ रही है- रामपुर से निकला जनादेश समूचे देश में दूसरे पाकिस्तान के गुपचुप अभियान को हवा दे सकता है. दूसरे पाकिस्तान का मुद्दा है. आप मानें या नहीं. झलकियाँ लगातार दिख रही हैं. और 100 साल पीछे इतिहास में भी पाकिस्तान बनने से पहले लगभग इसी तरह की घटनाएं, मगर दूसरे कथानक में दिखी थीं. चूंकि मनाही के बावजूद अगर दूसरे पैरा तक पहुंच ही चुके हैं तो आगे बढ़ने से पहले या लेख ख़त्म होने के बाद आज "खिलाफत" के कीवर्ड को किसी भी इंटरनेट प्लेटफॉर्म पर सर्च कर इच्छाएँ और योजनाओं का पता लगाने की कोशिश जरूर करिएगा.

100 साल पहले भारत का आम मुसलमान और आम हिंदू वैसा नहीं था जैसा आज दिखता है. समाज भी वैसा नहीं था. हिंदू और मुसलमान दोनों का सवर्ण तबका ही सामजिक राजनीतिक और आर्थिक रूप से अगुआ नजर आता था. हिंदू और मुसलमानों में बंटवारा बड़े शहरों में थोड़ा बहुत दिखता था. बड़े शहरों में विदेशी मूल के भारतीय मुसलमान हिंदुओं के सवर्ण तबके की तरह प्रभावी थे. लेकिन दूसरे शहरों और ग्रामीण इलाकों में हालत बिल्कुल अलग थे. वहां घर, मंदिर या मस्जिद से बाहर निकलने पर ना तो मुसलमान- मुसलमान था और ना हिंदू- हिंदू. पूजा पद्धतियों के अलावा खानपान और पहनावे में कोई फर्क नहीं था. लोक परंपराओं को मानने के मामले में भारतीय मुसलमान भी हिंदुओं की तरह ही दिखते थे. यहां तक कि निकाह काजी पढ़वाते जरूर थे, और कब्रिस्तान में सुपुर्द ए खाक इस्लामिक रिवाज से ही होते थे बावजूद हिंदुओं की परम्पराओं का निर्वहन किया जाता था. यहां यह कहने का मतलब बिल्कुल नहीं है कि भारतीय मुसलमानों को हिंदुओं की परंपराओं को फ़ॉलो करना चाहिए.

azam khanआजम खान उत्तर की मुस्लिम राजनीति का सबसे बड़ा चेहरा हैं.

मुसलमान भी अपने पुरखों के पंडित, नाई और कुहार को बुलाकर नेग निछावर देते ही थे और प्रतीकात्मक रूप से पुराने धर्म से किसी ना किसी रूप से जुड़े थे. शादियों में मंडप गाड़ना, गीत गाना, हल्दी आदि रस्में भी निभाई जातीं. कुछ जगह अपनापा इतना ज्यादा गहरा था कि अलग धर्मों के बावजूद आपस में शादी-विवाह तक किए जाते थे. अभी भी यह जारी है. हालांकि जो विदेशी मूल के मुसलमान थे, वह भारतीय समाज में घुले मिले जरूर थे- लेकिन उन्होंने एक सीमा तक ही भारतीय परम्पराओं को स्वीकार किया. वह बोली भाषा और कुछ हद तक खानपान से आगे नहीं बढ़ पाए. पहली बार बदलाव भारत में एक ऐसी चीज की वजह से शुरू हुआ- ईमानदारी से भारत का उससे कोई सीधा सीधा संबंध नहीं था. वह चीज थी- खिलाफत.  

राजनीति में मुस्लिम सियासत का बड़ा प्रतीक है रामपुर

100 साल पहले जब विश्वयुद्ध ख़त्म हुआ और तुर्की में अंग्रेजों ने खलीफा को हटा दिया, इस्लामिक आंदोलन खड़ा होता नजर आया. आंदोलन ने सबसे ज्यादा भारत में जोर पकड़ा. भारत में खिलाफत का नेतृत्व वह तबका कर रहा था जो विदेशी मूल के मुसलमानों का था. गांधी जी ने कांग्रेस की लाइन से अलग जाते हुए एक धार्मिक मामले को सपोर्ट किया. वह भारत के इतिहास की सबसे बड़ी गलती थी. आज की तारीख में इस बात को खारिज करने का कोई तर्क नहीं है कि एक गांधी जी के सपोर्ट ने भारतीय समाज में ना सिर्फ खिलाफत को स्वीकारता दे दी बल्कि भारतीय मुसलमानों को थाली में सजाकर विदेशी मुसलमानों के हाथ की कठपुतली भी बना दिया और पाकिस्तान को खिलाफत के जरिए ही मूर्त कर दिया. 1925 में खिलाफत आंदोलन ख़त्म हुआ. अंग्रेज नहीं झुके. लेकिन अशराफ मुसलमानों को बनी बनाई जमीन मिल गई और अगले तीन दशक में पाकिस्तान के रूप में एक अलग देश ले ही लिया.

रामपुर आंदोलन का बड़ा केंद्र था. खिलाफत के पांच बड़े नेताओं में अली बंधु (मौलाना शौकत अली, मौलाना मोहम्मद अली) भी शामिल थे. रामपुर में आजम खान ने जिस जौहर यूनिवर्सिटी को बनाया था, असल में वह मोहम्मद अली के नाम पर ही है. आजादी के बाद भारत के संविधान में धर्म निरपेक्षता नाम का कोई शब्द नहीं था. बावजूद सभी धर्मों को अघोषित भारतीय संस्कृति में धार्मिक रीति रिवाज मानने की आजादी थी. हालांकि खिलाफत से भारतीय मुसलमानों में जो एकजुटता बनी वह पाकिस्तान बनने के बाद भी कायम रही. ये दूसरी बात है कि मुसलमानों में हिंदुओं से कुछ कम भयानक जातिवाद नहीं है. बावजूद मुसलमान राजनीति में हमेशा मजहब के नाम पर एकजुट रहे और वोटबैंक बने रहे. उन्होंने हमेशा ये माना कि मुसलमानों का कोई देश नहीं होता और दुनिया के सभी मुसलमान भाई है. ये दूसरी बात है कि अपने ही भाइयों को कोई मुस्लिम देश शरण देने को तैयार नहीं होता. और जरूरत ख़त्म होने पर लात मारकर भगा दिए जाते हैं.

इंदिरा की कोशिशों ने चुनावी राजनीति का भविष्य ही बदल दिया

समझ में नहीं आता कि इंदिरा गांधी ने संविधान में धर्मनिरपेक्षता के प्रावधान को क्यों जोड़ा था? संविधान में यह शब्द जुड़ने के बाद वोटबैंक के रूप में मुसलमानों का वोटिंग पैटर्न राजनीति को प्रभावित करने लगा. यह धीरे-धीरे संविधान और क़ानून की मान्यताओं को चुनौती देने लगा. इस्लाम के नाम पर आज की तारीख में स्थिति क्या है- यह बताने की जरूरत नहीं है. मुसलमान किसी भी पार्टी का परंपरागत वोटर नहीं है. हर राज्य में उनकी पसंद अलग है. और पसंद के पीछे एकमात्र वजह है कि कोई पार्टी मुसलमानों के पक्ष में किस हद तक वफादार है. उन्हें- बिजली पानी सड़क सुरक्षा किसी चीज से कोई मतलब नहीं. उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश में मुसलमान कांग्रेस, जनता दल, सपा, बसपा के साथ रहा है. चूंकि भाजपा मुसलमान विरोधी पार्टी के रूप में मशहूर है. मुसलमान वोटर उसी दल को वोट देते हैं जो उसे हराने में सक्षम हो. इस तरह उन्होंने जनता दल, सपा, बसपा के रूप में समय समय पर अपना वोटिंग पैटर्न बदला है. अन्य राज्यों में भी यही पैटर्न नजर आता है. जहां भाजपा के उम्मीदवारों को ओवैसी की पार्टी सीधे हराने में सक्षम होती है वहां उसे वोट देते हैं.

सपा के पक्ष में दिख रहा मुसलमान तभी तक सपा के साथ है जब तक वह भाजपा से सीधे लड़ाई में है. कल को अगर आम आदमी पार्टी उस स्थिति में आ जाए तब वह उसके साथ भी चली जाएगी. मुसलमानों ने कभी भी राष्ट्रीय या देश से जुड़े मुद्दों पर ना तो वोट दिया और ना ही राजनीति की. आगे भी नहीं करेंगे- यह हर सुबह सूरज के उगने जैसा सत्य है. फिलहाल मुसलमानों का जो फ्रस्टेंशन दिख रहा है, उसकी सबसे बड़ी वजह इलेक्टोरल पॉलिटिक्स में उनकी गोलबंदी का बेकाम हो जाना है. अब वे चुनावी राजनीति के जरिए मनमाफिक चीजें नहीं कर पा रहे हैं. अब वे और ज्यादा कट्टरपंथी और धार्मिक मुद्दों को उठा रहे हैं. उनकी कोशिश है कि भारत में मुसलमानों के मुद्दे पर किसी भी तरह से दुनिया का ध्यान खींचा जाए और इसे एक अंतरराष्ट्रीय समस्या के रूप में खड़ा किया जाए. जैसे कश्मीर में वे बहुत हद तक ऐसा ही करने में कामयाब रहे.

100 साल पहले जो हुआ, गौर से देखिए उसे किस तरह दोहराया जा रहा है

100 साल पुराना ट्रेंड देखिए. जैसे उन्होंने खिलाफत में खलीफा के बहाने देशभर के मुस्लिमों को एकजुट कर सड़क पर उतारा था और उसमें उनके पढ़े लिखे तबके से लेकर मस्जिद के मौलाना उलेमा तक शामिल थे, नुपुर शर्मा के मामले में भी यही सब कर रहे हैं. पैगंबर साहब के बहाने सोशल मीडिया पर अनाप शनाप बातें लिखी गईं. क्या लगता है कि मुस्लिम देशों ने ऐसा ही बयान दे दिया होगा? उनसे कहलवाया गया. यह भारत के मामले में इस्लामिक देशों को घुसाने की खतरनाक कोशिश थी. मुस्लिम देशों ने जिस तरह इस्लाम के नाम पर बयान दिए उसकी प्रतिक्रिया समूचे देश में सड़कों पर देखी जा सकती है. इसका निर्ममता से दमन किया जाना चाहिए. क्योंकि मामला पैगम्बर साहब के अपमान का है ही नहीं. असल मामला मुसलमानों के अनुसार देश चलाने की है जो पूरी तरह से असंभव है.

अगर आप खिलाफत को लेकर पिछले कुछ समय से भारत में मुस्लिम समाज के एक वर्ग में हो रही बातचीत देख रहे होंगे तो आपको समझना मुश्किल नहीं कि भारत में अराजकता को पनपाकर नए सिरे से एक और पाकिस्तान बनाने की प्रक्रिया को अंजाम देने की कोशिशें हो रही हैं. भारतीय विपक्ष अभी भी जमीनी सच्चाई से मुंह मोड़े नजर आ रहा है. बार-बार आ रहे जनादेश को समझ नहीं पा रहा है. बावजूद कि नुपुर शर्मा केस के बाद तमाम प्रतिक्रियाओं ने भाजपा को और ज्यादा मजबूती प्रदान की है. भाजपा के लगातार मजबूत बने रहने के पीछे की यही सबसे बड़ी सच्चाई है.

विपक्ष अभी भी वोटबैंक की राजनीति में मुसलमानों को लेकर सत्ता हथियाने के खेल में जुटा है जिसे भविष्य में भारत की संप्रभुता के लिए सबसे बड़े खतरे के रूप में ही देखा जाना चाहिए. रामपुर में सिर्फ भाजपा और सपा ने उम्मीदवार उतारे हैं. सपा के उम्मीदवार की बजाए अगर ये कहा जाए कि वह आजम खान का उम्मीदवार है तो गलत नहीं होगा. क्योंकि सपा के कैंडिडेट का चयन और उसके नाम की घोषणा तक आजम खान ने की है. ऐसा किसी भी पार्टी के इतिहास में नहीं दिखा. कांग्रेस और बसपा ने कैंडिडेट नहीं दिया है. दो ध्रुवीय लड़ाई का सीधा मतलब है कि यहां के नतीजों का असर दूर तलक जाएगा. मुसलमान तो काल्पनिक आशंकाओं में फंसा हुआ है. वह तो आरोप लगाते आ रहा है कि उसके साथ 1947 से ही भेदभाव हो रहा है. भारत उसका उत्पीड़न करते आ रहा है. बावजूद कि उसने अब तक हर शहर में एक शाहीनबाग़ बना दिया.

अब यह कैसे संभव है कि भारत में संविधान के साथ मुसलमानों के लिए अलग से शरीया की भी व्यवस्था की जाए. स्वाभाविक है कि उन्हें इस्लामिक क़ानून चाहिए तो उसके लिए देश का इस्लामिक बनना जरूरी है या उनके पसंद की सरकार हो. भारत इस्लामिक देश नहीं बन सकता. चुनावी राजनीति में मुसलमानों के लिए अब मजहबी गुंजाइश नहीं रही.

असल में रामपुर का चुनाव इसीलिए अहम है. यह चुनाव भाजपा और आजम खान के बीच नहीं बल्कि भारत और एक दूसरे पाकिस्तान के बीच भी मान सकते हैं. कड़वी ही सही पर सच्चाई यही है.

लेखक

अनुज शुक्ला अनुज शुक्ला @anuj4media

ना कनिष्ठ ना वरिष्ठ. अवस्थाएं ज्ञान का भ्रम हैं और पत्रकार ज्ञानी नहीं होता. केवल पत्रकार हूं और कहानियां लिखता हूं. ट्विटर हैंडल ये रहा- @AnujKIdunia

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